कुछ दिन पहले अमेरिका ने दावा किया कि उसने ईरान के तथाकथित परमाणु कार्यक्रम के तीन ठिकानों पर बमबारी की है। इजरायल-ईरान के युद्ध में अमेरिका का प्रवेश खतरनाक है और कई दुस्संभावनाओं को जन्म दे सकता है। युद्ध में दुनिया को झोंकने की सारी जिम्मेदारी दो लगभग विक्षिप्त हो गए राजनेताओं- बेंजामिन नेतन्याहू और डोनाल्ड ट्रम्प की है।
हम यह सब लाचार देख रहे हैं। हमें यह समझ में ही नहीं आ रहा है कि इतनी प्रगति और विकास के साथ-साथ दुनिया में शांति, अमन-चैन की चाह इतनी तेजी से घट कैसे गई है? सारे अंतरराष्ट्रीय संचार और संवाद के अत्यंत व्यापक और सक्षम माध्यमों के रहते अंतरराष्ट्रीय सुलह-सफाई की कोशिश इतनी मरियल क्यों है?
दुनिया विश्वयुद्ध के ही नहीं, नैतिकता और मानवीय अंतःकरण के अधःपतन के कगार पर है। इन सब हिंसक वृत्तियों को नियमित कर रही हैं व्यापारिक शक्तियां। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में दुनिया में शांति, सहयोग और संवाद का वातावरण किसी हद तक बना था। वह तार-तार छिन्न-भिन्न हो रहा है। हिंसा का चारों दिशाओं में रौद्र तांडव हो रहा है और हम या तो उसमें शामिल हैं या उसके सिर्फ लाचार तमाशबीन।
मनुष्य के अपने संसार को नष्ट करने के नए-नए यंत्र-तंत्र विकसित कर लिए गए हैं और अब उनका व्यापक स्तर पर प्रयोग करने का मुकाम आ गया लगता है। सभ्यता अब बर्बरता का दूसरा नाम भर है। जो सबसे धनाढ्य, विकसित, शक्ति-संपन्न, साधनमय हैं, वे ही सबसे अधिक बर्बर साबित हो रहे हैं।
Published: undefined
यह बर्बरता सिर्फ युद्धों या सैन्य घटनाओं भर में प्रगट नहीं हो रही है। उनको आम जिंदगी में भी बढ़ते-रमते देखा जा सकता है। दुनिया आज जितनी हिंसक, आक्रामक, असभ्य और बर्बर है, उतनी शायद बीसवीं शताब्दी में नहीं थी जबकि इस नई शताब्दी का अभी एक चौथाई ही बीता है। भारत से लेकर दुनिया के अनेक देशों में इस समय सत्ताधारी वे हैं जो हिंसा में लिप्त रहे हैं, उसे बढ़ावा देते हैं और जिन्हें अपार लोकप्रियता मिली हुई है।
हिंसा को जितना जनसमर्थन और लोकतांत्रिक वैधता आज मिली है, उतनी शायद पहले कभी नहीं थी।
रचने, बचाने और नष्ट करने की वृत्तियों में घमासान हो रहा है। लगता यह है कि नष्ट करने का उत्साह बहुत आगे निकल गया है और रचना-बचाना बहुत पीछे छूट रहा है। सारे स्वप्न दुस्स्वप्न बहुत हो चुके हैं और जो भी विकल्प हो सकते हैं, वे बहुत कमजोर और ऊर्जाहीन लगने लगे हैं। ऐसी घोर नाउम्मीदी के अंधेरे में लेखक-कलाकार चुप हो जाएं तो यह अपने समय की बर्बरता को मूक समर्थन देने जैसा दुखद होगा। जो भी हो, वे गवाह हो सकते हैं, अपनी गवाही दर्ज कर सकते हैं, इस सबमें अपनी शिरकत और जिम्मेदारी का निर्मम आत्मस्वीकार कर सकते हैं।
और, भले बेहद अपर्याप्त, उम्मीद, बदलाव, सपने और सभ्यता के पुनर्वास का विकल्प विन्यस्त करते रह सकते हैं। सत्यवादी अक्सर अकेले होते हैं, पर इससे उनके सच की आंच, लौ और जरूरत मंद नहीं पड़ती।
Published: undefined
सीढ़ियां और चाबियां
हम जिस बर्बरता के दलदल में फंसते जा रहे हैं, उससे बाहर या ऊपर आने का कौन-सा उपाय हो सकते है? कई बार लगता है कि हमें सीढ़ियां चाहिए जिन पर किसी तरह चढ़कर हमें लगातार बढ़ते-घेरते कीचड़ से ऊपर उठ सकने, ऊपर जाने का कुछ उपाय मिल सके। सीढ़ियां चूंकि कीचड़ में ही धंसी होंगी, कुछ कीचड़ तो हमारे साथ ऊपर भी जाएगा ही। पर उसे हम बाद में धोकर साफ कर सकते हैं।
भले इसका कोई आश्वासन नहीं है कि सीढ़ियां जहां भी ले जाएंगी, वहां कोई दूसरे किस्म का कीचड़ नहीं होगा। पर कोशिश कर कीचड़ से, यानी बर्बरता से उबर सकने की कोशिश का जोखिम तो हमें उठाना ही होगा। सीढ़ियों पर ऊपर उठना, उठते जाना आसान नहीं होगा और कई बार फिसल भी सकते हैं।
सवाल यह है कि क्या साहित्य और कलाएं ऐसी सीढ़ियां हो सकते हैं? हो तो सकते हैं, पर क्या उन्हें ऐसी सीढ़ियां हो सकने में कोई दिलचस्पी है? इस सवाल का सीधा आशय यह है कि क्या साहित्य और कलाओं को हम बर्बरता के विरुद्ध सन्नद्ध पा या कर सकते हैं। हमारे पास इतना पर्याप्त साक्ष्य है कि कहा जा सके कि साहित्य और कलाएं अपने स्वभाव और लक्ष्य- दोनों में ही, कुल मिलाकर, बर्बरता के विरुद्ध ही रहे हैं।
Published: undefined
बर्बरता के बरक्स सभ्यता का अधिकांशतः रूपायन साहित्य और कलाओं से ही हुआ है। फिर सवाल यह उठेगा कि क्या आज का साहित्य और कलाएं आज की व्यापक बर्बरता के विरुद्ध हैं? इसका उत्तर फिर समवर्ती रचनाशीलता के साक्ष्य से खोजें तो यही नतीजा निकलेगा कि वे आज भी बर्बरता के विरुद्ध हैं।
हमारा दूसरा रूपक है चाबियों का। हम हिंसा-हत्या-अत्याचार-विध्वंस-संहार के जिस गाढ़े अंधरे नरक में कैद और महदूद होते जा रहे हैं, उससे बाहर निकलने, भाग सकने की चाबियां क्या हमारे पास हो सकती हैं? फिलिस्तीनी कवि महदूद दरवेश की पंक्तियां हैं:
अगर मेरे पास दूसरा वर्तमान होता
तो बीते कल की चाबियां मेरे पास होतीं
अगर बीता कल मेरे साथ होता
तो मेरे पास होता समूचा आनेवाला कल…
हमारा वर्तमान जितना युद्ध-बर्बरता-हिंसा-हत्या-घृणा और झूठ में सना है, उतना अन्यत्र नहीं है और हम अपने ही बनाए नरक में कैद हैं। जब तक हम एक दूसरा वर्तमान अपने लिए, सपनों और उम्मीद से, आस्था और साहस से नहीं रचते जो कि साहित्य और कलाओं में संभव है, तब तक हमारे पास मुक्ति की चाबी हो सकती है, न ही कोई सभ्य भविष्य।
यह लग सकता है कि यह साहित्य और कलाओं के लिए बहुत बड़ा एजेंडा तय करना है। लेकिन जब सभ्यता इतनी संकटग्रस्त हो जितनी वह आज है तो उसे बचाने की बड़ी महत्वाकांक्षा साहित्य और कलाओं में नहीं होगी तो और कहां होगी? वे सभ्यता की शायद सबसे उजली संतान हैं और संतान उसे बचाने का दुस्साहस नहीं करेगी तो और किससे उम्मीद की जा सकती है?
Published: undefined
बर्बरता का मनोरम
हमारी एक बड़ी विडंबना यह भी है कि उसकी मानवता के बड़े हिस्से का सत्यानाश कर सकने की वृत्ति और क्षमता के बावजूद, संसार में बर्बरता का आनंद लेने, उसे मनोरम पाने वाले अब करोड़ों में हो गए हैं। यह थोड़ा विचित्र है, पर सही है कि बर्बरता फैलाने और उसे मनोरम बनाने में टेलीविजन और ऑनलाइन सोशल मीडिया की बड़ी कारगर भूमिका है। इन माध्यमों से किसी तरह के मानवीय अंतःकरण के लोप का यह सबसे प्रबल प्रमाण है।
भारत में गोदी मीडिया ने हिंसा, हत्या, घृणा, झूठ और युद्धोन्माद फैलाने और उसे ‘घर-घर पहुंचाने’ का काम बहुत मुस्तैदी और अभूतपूर्व स्वामिभक्ति के साथ किया है, कर रहा है।
इजरायल-ईरान-अमेरिका के युद्ध की जो छवियां टीवी स्क्रीन पर लगातार आती रही हैं, उनमें बरबादी और ध्वंस के दृश्य कम ही रहे हैं। बहुतायत रही है बमवर्षक विमानों की उड़ानों की, उनमें से जो नायाब हैं, उनके सुंदर डिजाइनों की। ऐसा लगता रहा है जैसे बमवर्षक विमान आकाश में एक तरह की दीपावली मना रहे हैं: कई बार उनका दूर आकाश में दीप्त ओझल हो जाना ऐसा लगता है जैसे कुछ विशाल जुगनू, दिपते-दिपते, ओझल हो गए।
‘ये मारा, वो मारा’, ‘यह चौका तो वह छक्का’ जैसे भाव भी उपजाए जाते रहे। ऐसा लगता है कि जैसे युद्ध हो ही इसलिए रहे हैं कि इन माध्यमों को उनकी एकरस दृश्यावली और प्रस्तुतियों से मुक्त कर कुछ रोमांचक, उत्तेजक दृश्य और नई तरह से चीखने-चिल्लाने का अवसर दिया जाए। कुछ रसपरिवर्तन किया जा सके।
Published: undefined
यह हमारी सामूहिक मानवता, सामूहिक नैतिकता, सामूहिक अंतःकरण, सभी के खतरनाक उतार का, क्षरण और लोप का मुक़ाम है। हमें लगातार बर्बर बनाया जा रहा है और हम तेजी से बर्बर हो रहे हैं। हम सभ्यता का ध्वंसावशेष हो जाने की कगार पर है।
हमें कोई और नहीं बचाएगा। अपने को बचाने की जिम्मेदारी हमारी है, लेकिन हम अक्सर बर्बरता को मनोरम पाते हुए उसका रसभोग करते हुए नैतिक रूप से खाली या आलसी होकर रह गए हैं। हम असूचित या अबोध लोग नहीं हैं- हम बर्बरता की छवियां चौबीस घंटे निहारते लोग हैं जो वाणी और विचार की बर्बरता भी रोज-ब-रोज देखते-सुनते-पढ़ते आए हैं।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined