विचार

आकार पटेल का लेख: देश के अहम मुद्दों से सरकार के साथ ही मीडिया ने भी क्यों फेर रखी हैं आंखें!

मीडिया की दिलचस्पी इसमें है ही नहीं कि सरकार ने अर्थव्यवस्था के साथ क्या किया है। अगर इसने सरकार के दूसरे एजेंडे पर ध्यान दिया है तो इस तरह उसने देश के अल्पसंख्यकों पर उत्पीड़न को एक तरह से बढ़ावा ही दिया है।

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एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार ने सही ही कहा है कि भारतीय मीडिया असली और अहम मुद्दों पर ध्यान नहीं देता। इसी कारण से जरूरी कि हम उन अहम मुद्दों पर जोर दें और फोकस करें और उनके बारे में लिखें और बातचीत करते रहें। कुछ ही सप्ताह में हम मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार के नौवें साल में दाखिल होंगे। यह एक लंबा अरसा है जानने के लिए कि हम इस दौरान एक राष्ट्र के तौर पर कहां पहुंचा दिए गए हैं। बहुत सारे पहलू हैं जिनकी पड़ताल करना चाहिए। सबसे पहले तो अर्थव्यवस्था को ही ले लें। भारत की अर्थव्यवस्था चीन, ताइवान, सिंगापुर और दक्षिण कोरिया जैसे आर्थिक रूप से सफल देशों या वियतनाम और बांग्लादेश जैसे तेजी से सफल हो रहे देशों की तरह प्रदर्शन कर नहीं कर ही है।

कुछ तथ्य हैं जिन्हें दोहराया जा रहा है और उन्हीं पर जोर दिया जा रहा है:

सबसे पहले, आज की तुलना में जितने भारतीयों के पास रोजगार है, 2013 में उससे पांच करोड़ अधिक भारतीयों के पास रोजगार था। वैसे इस दौरान 12 करोड़ और लोग काम करने लायक हो गए या कार्यबल में शामिल हुए हैं। देश में महामारी का प्रकोप शुरु होने से पहले ही ये नौकरियां गायब हो चुकी थीं। काम करने वाले या काम की तलाश करने वाले 15 वर्ष या अधिक उम्र के भारतीयों की संख्या अमेरिका, चीन, बांग्लादेश या पाकिस्तान की तुलना में प्रतिशत के रूप में काफी कम हुई है। 2014 के बाद से मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में नौकरियां कम हुई हैं, जबकि कृषि क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या में इजाफा हुआ है। मनरेगा के मद में होने वाला खर्च 2020 में 2014 के मुकाबले चार गुना तक पहुंच गया और अभी भी इसमें काम की मांग बनी हुई । यानी लोग काम तो करना चाहते हैं लेकिन नौकरी या रोजगार है नहीं।

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दूसरी बात यह है कि 2018 में खाने पर लोग 2012 के मुकाबले कम खर्च कर रहे थे। और यह तथ्य सरकार के सर्वे से ही सामने आया है। जीडीपी का सबसे बड़ा अंग उपभोग इस समय सबसे कमजोर है।

तीसरी बात यह कि रिजर्व बैंक महीने में दो बार सर्वे कराकर लोगों से जानता है कि वे आर्थिक तौर पर, रोजगार के मामले में और महंगाई के मामले में पिछले साल के मुकाबले कितने बेहतर हुए हैं। बीते 60 महीनों यानी पांच साल का सर्वे बताता है कि बहुत कम लोगों ने कहा है कि हालात बेहतर हुए हैं। मार्च-अप्रैल 2019 में तो लोगों ने कहा था कि उनकी हालत बहुत खराब है।

चौथी बात, कि देश की कुल जीडीपी में जनवरी 2018 के बाद से निरंतर गिरावट दर्ज हो रही है। महामारी से पहले की 13 तिमाहियों यानी दो साल और तीन महीने पहले से इसमें गिरावट का रुख बना हुआ था। कोविड से पहले यह गिरावट करीब 3 फीसदी थी और बहुत से लोगों का मानना है कि यह कुछ ज्यादा आंकलन था, हकीकत में तो हमारी ग्रोथ शून्य के आसपास ही थी। इस बात को दूसरे संकेतक भी साबित करते हैं। कोविड और लॉकडाउन से आर्थिक संकट खड़ा हुआ लेकिन यह अकेला कोई कारण नहीं था अर्थव्यवस्था में सुस्ती का। 2014 में प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में बांग्लादेश भारत से 50 फीसदी पीथे था, लेकिन आज वह हमसे आगे निकल गया है।

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पांचवी बात यह है कि, मध्य वर्ग का विकास थम गया है। बीते 10 साल में कार बिक्री में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। 2013 में 27 लाख कारें बिकी थीं और 2019 में भी इनकी बिक्री की संख्या यही है। सोसायटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्यूफैक्चरर ने मार्च 2020 तक (यानी महामारी से पहले तक) के आंकड़ों का विश्लेषण कर कहा है कि ऑटोमोबाइल सेक्टर लंबे, ढांचागत और गहरी सुस्ती की तरफ बढ़ रहा है। इसी तरह दोपहिया वाहनों की बिक्री भी एक दशक से बढ़ी नहीं है। मकानों की बिक्री भी 8 बड़े शहरों में बीते 10 साल से 3 लाख घर प्रति साल पर ठहरी हुई है।

छठी बात यह है कि 80 करोड़ भारतीय यानी करीब 60 फीसदी आबादी सरकार से मिलने वाले प्रति माह 6 किलो राशन पर निर्भर है।

सातवां संकेत यह ह कि 53 में से 49 मानकों पर भारत की रैंकिंग 2014 के बाद से नीचे आई है। इसमें विश्व बैंक, विश्व आर्थिक फोरम (दावोस) और संयुक्त राष्ट्र की रैंकिंग शामिल है। सरकार का प्रदर्शन कुल मिलाकर यह रह है।

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अब हम दूसरे पहलू की तरफ आते हैं जो कि निरंतर खबरों में रहता है और वह है कि सरकार की तरफ से लगातार अपनी मुस्लिम आबादी को परेशान करने वाले काम हैं।

2014 के बाद से कई ऐसी नीतियां और कानून बनाए गए हैं जिनके जरिए मुस्लिम नागरिकों को निशाने पर लिया गया है। इनमें बीफ और पशुओं को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने को अपराध बनाना, दूसरे धर्म में शादी करने को अपराध बनाना, मुस्लिमों में तलाक को अपराध बनाना, गुजरात में संपत्ति खरीदने-बेचने और किराए पर लेने के कानून मुस्लिमों के लिए सख्त कर देना, कश्मीर में लोगों को परेशान करना (यह देश का अकेला ऐसा हिस्सा है जहां लोकतांत्रिक सरकार नहीं है), दिल्ली में हिंसा और धार्मिक स्थलों पर पाबंदी लगाना, फेरी लगाने वालों पर पाबंदियां लगाना, इबादत की जगहों से उन्हें हटाना और उन पर कोविड फैलाने के आरोप लगाना आदि शामिल हैं।

यह सूची बहुत लंबी है। कर्नाटक के कॉलेजो में मुस्लिमों के साथ क्या हो रहा है यह एक तरह से उत्पीड़न ही है जिसे लेकर हिंदू समुदाय या तो सहमत है या उसे इससे कोई दिक्कत नहीं है।

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इन सब तथ्यों की रोशनी में यदि हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि सरकार अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में सफल हुई या नहीं हुई है या विफल रही है, तो हम यह भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यह अपने एजेंडे के दूसरे हिस्से में सफल रही है। आखिर अपने ही नागरिकों के उत्पीड़न का लक्ष्य क्या है? कोई लक्ष्य नहीं है और उत्पीड़न अपने आप में एक अंत है। इसी वजह से यह चलता रहेगा और एक दिन हिजाब होगा, अगले दिन बीफ होगा, तीसरे दिन नमाज़ होगी, चौथे दिन कुछ नाम बदला जाएगा। यह चलता रहेगा।

भारतीय मीडिया इस सबमें सरकार की साझीदार है। जैसा कि रवीश कुमार ने कहा था कि मीडिया की दिलचस्पी इसमें है ही नहीं कि सरकार ने अर्थव्यवस्था के साथ क्या किया है। अगर इसने सरकार के दूसरे एजेंडे पर ध्यान दिया है तो इस तरह उसने देश के अल्पसंख्यकों पर उत्पीड़न को एक तरह से बढ़ावा ही दिया है।

यही सारी वजहें है कि इन मुद्दों पर लिखा जाए, इन पर बात की जाए, इनको पढ़ा जाए, क्योंकि भारत के यही तो असली मुद्दे हैं।

(लेखक एम्नेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के अध्यक्ष हैं। लेख में दिए विचार उनके निजी हैं)

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