विचार

अपने प्रभाव के विस्तार के लिए तीसरे मुल्क को कुरुक्षेत्र बनाती रही हैं महाशक्तियां, इसी जिद की मिसाल है अफगानिस्तान

साम्यवादी झुकाव के तोड़ के रूप में धर्मांधता को प्रोत्साहित करके अपने प्रभाव को कायम रखने की कवायद इतनी भारी पड़ेगी, शायद यह दिखाई नहीं दिया होगा। फिर यह कोरा समर्थन या परोक्ष सहमति तक सीमित नहीं था इसे अस्त्र-शस्त्र से लैस किया गया।

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दूसरे विश्व युद्ध के समाप्त होते-होते यूरोपीय साम्राज्यवादी मंसूबों का भी सूर्य अस्त हो गया। उनके ‘प्राधन्य’ की विरासत को सहेजने का जिम्मा स्वतः ही अमेरिका ने उठा लिया, जैसे कि वह यूरोपीय प्राधन्य की आकाशगंगा का ही विस्तारित हिस्सा हो। दो वैश्विक शक्तियों के बीच दुनिया जैसे बंट-सी गई। यूरोप के मुल्कों ने साम्राज्यवादी राजनीतिक विस्तार और वाणिज्यिक लाभ के लिए बारंबार भूगोल से खिलवाड़ किया। सरहदों को अपने हिसाब से पुनर्परिभाषित किया। ये रेखाएं मुल्कों के बीच की लक्ष्मण रेखा से कहीं अधिक औपनिवेशिक स्वार्थ की लकीरें साबित हुईं। पारिस्थितिकीय लोक-ज्ञान से महरूम होकर खींची गई कई रेखाएं आज भी विवाद का कारण हैं। उन्नीसवीं- बीसवीं सदी में ऊर्जा के प्रमुख स्रोत, तेल के कुंओं पर आधिपत्य जमाने की गरज से यूरोपीय प्राधन्य के नववंशजों ने इसी सामरिकता का दोहराव किया।

मध्य एशिया में कई नए मुल्क गढ़े गए। सीमाएं बदली गईं। इन मुल्कों के राजकीय प्रबंधन की संपूर्ण जिम्मेदारी भी प्राधन्य की परंपरा ने अपने कंधों पर उठाई। लोकतंत्र, समता और आजादी की वकालत एक तरफ चलती रही, तो दूसरी तरफ नए गढ़े गए मुल्कों में से कुछ को राजशाही का कलेवर भी बड़े शान से दिया गया। इनके हुक्मरानों से कभी मानवाधिकार, समता और आजादी आदि पर कोई चर्चा तब तक नहीं की गई, जब तक कि सामरिक प्राधन्य कायम रहा। ऊर्जा के स्रोतों पर दबदबा जब-जब भी खिसकता नजर आया, तब-तब गठजोड़ टूटा। अचानक मानवाधिकार की याद हो आई। दोस्त शासक तानाशाह दिखाई देने लगे।

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इन महाशक्तियों ने अपने प्रभाव के विस्तार के लिए सदैव किसी तीसरे मुल्क को कुरुक्षेत्र बनाया। वियतनाम और अफगानिस्तान उसकी मिसालें हैं। आज जिन कट्टरपंथियों को कोसा जा रहा है, वे किसकी इजाद हैं? साम्यवादी झुकाव के तोड़ के रूप में धर्मांधता को प्रोत्साहित करके अपने प्रभाव को कायम रखने की कवायद इतनी भारी पड़ेगी शायद यह दिखाई नहीं दिया होगा। फिर यह कोरा समर्थन या परोक्ष सहमति तक सीमित नहीं था। इसे अस्त्र-शस्त्र से लैस किया गया। इन धर्मांध कट्टरपंथियों के विचार तब भी यही थे। आखिर वही हुआ जो होना था। भस्मासुर अपने आराध्य के सिर पर हाथ रखने योग्य हो गया।

अपने प्रभाव को संस्थापित करने की जिद्द में इन नए अधिनायकवादियों ने कभी स्थानीय लोक चेतना को महत्व नहीं दिया। उनके पर्यावास को छिन्न-भिन्न किया। उन पर अपनी मर्जी थोपने को ‘सुधा’ की संज्ञा दी, जैसे कि उनके पदार्पण से पहले यह जाहिलियत से भरी दुनिया रही हो। इनके प्राधन्य से उपजे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक नीतियों ने लघुतम अभिजात्य वर्ग तैयार किया। इसका संसाधनों पर पूर्ण नियंत्रण था। यह वर्ग स्थानीयत्व को हीनता से देखता था और खुद अधिनायकों की जीवनशैली की प्रतिकृति बन बैठा।

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बढ़ती आर्थिक विषमता और बाजार के भरोसे छोड़ दिए जाने की त्रासदी गंभीर होती है। स्थानीय भावनाओं को कुचलना, संसाधनों पर कब्जाकरने के लिए कठपुतली शासन और अभिजात्य वर्ग तैयार करना भारी हिंसा है। इससे चौड़ी होती आर्थिक खाई को पाटना मुश्किल है। वह ऐसे रोष को पनपाती है जो प्रति हिंसा में बदलती है। एक ऐसी प्रतिक्रिया आकार लेती है, जो स्थापित मूल्यों के खिलाफ खड़ी हो जाती है। फिर चाहे वे मूल्य कितने ही सही क्यों न हों? हिंसा का चक्र विवेक को सबसे पहले लीलता है। यही धर्मांधता और कट्टरता की जननी है।

तो क्या कोई तीसरा विकल्प मौजूद नहीं? इस दौरान सोशल मीडिया पर चरखा और गांधी जी को लेकर कई फूहड़ मजाक और तथ्यहीन व्यंग्य चले। मगर उम्मीद की किरण वहीं नजर आती है। 1906 में 11 सितंबर को ही पहली बार आधुनिक समय में ‘सत्याग्रह’ का राजनीतिक/सामाजिक बदलाव के साधन के तौर पर दक्षिण अफ्रीका में उपयोग हुआ। बाद में चरखा आर्थिक स्वराज और सामाजिक समता का सबसे बड़ा औजार बना। चरखे ने एक बार को तो मैनचेस्टर की मिलों को जाम कर दिया लेकिन वह हिंसा के चक्र को तोड़ने वाला और संवेदना जागृत करने वाला अस्त्र सिद्ध हुआ। जब गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने गए गांधी मैनचेस्टर के मिल मजदूरों की बस्ती मे जाकर ठहरे, तो मजदूरों की बस्ती ने सागर पार दासत्व भुगत रहे बड़े वर्ग के प्रति अपनी करुणा जताई। बाजार- आधारित अर्थतंत्र की क्रूरता और उसके दंश से दुनिया की बड़ी आबादी को बचाना आज भी चुनौती है।

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यह भी याद रखा जाए कि 11 सितंबर, 1895 के ही दिन आचार्य विनोबा भावे का जन्म हुआ। एक ऐसा संत जिसने ‘वसुधैव कुटुंबकम’ को ‘जय जगत’ के रूप में नया प्रासंगिक सार्वभौमिक आवरण दिया। उनके लिए सरहदें बेमानी थीं। अफगानिस्तान की हाल की त्रासदी में ‘काबुलीवाला’ की बहुत याद आई। गुलाम होने पर भी भारत का अवाम और भारत के रचनाकार रोशन ख्याल थे। नन्हीं बच्ची के प्रति पितृ वत्सलता को उस वक्त का भारत किसी प्रकार के ‘जिहाद’ से जोड़कर नहीं देखता था।

वैसे, अब तो अपने ही मुल्क के चूड़ीवालों, मेंहदी वालियों से मजहब पूछा जाना वायरल हो रहा है। लेकिन सब कुछ तहस-नहस नहीं हुआ। अब भी जबलपुर-जैसे अनेक शहरों में मुहर्रम के ताजियों पर हिंदू परिवार भी मन्नत मांगते हैं। अफगानी महिला को जब हवाई अड्डे से ही जबरदस्ती रवाना किया गया, तब उसने कहा कि ‘गांधी के भारत’ से यह उम्मीद नहीं थी। बहन! हमारे हुक्मरान चाहे जैसे हों, हमारे अवाम के पास छप्पन इंच का सीना तो नहीं है लेकिन वे तंगदिल हरगिज नहीं हैं।

गांधी का भारत अवाम में बसता है। उस भारत के पास तीसरे मार्ग का विकल्प है। जैसे पहले गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेतृत्व का था। उसके लिए ‘विश्व गुरु’ आधिपत्य स्थापन का जरिया नहीं है, ‘विश्व प्रेम’ का रोशनदान है। वह हर सताए, पीड़ित जन समूह के साथ खड़ा है और खड़ा रहेगा, ‘जय जगत’ के नारे के साथ।

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