शख्सियत

अमृता प्रीतम की 100वीं जयंती: पितृसत्तात्मक समाज की जंजीरों के बीच अपने अंदर की आजादी तलाश करती एक सौम्य आवाज़

31अगस्त अमृता प्रीतम की सौंवी सालगिरह है। वे एक ऐसी साहित्यकार थीं जिसने हमारे पितृसत्तात्मक समाज के साहित्यिक जगत को दिखलाया कि वाकई भावुक और गहन शख्सियत क्या होती है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

आज जब गूगल ने अमृता प्रीतम की सौंवी सालगिरह पर उन्हें एक डूडल के जरिए याद किया तो एक बार फिर उस साहित्यकार के सौम्य स्वरों की याद आ गयी जो जीवन भर अपनी शर्तों पर रहीं और लिखती रहीं, एक ऐसे समाज की तमाम चुनौतियों से संघर्ष करते हुए जो हमेशा स्त्रियों को पुरुषों से कमतर ही समझता रहा, समझता है। उत्तर भारत में पचास और साथ के दशक में जन्मीं महिलाओं के लिए अमृता का स्वर एक ऐसी जगह थी जहां वे हमेशा खुद अपनी दबी हुयी पहचान, अपनी मौलिक शख्सियत से रूबरू होती रहीं।

Published: 31 Aug 2019, 9:00 PM IST

बचपन में ही मां के देहांत के बाद उनका जीवन काफी तनहा रहा। पिता ने कई तरह के प्रतिबन्ध लगा रखे थे। इस अकेली ज़िन्दगी में जल्द ही उन्होंने खुद को इस बात पर अफसोस करते हुए पाया कि उनके पिता को उनका लिखना पसंद तो था लेकिन वो चाहते थे कि वे मीरा की तरह भक्ति के गीत लिखें। यहां तक कि एक बार उनके पिता ने उन्हें अपने काल्पनिक प्रेमी ‘राजन’ के लिए एक छोटी सी प्रेम कविता लिखने पर चांटा भी रसीद किया। लेकिन इससे उनके विद्रोही प्रकृति कमजोर नहीं हुयी बल्कि इससे उन्हें औरत की जिन्दगी के विभिन्न आयामों को जानने और समझने की प्रेरणा ही मिली ताकि वो समझ पायें कि आखिर एक औरत को चार दीवारी और परम्पराओं से बंधी जिन्दगी से आजाद कैसे किया जाए।

Published: 31 Aug 2019, 9:00 PM IST

किशोरावस्था की उनकी ज़िन्दगी इस बात का पुख्ता सुबूत है कि किस तरह एक जंजीरों में बंधा व्यक्ति आजादी को खुद अपने भीतर ही खोजता है। कल्पना की उड़ान उसे असल जिन्दगी की सीमाओं और बंधनों से कहीं दूर और परे ले जा सकती है। उन दिनों अमृता ने काफी कुछ पढ़ा और जिन्दगी के प्रति उनके विचार और आस्थाएं उसी दौरान बढ़ीं। ये जानने में उन्हें ज्यादा वक्त नहीं लगा कि एक मर्द की बनिस्पत उनके लिए अपनी शर्तों पर जिन्दगी बिताना कहीं मुश्किल होगा। जल्द ही उनकी शादी एक अजनबी से कर दी गयी। वे विरोध ना कर सकीं। अपने इस रिश्ते से अलग होने में उन्हें कई साल लगे, तब तक वो मां भी बन चुकी थीं।

Published: 31 Aug 2019, 9:00 PM IST

ये विडम्बनापूर्ण है की आज की युवा पीढ़ी की भारतीय लड़कियां अमृता प्रीतम की साहित्यिक विरासत की बजाय लोकप्रिय शायर साहिर लुधियानवी के साथ उनके रिश्ते भर से ही जानते हैं। बल्कि यूं कहा जाए कि वे उस रिश्ते को भी ठीक से नहीं जानते, तो गलत नहीं होगा। कई भाषाओं में अनूदित उनकी कविताएं और उपन्यास एक उदार, भावुक और विचारशील शख्सियत को प्रतिबिंबित करते हैं। उनकी रचनाओं में सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर एक मानवतावादी रुख दिखाई देता है, नारीवाद जिसका अहम अंग है।

Published: 31 Aug 2019, 9:00 PM IST

उन्होंने पुरुषों से अपने रिश्तों के बारे में बेबाकी से बात की। ये उनकी ताकत थी। लेकिन आजकल जैसा चलन है, इस बात की प्रशंसा करने की बजाय कि अपने व्यक्तिगत जीवन के ‘ग्रे’ रिश्तों के बारे में साफगोई के लिए कितने साहस की ज़रुरत होती है, सामान्यतः समाज इसकी आलोचना करने या इसे हलके-फुल्के तौर पर लेने के तरीके निकाल लेता है। अमृता प्रीतम की साहिर से अपने भावनात्मक लगाव के बारे में साफगोई को या तो ग्लैमर की परत चढ़ा कर पेश किया जाता है या फिर उसकी आलोचना की जाती है। असल बात ये है कि उनकी भावनात्मकता ने उनकी बौद्धिक क्षमता को कमज़ोर नहीं किया बल्कि उसे और पुख्ता ही किया।

Published: 31 Aug 2019, 9:00 PM IST

क्या ये समझना और सराहना इतना मुश्किल है कि उन्होंने कुछ रिश्ते बनाए चाहें वो दैहिक रहे या जहनी, उनमे वो आहत हुयीं, टूट गयीं लेकिन फिर उठीं, अपने ज़ख्मों से धूल झाड़ते हुए उन्होंने एक और भी स्पष्ट और मज़बूत विचारधारा के साथ आगे बढ़ने का निश्चय किया? सच तो ये है कि आज जब एक तरफ महिलाओं के दमन और क्रूर अत्याचार की भरमार है तो दूसरी तरफ आक्रामक नारीवाद, तो उनकी सौम्य लेकिन दृढ आवाज़ को याद रखना और भी ज़रूरी और प्रासंगिक हो गया है।

विद्रोह हमेशा आक्रामक हो, ये ज़रूरी नहीं, विद्रोह को सच्चा, ईमानदार और दृढ होना चाहिए। ये ज़रूरी है कि विद्रोह अपने बरक्स खड़े सारे विरोध और चुनौतियों का सामना करे और अपनी यात्रा जारी रखे। अमृता प्रीतम की रचनाएं इस जज्बे को प्रोत्साहित करती हैं। उनके जीवन में कई बार ऐसे मुकाम आये जब वो अकेली थीं, बहुत आहत थीं, थकी हुयी थीं और ये भी नहीं मालूम था कि किस दिशा में जाना है ( ऐसा ही कुछ ज़िक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में भी किया है)। लेकिन फिर भी, इतनी बेचैनी और हताशा के बावजूद खुद में उनकी आस्था अडिग रही।

Published: 31 Aug 2019, 9:00 PM IST

जीवन के अंतिम दौर में वे अध्यात्मिक हो गयी थीं। बहुत से कलाकारों और साहित्यकारों को ये बात नागवार गुजरी थी। लेकिन ये उनका सफ़र था, उनका निजी आत्मिक विकास था। आज जब धर्म प्रदर्शनकारी हो गया है और इस पर राजनीति का मुलम्मा चढ़ा है। जब राजनीति हिंसक हो गयी है और तमाम झूठों और भुलावों से बोझिल है। जब उदारवादी ‘लिब्टार्ड’ और बुद्धिजीवी ‘अर्बन नक्सल’ हो गये हैं तो अमृता प्रीतम के सौम्य मानवतावाद, उदारवाद और नारीवाद पर एक बार फिर विचार करना जरूरी हो गया है। उनकी सबसे अधिक लोकप्रिय कविता ‘अज अक्खां वारिस शाह नु’ से की ये पंक्तियां पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक हैं।

जित्थे वजदी फूक प्यार दी वे ओह वन्झ्ली गई गाछ

रांझे दे सब वीर अज भूल गए उसदी जांच

धरती ते लहू वसिया, क़ब्रण पयियां चोण

प्रीत दियां शाहज़ादीआन् अज विच म्जारान्न रोण

अज सब ‘कैदों ’ बन गए , हुस्न इश्क दे चोर

अज किथों ल्यायिये लब्भ के वारिस शाह इक होर

अज आखां वारिस शाह नून कित्तों कबरां विचो बोल !

ते अज किताब -ऐ -इश्क दा कोई अगला वर्का खोल !

(जहां प्यार के नगमे गूंजते थे

वह बांसुरी जाने कहां खो गई

और रांझे के सब भाई

बांसुरी बजाना भूल गये

धरती पर लहू बरसा

क़ब्रें टपकने लगीं

और प्रीत की शहजादियां

मजारों में रोने लगीं

आज सब कैदो बन गए

हुस्न इश्क के चोर

मैं कहाँ से ढूंढ के लाऊं

एक वारिस शाह और... )

Published: 31 Aug 2019, 9:00 PM IST

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Published: 31 Aug 2019, 9:00 PM IST

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