विचार

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस: आधी आबादी के साथ पूरा धोखा

आज 8 मार्च है और इस दिन अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। हमारे यहां यानी भारत में महिला सशक्तीकरण के राग अलापने के लिए और उनके वोट पाने के लिए तरह-तरह की घोषणाएं की जाती हैं। लेकिन हकीकत यह है कि आधी आबादी के लिए कोई ठोस काम नहीं हुआ है।

झारखंड में धनबाद जिले के झरिया में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर वॉल पेंटिग करती बालिकाएं (फोटो : Getty Images)
झारखंड में धनबाद जिले के झरिया में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर वॉल पेंटिग करती बालिकाएं (फोटो : Getty Images) Rupak De Chowdhuri

इस साल भी 8 मार्च को मनाया जाने वाला अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस चुनिंदा महिलाओं के लिए एक खास मौका होगा। इस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सोशल मीडिया अकाउंट्स का संचालन वे महिलाएं करेंगी जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलता पाई। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इस भाव-भंगिमा का जमीनी वास्तविकताओं से कोई नाता-रिश्ता है भी या नहीं?

प्रधानमंत्री ने हालिया ‘मन की बात’ प्रसारण में ऐलान किया था कि ‘यह प्लेटफॉर्म मेरा जरूर है, लेकिन यह उनके (महिलाओं) अनुभवों, उनके सामने पेश आ रही चुनौतियों और उनकी सफलताओं के बारे में होगा।’ 

...कुछ याद आया? साल 2020 में भी उन्होंने इसी तरह की बाजीगरी करते हुए अपने सोशल मीडिया एकाउंट्स का संचालन विभिन्न क्षेत्रों की सात अग्रणी महिलाओं को सौंपा था।

हमारे प्रधानमंत्री के लिए दिखावटी बातें और चुनावी वादे करना आसान है। उन्हें आकर्षक नारे लगाने का भी शौक है और उनके पास ऐसे लोगों की फौज है जो उनके तरकश में जुमलों और वन-लाइनर के तीरों को कम होने नहीं देते। उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में ही महिलाओं को लक्षित करने से जुड़े संभावित चुनावी लाभ को भांप लिया था और इस तरह 2015 में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान शुरू हुआ।

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पिछले कुछ सालों में ऐसे तमाम अभियान चलाए गए हैं- ‘उज्ज्वला योजना’ ‘लाडली बहना’, ‘महिला सम्मान सेविंग्स’, ‘लखपति दीदी’, ‘ड्रोन दीदी’, नारी शक्ति... इसकी लंबी फेहरिस्त है और प्रधानमंत्री दावा करते हैं कि उनकी सरकार ने महिलाओं के लिए विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं पर 3-4 लाख करोड़ रुपये खर्च किए हैं।

सेंटर ऑफ सोशल रिसर्च की प्रमुख डॉ. रंजना कुमारी कहती हैं, ‘इस बात का कोई आंकड़ा नहीं है कि इन स्कीम का महिलाओं की जिंदगी पर क्या असर पड़ा। यह सरकार शोध को प्रोत्साहित नहीं करती। इसी कारण जमीन पर काम करने वाले विश्वविद्यालय और एनजीओ की बाहर निकलकर आंकड़े इकट्ठे करने में दिलचस्पी नहीं।’

बीजेपी शासित मध्य प्रदेश में ऐसी ही एक योजना मुख्यमंत्री लाडली बहन योजना है जिसकी घोषणा 2023 के विधानसभा चुनावों से पहले की गई थी। सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रहे तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने महिलाओं के वोट हासिल करने के लिए यह दांव चला और यह दांव कामयाब भी रहा।

लेकिन दक्षिणी मध्य प्रदेश में आदिवासियों के बीच काम करने वाली ऐक्टिविस्ट स्मिता कहती हैं: ‘इस योजना के लिए महिलाओं का चयन बेतरतीब तरीके से किया गया। जो इसमें शामिल हो गईं और मासिक किस्त पा रही हैं, वे तो खुश हैं, लेकिन जो बाहर रह गईं, वे ईर्ष्या महसूस कर रही हैं।’ 

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कहा जाता है कि इस स्कीम से 1.3 करोड़ महिलाओं को लाभ मिला लेकिन योग्य महिलाओं की संख्या तो लगभग 2.5 करोड़ है। लेकिन किसे परवाह! अगला चुनाव अभी दूर है और जब सियासी क्षितिज पर इसकी लालिमा दिखने लगेगी तो नए वादे कर दिए जाएंगे।

बहरहाल, मध्य प्रदेश ने महाराष्ट्र को राह दिखा दी जहां नवंबर 2024 में विधानसभा के चुनाव होने थे। यही वजह थी कि अगस्त 2024 में ‘मुख्यमंत्री माझी लाडकी बहिन योजना’ की घोषणा करने के बाद एकनाथ शिंदे सरकार इसे लागू करने की इतनी जल्दी में थी कि 2.46 करोड़ लाभार्थियों की सूची तैयार कर दी गई, बिना यह देखे कि ये महिलाएं पहले से अन्य किसी कल्याणकारी योजना का लाभ उठा रही हैं या नहीं और उनकी पारिवारिक आय 2.5 लाख रुपये की वार्षिक आय योग्यता सीमा से अधिक है या नहीं।

जो भी हो, यहां भी योजना काम कर गई और महायुति गठबंधन बड़े (हालांकि संदिग्ध) जनादेश के साथ सत्ता में वापस आया। ‘काम पूरा’ हो जाने पर लाभार्थियों की सूची की समीक्षा की गई और कथित तौर पर 20 लाख लाभार्थियों के नाम सूची से हटा दिए गए हैं और कितने ही को पैसे लौटाने को कहा गया है।

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उज्ज्वला योजना के तहत केन्द्र सरकार ने 2016 से 2023 के बीच गरीब ग्रामीण परिवारों को बिना किसी जमा राशि 9.5 करोड़ से अधिक एलपीजी कनेक्शन देने का दावा किया है। (इस तरह की तमाम कल्याणकारी योजनाओं के सरकारी नाम में ‘प्रधानमंत्री’ उपसर्ग को नजरअंदाज न करें, क्योंकि यह इसलिए किया गया ताकि विज्ञापनों में प्रधानमंत्री की तस्वीर चिपकाने को वैध बनाया जा सके।) खैर, उज्ज्वला योजना के तहत सिलेंडर रिफिल की लागत 1,000 रुपये से ज्यादा बैठती है, जिसका असर यह है कि गांवों में बड़ी तादाद में महिलाओं ने मजबूरन पुराने, प्रदूषण करने वाले ईंधन स्रोतों को फिर से अपना लिया।

ऐसे ही, भारत को खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) बनाने के सरकार के दावों को महिलाओं की गरिमा से जोड़कर पेश किया गया जबकि सर्वेक्षण बताते हैं कि सरकार के दावे झूठ का पुलिंदा हैं।

झूठ नंबर-1: ‘स्वच्छ भारत अभियान’ नई पहल नहीं बल्कि मनमोहन सिंह के दौर की पहल का नया रूप था। ओडीएफ पहल को शुरू में ‘संपूर्ण स्वच्छता अभियान’ के हिस्से के रूप में लागू किया गया था और 2012 में इसका नाम बदलकर निर्मल भारत अभियान (एनबीए) कर दिया गया। एनबीए ने शौचालय निर्माण और लोगों के व्यवहार में बदलाव लाकर ग्रामीण भारत में स्वच्छता कवरेज में सुधार की बात की थी। जबकि मोदी सरकार ने एक व्यक्ति को सर्वेसर्वा बताने-दिखाने के आग्रह के तहत स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत ताबड़तोड़ शौचालय बनवाए ताकि दावा कर सके कि उसने भारत को ओडीएफ-मुक्त कर दिया।

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झूठ नंबर-2: सरकार ओडीएफ दर्जे का दावा शौचालयों की संख्या और गांवों के स्व-प्रमाणन के आधार पर करती है जबकि स्वतंत्र सर्वे से पता चलता है कि अब भी गांवों में बड़ी संख्या में लोग खुले में शौच कर रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ का 2022 का निगरानी कार्यक्रम बताता है कि ग्रामीण भारत में लगभग 17 फीसद लोग खुले में शोच कर रहे हैं और लगभग 25 फीसद को बुनियादी स्वच्छता सुविधा भी उपलब्ध नहीं।

शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का भी वही हाल है। महाराष्ट्र के उसगांव की जनजातीय सविताबाई कहती हैं- ‘हमारे पड़ोस में बालिका स्कूल के बंद होने का मतलब है लड़कियों को ज्यादा दूर जाना होगा जो सुरक्षित नहीं। इसलिए हमने उन्हें स्कूल भेजना बंद कर दिया।’ 

चाइल्डकेयर सेंटर और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की जिम्मेदारी निभा रही 26 लाख आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं का कहना है कि उनसे जितने काम की अपेक्षा है, उसकी तुलना में उन्हें मासिक मानदेय बहुत कम मिलता है।

पीएलएफएस (आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण) के मुताबिक, श्रम बल में ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी 2017-18 में 24.6 फीसद से बढ़कर 2023-24 में 47.6 फीसद हो गई है। सरकार इसे महिलाओं में रोजगार बढ़ने के रूप में पेश कर रही है। लेकिन वह छिपा जाती है कि यह वृद्धि मुख्यतः बढ़ते स्वरोजगार के कारण है।

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महिला सुरक्षा के मामले में भी सरकार पूरी तरह विफल रही है। बलात्कार, बलात्कार के बाद हत्या, सामूहिक बलात्कार- सब में भारी वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि हर 18 मिनट में एक महिला से बलात्कार होता है।

बीजेपी शासित यूपी की स्थिति सबसे खराब हैः 2022 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 65,743 (दर्ज) मामले रहे जबकि 2021 में 56,083 और 2020 में 48,385 थे। अगस्त 2023 में कौशांबी जिले में एक 15 वर्षीय लड़की ने बलात्कार का वीडियो वायरल होने के बाद खुदकुशी कर ली; उसी साल नवंबर में ऐसा ही वीडियो सामने आया जिसमें वाराणसी में भाजपा के आईटी सेल से कथित तौर से जुड़े तीन लड़कों ने बीएचयू-आईआईटी की बीटेक छात्रा के साथ बलात्कार किया।

कानपुर में ईंट-भट्ठे पर काम करने वाली 14 और 16 साल की दो युवतियों ने बलात्कार के बाद पेड़ से लटककर जान दे दी। इन युवतियों या उनके परिवारों के पास क्या बचाव है? सरकार ने ‘बेटी बचाओ’, ‘नारी शक्ति’ और ऐसे ही तमाम नारे उछालने के अलावा क्या ही किया है?

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