अपने देश में जब भी स्वतंत्रता संघर्ष का जिक्र होता है, ऐतिहासिक ‘अंग्रेजो! भारत छोड़ो’ आंदोलन का जिक्र होता ही होता है और तब ‘ग्रैंड ओल्ड लेडी’ कहलाने वाली इस आंदोलन की वीरांगना अरुणा आसफ अली की याद भी बरबस आ ही जाती है। क्योंकि उनके द्वारा प्रदर्शित अपूर्व साहस के बगैर इस आंदोलन का इतिहास वैसा नहीं हो सकता था, जैसा है।
दरअसल, 8 अगस्त 1942 को बंबई (अब मुंबई) के ऐतिहासिक ग्वालिया टैंक (अगस्त क्रांति) मैदान में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने अधिवेशन में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में अंग्रेजों के तुरंत भारत छोड़ देने का प्रस्ताव पारित कर इसके लिए आंदोलन शुरू करने का फैसला किया और उसको यूसुफ मेहर अली के सुझाव पर ‘अंग्रेजो! भारत छोड़ो’ नाम दिया, तो जैसा कि बहुत स्वाभाविक था, ब्रिटिश सरकार को मिर्ची लग गई और वह भारी दमन पर उतर आई।
उसने आनन-फानन महात्मा गांधी समेत कांग्रेस के प्रायः सारे बड़े नेताओं को जेल भेजकर अधिवेशन और आंदोलन को विफल करने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी। जगह-जगह कर्फ्यू का एलान कर दिया और प्रेस के साथ शांतिपूर्ण प्रदर्शनों और हड़तालों पर भी पाबंदी लगा दी। फिर भी महात्मा के ‘करो या मरो’ के मंत्र को अपना असर दिखाने से नहीं रोक पाई।
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परिणामस्वरूप 9 अगस्त 1942 की सुबह ने देखा कि जोशीले आंदोलनकारियों ने सारी सरकारी बंदिशों को धता बताकर आंदोलन को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सबसे शक्तिशाली आंदोलन बना दिया है। इस अवसर पर अरुणा आसफ अली ने ग्वालिया टैंक मैदान में जैसे प्राणप्रण से अप्रतिम साहस व शौर्य के साथ खुद को आंदोलन के हित में झोंका, उसकी इतिहास में शायद ही कोई और मिसाल हो।
ब्रिटिश सरकार की समझ थी कि चूंकि कांग्रेस के प्रायः सारे बड़े नेताओं को गिरफ्तार या नजरबंद कर दिया गया है, उसको ग्वालिया टैंक मैदान में, और तो और, तिरंगा फहराने वाला भी कोई नहीं मिलेगा। लेकिन साहस की पुतली अरुणा आसफ अली ने उसे गलत सिद्ध करते हुए न सिर्फ वहां कांग्रेस कार्यकर्ताओं को नेतृत्व प्रदान कर अधिवेशन के शेष एजेंडे को पूरा कराया, बल्कि पुलिस को चकमा देकर मैदान में तिरंगा भी फहरा दिया। आज की तारीख में उनको खास तौर पर उनके इसी महान साहस के लिए याद किया जाता है, लेकिन सच पूछिए तो यह उनके लिए महज एक शुरुआत थी।
स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी इसके बाद की अनेक प्रकार की भूमिगत सक्रियताओं से क्रुद्ध सरकार द्वारा उनकी सारी संपत्ति जब्त कर लिए जाने के बावजूद उन्होंने आत्मसमर्पण नहीं किया और भूमिगत रहकर देश के अलग-अलग हिस्सों में आजादी की मुहिम को मज़बूती प्रदान करती रहीं। शारीरिक कमज़ोरी और बिगड़ते स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने आत्मसमर्पण करने के बापू के आग्रह की भी अनसुनी कर दी। तब बापू ने एक हस्तलिखित नोट में उनके प्रति स्नेह से भरकर उनकी प्रशंसा करते हुए लिखा था कि मैं आपकी हिम्मत और वीरता की प्रशंसा से भर गया हूं।
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उनका जन्म 16 जुलाई 1909 को तत्कालीन पंजाब (अब हरियाणा) के कालका नामक स्थान पर एक उच्चवर्गीय बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता उपेंद्रनाथ गांगुली, जो बंगाल के बारीसाल (जो अब बंगलादेश की सीमा में स्थित है) से विस्थापित होकर संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) में बस गए थे। वह एक रेस्तरां चलाते थे। उपेंद्र और उनकी पत्नी अम्बालिका- दोनों ब्रह्म समाज (बंगाल के पुनर्जागरण के दौर के एकेश्वरवादी सुधारवादी आंदोलन) के अनुयायी थे और विचारों के स्तर पर काफी उदार थे।
उदार माता-पिता ने अरुणा को स्कूली शिक्षा लाहौर के सेक्रेड हार्ट कॉन्वेंट से दिलाई और आगे की शिक्षा नैनीताल के ऑल सेंट्स कॉलेज से। स्नातक तक की शिक्षा पूरी करने के बाद अरुणा कलकत्ता (अब कोलकाता) चली गईं और वहां गोखले मेमोरियल कॉलेज में शिक्षिका बन गईं। वहीं अपने अनुभवों से उन्होंने सीखा कि जो अपने जीवन में जोखिम लेने का साहस नहीं रखता, वह कुछ भी हासिल नहीं कर पाता।
वहीं पर, उनको खुद से तेईस साल बड़े कांग्रेस से जुड़े बैरिस्टर आसफ अली से प्यार हुआ और 1928 में परिजनों के घोर विरोध के बावजूद धर्म व उम्र के बंधनों की अवज्ञा कर उन्होंने उनसे शादी कर ली और ‘अरुणा गांगुली’ से ‘अरुणा आसफ अली’ बन गईं। उनकी इस बहुचर्चित शादी में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, सी. राजगोपालाचारी और मौलाना आज़ाद जैसे अनेक बड़े नेता शामिल हुए थे। आसफ अली ने ऐतिहासिक लाहौर षडयंत्र केस में वकील के रूप में बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह का बचाव किया था।
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शादी के महज दो साल बाद अरुणा नमक सत्याग्रह में भाग लेने के पुरस्कार स्वरूप जेल भेज दी गईं तो गोरी सरकार को उन्हें जमानत देना कतई गवारा नहीं हुआ। नतीजा यह हुआ कि 1931 में गांधी-इरविन समझौते के तहत सारे राजनीतिक बंदियों की रिहाई के बावजूद वह जेल में ही रहीं और तब रिहा हुईं जब उनकी रिहाई के लिए व्यापक विरोध प्रदर्शनों के बीच अनेक अन्य महिला कैदियों ने भी तब तक रिहा होने से इनकार कर दिया, जब तक वह (अरुणा) रिहा नहीं कर दी जातीं। महात्मा गांधी ने भी उनके मामले में अलग रूप से व्यक्तिगत तौर पर हस्तक्षेप किया।
लेकिन रिहाई के महज वर्ष भर बाद अरुणा को फिर गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल में बंद कर दिया गया, जहां उन्होंने राजनीतिक कैदियों से हो रहे बेहद खराब बर्ताव के विरुद्ध भूख हड़ताल शुरू कर दी। इससे बौखलाई सरकार ने उन्हें अंबाला जेल ले जाकर एकांत में डाल दिया, लेकिन अंततः उसे राजनीतिक बंदियों से अच्छे सलूक की उनकी मांग पूरी कर उनको रिहा कर देना पड़ा।
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प्रसंगवश, अरुणा 1930, 1932 और 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह के दौरान जेल तो गई ही थीं, उन्होंने डाॅ. राममनोहर लोहिया के साथ कांग्रेस की मासिक पत्रिका ‘इंकलाब’ का संपादन और ऊषा मेहता के साथ गुप्त रेडियो स्टेशन से प्रसारण भी किया था। आजादी के बाद 1958 में वह दिल्ली की पहली निर्वाचित मेयर बनीं तो उन्होंने शहर के नागरिकों के हित में कई उल्लेखनीय सुधार किए थे। यह और बात है कि उनको जल्दी ही इस पद से इस्तीफा दे देना पड़ा।
29 जुलाई 1996 को 87 साल की अवस्था में इस संसार को अलविदा कहते वक्त तक उनकी झोली में अंतरराष्ट्रीय लेनिन पुरस्कार, ऑर्डर ऑफ लेनिन, जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार और पद्मविभूषण आदि सम्मान तो थे ही, 1997 में उनको मरणोपरांत देश का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान ‘भारतरत्न’ भी दिया गया।
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