विचार

पश्चिम बंगाल: कुछ अलग है इस बार लड़ाई का रंग

यह बीजेपी का दुर्भाग्य ही है कि ‘बंगाली गौरव’ जगाने के मामले में ममता बनर्जी से मुकाबला करने के लिए उसके पास कोई चेहरा नहीं हैं, कम से कम मोदी तो बिल्कुल भी नहीं।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी 

एक दशक से भी ज्यादा समय से नरेंद्र मोदी, बीजेपी और आरएसएस पश्चिम बंगाल पर ‘कब्जा’ करने की कोशिशें कर रहे हैं। उन्हें लगता था कि राज्य को 'अराजकता, झूठ और लूट, सिंडिकेट राज' और ‘कट मनी’ की संस्कृति तथा भ्रष्टाचार के अलावा 'घुसपैठियों और मुसलमानों' से मुक्त कराना आसान होगा। बीजेपी का मानना था कि ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस इसी सब के बूते राज्य में टिके हैं। उनकी उम्मीद बेमानी भी नहीं थी, क्योंकि इस दौरान राज्य में बीजेपी का वोट शेयर तेजी से बढ़ा और 2016 के मात्र 10.3 प्रतिशत से बढ़कर 2021 के विधानसभा और 2024 के लोकसभा चुनाव तक यह 37-38 प्रतिशत तक पहुंच गया।

2021 में तो बीजेपी और मोदी को जीत का पूरा भरोसा हो चला था। हालांकि, नतीजे पार्टी के लिए निराशाजनक रहे क्योंकि 294 सदस्यीय बंगाल विधानसभा में उसे 77 सीटें ही मिल सकीं, जबकि ममता बनर्जी दो-तिहाई बहुमत और 213 सीटों के साथ सत्ता में लौटीं।

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अब 2026 को लेकर राज्य में बीजेपी समर्थकों को उम्मीद थी कि ममता बनर्जी का गढ़ ध्वस्त करने के लिए मोदी अपने चिरपरिचित अंदाज में भारी-भरकम जुमलों की बमवर्षा के साथ मैदान में उतरेंगे। मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोपों, घोटालों, बलात्कार के बढ़ते मामलों तथा स्कूल शिक्षकों और नागरिक स्वयंसेवकों की भर्ती में हुई गड़बड़ी के रूप में पर्याप्त गोला-बारूद भी मौजूद था। लेकिन उम्मीद आश्चर्य में बदलती दिखाई दी, जब मोदी ने इस महीने राज्य के अपने दौरे में न सिर्फ बयानबाजी में संयम बरता, ममता बनर्जी का नाम लेने या उन्हें शर्मिंदा करने की जरूरत भी नहीं समझी। लगा, मानो वह कांटों के बीच बड़ी सावधानी से कदम रख रहे हैं, और 2021 की तरह 'दीदी...ओ...दीदी...' कहकर उनका मजाक उड़ाने का उनका कोई इरादा नहीं है।

महत्वपूर्ण और दिलचस्प यह कि यह ऐसा समय है, जब देश भर में बांग्ला भाषी भारतीय नागरिकों को बांग्लादेशी बताकर हिरासत में लिया जा रहा है और उनमें से कुछ को तो बांग्लादेश में धकेल भी दिया गया, लेकिन मोदी इस सब पर कुछ नहीं बोले।

18 जुलाई, 2025 को दुर्गापुर में मोदी की रैली से सिर्फ दो दिन पहले, ममता बीजेपी शासित राज्यों में बंगालियों को निशाना बनाए जाने के खिलाफ सड़कों पर उतरी थीं। उन्होंने असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के इस दावे पर निशाना भी साधा कि अगली जनगणना में बांग्लाभाषियों को बांग्लादेशी माना जाएगा। उन्होंने तेवर वाले अंदाज में कहा, “क्या पश्चिम बंगाल भारत का हिस्सा नहीं है? भाजपा को बंगाली भाषी लोगों को गिरफ्तार करने का क्या अधिकार है?”

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मोदी बिहार में चल रहे मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण का न सिर्फ जिक्र करने से बचते नजर आए, बल्कि यह ‘गारंटी’ देते दिखे कि किसी भी अवैध प्रवासी को वोट देने नहीं दिया जाएगा। वह शांत थे या सतर्क, कहना मुश्किल है, लेकिन “एक हैं तो सेफ हैं, बंटेंगे तो कटेंगे” वाली अपनी पुरानी बातें दोहराने से बचते जरूर दिखे। इसकी जगह उन्होंने पश्चिम बंगाल के औद्योगिक रूप से विकसित राज्य के रूप में उसका पुराना  गौरव बहाल करने की बात की और बताया कि तृणमूल कांग्रेस द्वारा बंगाली संस्कृति तथा गौरव के कथित विनाश के खिलाफ बीजेपी किस तरह ढाल बनकर खड़ी है। दरअसल, वह प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष शमिक भट्टाचार्य द्वारा तैयार की गई लकीर पर चलते दिखाई दिए।

नए प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष ने जो नया नैरेटिव गढ़ा है, उसे  स्थानीय मीडिया ने ‘नरम हिंदुत्व’ का नाम दिया है। भट्टाचार्य लोगों से तृणमूल के अत्याचार से ‘राज्य को बचाने’ के लिए वैचारिक मतभेद भुलाने की अपील कर रहे हैं। कुछ लोग पार्टी के पुराने दांव नाकाम रहने के आलोक में इसे एक हताशापूर्ण बदलाव मानते हैं।

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बीजेपी का दुर्भाग्य ही है कि ‘बंगाली गौरव’ को जगाने के मामले में ममता बनर्जी से मुकाबला करने के लिए उनके पास कोई चेहरा नहीं है और नरेंद्र मोदी तो कम से कम वह चेहरा नहीं ही हैं। मोदी का ‘जय मां काली’ का आह्वान बनावटी और गढ़ा हुआ लगता है, जबकि ममता बनर्जी 21 जुलाई को बिना कुछ कहे, बंगालियों के अपनी मातृभाषा में संवाद करने के अधिकार की रक्षा के लिए बहाए गए रक्त की महान और भावनात्मक अतीत की याद दिला जाती हैं। हालांकि यह अनुमान लगाना जल्दबाजी होगा कि उनका नया ‘भाषा आंदोलन’ क्या मोड़ लेता है। बीजेपी अब भी इसे लेकर अपनी प्रतिक्रिया देने की तैयारी ही कर रही है।

बीजेपी का राज्य की अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने, बेहतर अवसर और आय प्रदान करने के लिए डबल इंजन वाली सरकार का वादा बीते एक दशक के उसके रिकॉर्ड को ही दर्शाता है। सीबीआई और ईडी जैसी एजेंसियों ने भ्रष्टाचार के मामलों में जिस तरह अपनी ताकत झोंकी है, वह संदेह को और गहरा देता है। राज्य के केन्द्रीय मंत्रियों ने राज्य में निवेश आकर्षित करने में कोई खास रुचि नहीं दिखाई; और नई दिल्ली किस तरह बेबुनियाद आधारों पर राज्य को मिलने वाली धनराशि रोकती  रही है, जगजाहिर है।

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सबसे अहम बात यह कि बीजेपी की रणनीति तैयार करने वाली टीम राज्य सीपीएम का ‘रणनीतिक बदलाव’ समझने में विफल रही है। पार्टी महासचिव एम ए बेबी और राज्य इकाई के प्रमुख मोहम्मद सलीम का रुख स्पष्ट है कि राज्य में उनकी मुख्य दुश्मन बीजेपी है, टीएमसी नहीं। ममता बनर्जी से लड़ने के बजाय, उसका ध्यान ‘वाम एकता’ पर केन्द्रित है और पार्टी कार्यकर्ताओं को बेरोजगारी, पलायन, शिक्षा और परिसर में छात्र राजनीति जैसे जनता से सीधे जुड़े मुद्दों को उठाने के लिए प्रेरित कर रही है। प्राथमिकता वामपंथी मतदाताओं के उस एक वर्ग को वापस अपने साथ जोड़ने और बीजेपी को अलग-थलग करने की है, जो ‘सुरक्षा’ के नाम पर बीजेपी के साथ चले गए थे।

साफ है कि 2026 में बीजेपी पर हमले पहले की तरह नहीं होंगे। उसे एक तरफ से सीपीएम घेरेगी और दूसरी तरफ से टीएमसी तथा कांग्रेस। चुनाव की रूपरेखा हर दिन साफ होती जा रही है और चुनाव पूरी तरह खुला हुआ है।

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