राम मनोहर नारायण मिश्रा। नाम काफी लंबा-चौड़ा है। जाति भी हिंदू समाज में बड़ी मानी जाती है। पद भी बड़ा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज हैं। माननीय न्यायालय के माननीय न्यायाधीश हैं। हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट के वकील भी विद्वान माने जाते हैं तो ये तो जज हैं। इनकी विद्वता अविवादित होनी चाहिए। ऐसा नहीं होता तो वे ऐसा फैसला कैसे दे पाते, जिसकी अक्खे भारत में आज चर्चा है। वैसे हो सकता है, यह अक्खे भारत का दोष हो, जज साहब का नहीं! जज साहेबान तो वैसे भी अकसर दोषी नहीं होते! इसी अदालत के एक जज साहब कुछ समय पहले हिंदूवादी मंच से मुसलमानों को उनकी औकात बताते पाए गए थे। हल्ला तो खूब मचा। सुप्रीम कोर्ट तक के कान खड़े हुए पर कुछ हुआ नहीं। वह अपनी बात पर अटल रहे और सुप्रीम कोर्ट उन्हें पद पर रखने के फैसले पर अटल रही।
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दिल्ली में अभी एक जज साहब के जलते हुए घर से रुपयों का बड़ा खजाना मिला। एक तरफ उनका सरकारी बंगला जल रहा था, दूसरी तरफ नोटों की गड्डियां पर गड्डियां प्रकट हो रही थीं। आग ने तो जो नुकसान किया, सरकारी बंगले का नुक़सान किया मगर आग बुझाने वालों ने नोटों का पता- ठिकाना देकर उनकी प्रतिष्ठा का सार्वजनिक नुकसान किया। फिर भी कुल मिलाकर मामला ठीक रहा। केवल इतना हुआ कि वह इलाहाबाद हाईकोर्ट से दिल्ली हाईकोर्ट लाए गए थे, उनकी घर वापसी हो गई। घर वापसी वैसे संघ का नारा भी है। एक और उच्च न्यायालय की एक जज साहिबा के घर के बाहर लाखों रुपए पड़े पाए गए थे। वह भी बच गईं, बचा ली गई थीं। इस तरह अदालत की 'गरिमा' हमेशा बचा ली जाती है। उसका नुकसान नहीं होता! यह ऊपरवाले की मेहरबानी नहीं तो और क्या है!
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तो हां असली किस्सा यह है कि माननीय मिश्रा जी की अदालत में एक केस आया। मां और बेटी कीचड़ भरे रास्ते से अपने गांव लौट रही थीं। पीछे से एक मोटरसाइकिल आई। उस पर दो लड़के सवार थे। उन्हीं के गांव के थे। परिचित थे। उन्होंने पेशकश की कि वे लड़की को मोटर साइकिल से घर छोड़ देंगे लेकिन वे उसे एक सुनसान रास्ते पर ले गए। एक पुलिया के नीचे एक लड़के लड़की को छेड़ने लगे। लड़की चीखी-चिल्लाई। यों तो दुर्योधन के दरबार में द्रौपदी की लाज बचाने कोई नहीं आया था, सब तमाशा देख रहे थे, अंततः कृष्ण को आना पड़ा था। यहां किसी को बुलाना नहीं पड़ा। उधर से ट्रेक्टर पर जा रहे दो लोगों ने चीख सुनी तो वे उस लड़की को बचाने आगे आए। लड़कों ने उन्हें डराने के लिए देसी कट्टा निकाला पर फिर डर कर लड़की को उसी हालत में वहीं छोड़कर भाग गए।
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लड़की की मां लेकिन लोकलाज बचाने के नाम पर चुप नहीं बैठी। पुलिस ने केस दर्ज नहीं किया तो वह अवयस्कों को न्याय दिलाने वाली पोस्को अदालत पहुंची। उस अदालत ने इन दोनों को बलात्कार या बलात्कार के प्रयास का दोषी पाया। अपराधियों ने इसके खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील की। वहां इन जज साहब के पास यह मामला आया। जज साहब ने अपने निर्णय में कहा कि बहुत सोच-विचार और तथ्यों के बारीकी से अध्ययन के बाद यह पाया गया कि बलात्कार तो हुआ नहीं। नाले के नीचे ले जाकर केवल उसके शरीर के साथ खेला गया, नाड़ा खोला गया। इसी बीच दो लोगों के आ जाने से लड़के भाग गए। इसे बलात्कार या बलात्कार के प्रयास का मामला नहीं माना जा सकता। यह केवल लड़की को नंगा करने के इरादे से किया गया कृत्य है। यौन उत्पीड़न का मामला है। इसकी सज़ा वह नहीं दी जा सकती जो बलात्कारियों को दी जाती है। धाराएं नर्म लगनी चाहिए।
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जजों के मन में एक दयालु हमेशा बैठा रहता है। तभी तो वे कभी इसे और कभी उसे न्याय दे पाते हैं। जज साहब की दया लड़कों पर बरस गई। लड़की को तो दया चाहिए भी नहीं थी, उसे तो न्याय चाहिए था मगर दया ने न्याय पर विजय पा ली। अब लड़की के मां -बाप न्याय के लिए फिर से लगाएं अदालत के चक्कर पर चक्कर। और चार साल चक्कर लगा- लगाकर हार मान चुके हों तो चुप हो जाएं, घर बैठ जाएं क्योंकि न्याय और ईश्वर की मर्जी का पता किसी को नहीं चलता!
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जज साहब इस निर्णय के पहले देश में इतने मशहूर नहीं थे मगर अब पूरे भारत में मशहूर हो चुके हैं। निंदा करनेवाले हमेशा निंदा करते रहते हैं मगर निंदा भी ख्याति का एक बड़ा और विश्वसनीय स्रोत है। वैसे भी आजकल गलत कारणों से ही प्रसिद्धि मिलती है, सही कामों से तो पड़ोसी भी नहीं पहचानते! तो जज साहब को लड़की के शरीर के साथ खेलना और उसके कपड़े उतारने की कोशिश खास आपराधिक काम नहीं लगा। हो सकता है उत्तर प्रदेश के हालात को देखते हुए उन्हें वैसे भी यह मामूली दैनिक घटना लगी होगी। उन्हें लगा होगा कि ऐसी घटना को न्यायिक रूप से तूल देने से महाकुंभ के कारण बहुत सारा पुण्य बटोर चुके राज्य सरकार के मुखिया जी की बदनामी होगी। तीर्थयात्रियों केक्षकुचलकर मर जाने की घटनाओं को छुपाने के प्रयासों के बावजूद उन्होंने जितना पुण्य कमाया है,वह घटकर आधा रह जाएगा! यह ठीक नहीं है।
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शायद जज साहब फैसला देते समय यह सोच नहीं पाए कि ये लड़की उनकी अपनी बेटी भी हो सकती थी और ऐसा हुआ होता तो क्या वे इस तरह के न्याय को स्वीकार कर पाते? लेकिन जजों के सामने रोज ही ऐसे मामले आते हैं, किस-किस को अपनी बेटी, अपनी बहन, अपनी मां मानकर न्याय दें! फिर सब जजों की लड़कियां ही नहीं होतीं, लड़के भी होते हैं बल्कि ऐसा भी हो सकता है कि सिर्फ लड़के हों तो जज कैसे मान लें कि लड़की को दबोचकर उसके स्तनों पर कब्जा करना, उनसे खेलना या उसकी सलवार का नाड़ा तोड़ना कोई बड़ा अपराध है!
सरकार का नारा है- 'बेटी बचाओ ,बेटी पढ़ाओ' मगर सवाल यह है कि बेटी को किस- किस से और कहां -कहां बचाएं! कोई जगह सुरक्षित बची है अब!
है तो सूचित करें!
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