विचार

विष्णु नागर का व्यंग्य: ये कसमें, ये वादे, ये गारंटियां, सब बातें हैं, बातों का क्या!

सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल यह खेल बिगाड़ दिया है। हल्का सा झटका दे दिया है मगर न खानेवाले को खाये बगैर चैन पड़ सकता है, न खिलानेवाले को खिलाए बिना संतोष मिल सकता है। यह सिस्टम है। पहले से चला आ रहा है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

आजकल भ्रष्टाचार करने से कोई नहीं डरता और भ्रष्टाचार मिटाने की बात करनेवाले से भी कोई नहीं डरता! वह जितना डराता है, भ्रष्टाचारी उतने निर्भय हो जाते हैं। कहते हैं, इससे डरने का नईं, ये बहुत बड़ा फेकू है, ये आम जनता के कंजंप्शन के लिए खाली-पीली बोम मारता रहता है। हमसे पूछो, इसकी हकीकत! ये मिटाएगा भ्रष्टाचार! ये तो और बढ़ाएगा। निर्दोषों को सताने, विरोधियों से बदला लेने, अपनी आरती  उतारने और उतरवाने के अलावा इसे कुछ नहीं आता।

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 इन दिनों देश में यही सब चल रहा है। राजनीति में यही हो रहा है। जो भाजपा की राजनीति कर रहा है, उसकी भ्रष्टाचार विरोधी बातों से वोटर तो वोटर, अब तो मक्खियों-मच्छरों और पिस्सुओं ने भी डरना बंद कर दिया है! वे भी समझ गए हैं कि इसकी ये कसमें, ये वादे, ये गारंटियां, सब बातें हैं, बातों का क्या! इसमें कोई दम नहीं! ये बड़े सेठों का बिजूका है। भ्रष्टाचार मिटाना इसके लिए खुद मिट जाने के बराबर है। ये खुद रिकार्ड तोड़ भ्रष्ट है। सब भ्रष्ट जानते हैं कि इसे इसका हिस्सा रेगुलरली पहुंचाते रहो और मस्त रहो। यह दरअसल उस भ्रष्टाचार को मिटाने की बात कर रहा है,  जिसमें इसे इसका हिस्सा नहीं मिल रहा है। भ्रष्ट, इसके साथ बेईमानी कर रहे हैं। इसकी धमकियां उन्हें दी गई चेतावनियां हैं कि ओय, अगर तुम अपना भला चाहते हो तो फौरन लाइन में लग जाओ वरना मैं भ्रष्टाचार मिटाने लग जाऊंगा!

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यह उस कोटि का थानेदार है, जो जानता है कि मेरे थाना क्षेत्र में कहां, किसके, कितने जुएं और कच्ची शराब के अड्डे चल रहे हैं और इससे किसकी कितनी काली कमाई हो रही है। थानेदार का दुख ये है कि ये धंधेबाज उसकी उपेक्षा कर रहे हैं। उसे उसका हिस्सा नहीं दे रहे हैं। ये समझ रहे हैं कि ये थानेदार नया है, इसे कुछ नहीं मालूम! इन्हें मालूम होना चाहिए कि जो थानेदार, थाना खरीद कर आया है,वह भोला और बेवकूफ नहीं होता। वह इलाके की एक- एक खबर रखता है। जो सीधी तरह से रास्ते पर नहीं आते उनके ठिकाने पर वह एक दिन दबीश डालता है और इन्हें रंगे हाथों पकड़ लेता है। इसके बाद इसका, उनसे मामला सेट हो जाता है। ऐसे थानेदार पर भ्रष्टाचार के आरोप कभी नहीं लगते।

'खाओ और खाने दो ' के सिद्धांत पर चल कर वह अपनी ईमानदार का ढोल पीटता रहता है, भ्रष्टों को उनका काम शांतिपूर्वक करने देता है। जब तक दोनों पक्षों के बीच संतुलन बना रहता है,सब ठीक चलता रहता है। कोई एक पक्ष भी ' लालची ' हुआ कि खेल खुल जाता है। ऐसे में थानेदार का तबादला हो जाता है और ठेकेदारों का भी कुछ करोड़ का नुकसान हो जाता है। फिर नये थानेदार की छत्रछाया में सब फिर से सेट हो जाता है।

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अपने देश में अभी तक थानेदार और जुए और शराब के अड्डे चलानेवालों के बीच परफैक्ट संतुलन बना हुआ था। देनेवाले देकर खुश थे, लेनेवाला लेकर प्रसन्न था। और तो और यह खेल थानेदार ने वैधानिकता के पर्दे के पीछे चल रखा था, इसलिए वह निर्भय था। देनेवाले भ्रष्टाचार मुक्त हो रहे थे, लेनेवाला राग ईमानदारी सुर में गा रहा था। कुछ सवालों के बावजूद 'न खाऊंगा, न खाने दूंगा' का शो सफलता से चल रहा था।

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 सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल यह खेल बिगाड़ दिया है। हल्का सा झटका दे दिया है मगर न खानेवाले को खाये बगैर चैन पड़ सकता है, न खिलानेवाले को खिलाए बिना संतोष मिल सकता है। यह सिस्टम है। पहले से चला आ रहा है। अब भी चलेगा। अब खेल के नियम बदलेंगे। लेने -देने का कहीं कोई लिखित रिकार्ड न होगा। सहारा के मालिक की तरह किसी सेठ ने नेताओं को धन देने की लाल डायरी रखी तो भी अदालत उसे वैधानिक नहीं मानेगी। एक तरफ यह खेल‌ चलेगा, दूसरी तरफ भ्रष्टाचार मिटाने का संकल्प  भी चलेगा। जो इनके पाले आ जाएगा, उसका केस बंद हो जाएगा। जो नहीं आया, वह जेल में सड़ता रहेगा।

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अब ये 'लोकतंत्र' इसी तरह के थानेदार चलाएंगे। अगर ये तीसरी बार आ गए तो फिर तो ये खेल और भी तेजी और भी बेशर्मी से चलेगा। सुप्रीम कोर्ट को ठेंगा दिखाते हुए चलेगा। खेल तो चलेगा। जनता चलने भी देगी। हमारी जनता की खूबी यह है कि उसे लूटो और नंगा करो तो भी शिकायत नहीं करती। सब सह लेती है। यह तो प्रशांत भूषण टाइप कुछ विध्नसंतोषी तत्व हैं, जो जब- तब शिकायत करके सरकारों के लिए समस्याएं पैदा करते रहते हैं। आगे क्या पता, इनकी भी मनी लांड्रिंग हो जाए! मोदी है तो मुमकिन है।

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