पुस्तक समीक्षा: क्राइम थ्रिलर नहीं, मेट्रो शहरों के सोशल फैब्रिक को उघेड़ने वाली कथा है ‘नैना’

नैना जो कुछ कहती है वो एकदम नया है।नैना की ‘किलिंग कथा’ से ज्यादा वो अंतर्कथाएं बांधती हैं जो नैना अपने मरने के बाद सुनाती है। ये तमाम कथाएं मिल कर नैना की कथा बनती है, जो उसे सिर्फ एक क्राइम थ्रिलर तक महदूद नहीं रहने देती।

फोटो : सोशल मीडिया
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अभिज्ञान शेखर

संजीव पालीवाल की नैना सम्मोहित करती है। पहली नजर में ही आपके जेहन में उसकी एक तस्वीर बनती है, और वो आखिर तक आपके साथ चलती है। नोबल विजेता उपन्यासकार गैब्रियल गार्सिया मार्खे़ज ने कहा था हर पाठक पढ़ते हुए अपने दिमाग में एक तस्वीर बनाता है। नैना की भी तस्वीर बनती है, वो हर पाठक के दिमाग में अलग हो सकती है, मगर हर पढ़ने वाले को आखिर तक बांधे रखती है।

हिन्दी में बेस्ट सेलर्स की परंपरा नहीं रही। अपराध कथा और जासूसी साहित्य को उसकी तथा-कथित मुख्यधारा ने कभी गंभीरता से नहीं लिया। इस स्पेस को मेरठ वाले लुगदी साहित्य के ज़िम्मे छोड़ दिया गया। वहां जो कुछ लिखा-पढ़ा गया वो सचमुच इतना लुगदी था कि काबिले ज़िक्र भी नहीं समझा गया। आलम ये कि क्राइम थ्रिलर कहते ही दिमाग में जो किताब नक्श होती है उसकी भाषा और संवादों का घटियापन कई बार बॉलीवुड के 'B' और 'C' ग्रेड सिनेमा को पीछे छोड़ देता है।

मगर संजीव पालीवाल की नैना इस मायने में एक उम्मीद जगाती है कि अपराध कथाएं संश्लिष्ट जबान में भी लिखी जा सकती हैं। सुडौल शब्दों और सुगठित वाक्यांशों के इस्तेमाल से भी खड़ी हो सकती हैं। हालांकि साहित्य सिर्फ भाषा से ही नहीं खड़ा होता, साहित्य में एक भाषा रहती है। साहित्य में भाषा का होना अगर एक ज़रूरी शर्त है तो संजीव पालीवाल इस मायने में कामयाब हैं कि उन्होंने क्राइम थ्रिलर नहीं करीब-करीब साहित्य ही रचा है।

साहित्य होने की शर्तों पर ‘नैना’ को कसना यहां मकसद नहीं है। मगर ये बताना जरूरी है कि ये सीधी सपाट अपराध कथा नहीं है, थ्रिलर नहीं है, हत्यारे की तलाश नहीं है। नैना तो उपन्यास की इब्तदा के साथ ही मार दी जाती है, मगर अपने कातिल की तलाश में वो ऐसी ऐसी कहानियां कहती है कि मेट्रो सिटीज के मौजूदा सोशल फ्रैब्रिक को उधेड़ कर रख देती है। ‘कॉर्पोरेट’, ‘सोशलाइट’ और ‘पॉलिटी’ के तालमेल और घालमेल पर खड़े मीडिया का वो चेहरा पाठक के सामने आता है जिसे वो टीवी के चमकते पर्दे के भीतर झांककर नहीं देख सकता।

संजीव पालीवाल चूंकि खुद एक मीडिया पर्सन हैं। टेलीविजन के पर्दे पर और पर्दे के पीछे उनका एक लम्बा इतिहास है। समाचार प्रबंधन की जिम्मेदारी संभलते रहे हैं तो इस सच को बताना उनके लिए बहुत मुश्किल नहीं था। आप कह सकते हैं - जो देखा वो कहा इसमें बड़ी बात क्या है ? हद तक ये सही भी है। मीडिया के किसी इनसाइडर के लिए इसमें कुछ भी नया नहीं है। लेकिन नैना जब न्यूजरूम से बाहर आती है और जो कुछ कहती है वो एकदम नया है।

नैना की 'किलिंग कथा' से ज्यादा वो अंतर्कथाएं बांधती हैं जो नैना अपने मरने के बाद सुनाती है।

गौरव और नैना की कथा। नैना और नवीन की कथा। नैना और उसके निर्वीय पति की कथा। सबसे बढ़ कर तो नैना और राजा राघवेन्द्र प्रताप सिंह की कथा। ये तमाम कथाएं मिल कर नैना की कथा बनती है, जो उसे सिर्फ एक क्राइम थ्रिलर तक महदूद नहीं रहने देती। खूबी तो ये कि संजीव पालीवाल ने इनमें से हर एक किरदार को ‘कॉन्ट्राडिक्ट्री कैरेक्टर’ दिया है, जिससे नैना के कैरेक्टर का पूरा पैराडॉक्स रचा जाता है।

मसलन न्यूजरूम की हर लड़की को कमोडिटी की तरह देखने वाला मैनेजिंग एडिटर अपनी बहन को दिल की गहराइयों से प्यार करता है। दूसरी लड़कियों से फ्लर्ट करता है और अपनी बीवी और बेटी के प्रति पूरी तरह कमिटेड है। इतना कमिटेड है कि बीवी धोखा खाने के बावजूद उसे बचाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देती है।

एक चुप्पा आशिक नवीन है जिसे नैना 'कन्फेशन बॉक्स' की तरह इस्तेमाल करती है, जी हां इस्तेमाल। अपनी हर बात बताती है, इसे प्यार मानकर नवीन इकतरफा इश्क में डूबा है जबकि पाठक को जल्द ही एहसास हो जाता है कि नैना उसे 'हार्मलेस क्रीचर' समझती है। मत भूलिए कि अतिशय शरीफ आशिक लड़कियों को कभी रास नहीं आते उनमें कोई चैलेंज ही नहीं दिखता। नैना को भी नवीन में कोई चैलेंज नही दिखता है। एक चलताऊ से चुंबन के बाद वो उसे हमेशा के लिए गिरफ्त में ले लेती है। संजीव नवीन के किरदार को मुकमम्मल करने के लिए फिर एक कमाल करते हैं। बीट कांस्टेबल बताता है कि नवीन बहुत गंदे तरीके से रहने वाला आदमी है। घर में कई कई दिन के गंदे बर्तन पड़े हैं। ये गंदा नवीन सैक्सुअली फ्रस्टेट भी है जो जीबी रोड के चकलाघरों में भी जाता है। एक गंदगी का रिश्ता दूसरी गंदगी से जुड़़ता है।

राजा राघवेन्द्र प्रताप सिंह का किरदार तो एक ऐसा किरदार है जो नैना के किरदार को और खोलता है। छोटे शहर से आयी एक बंद-बंद सी लड़की जब खुलती है तो किस कदर खुल जाना चाहती है। किस कदर आज़ाद होना चाहती है। एक दौर में बिना किसी जिम्मेदारी के सेक्स, बिना इश्क के सेक्स....चरित्र हीनता की निशानी था। रहा होगा, मगर ये पोस्टमॉडर्न सच्चाई है जो दिमाग को बोझ से आज़ाद रखता है, पार्टनर के पजेसिव अप्रोच से मुक्त रखता है।

राजा साहब से नैना के संवाद का पूरा चैप्टर इस नॉवल की उपलब्धि है। उपलब्धि ही नहीं वो यौनिकता के मनोविज्ञान पर एक छोटा मोटा डिस्कोर्स ही है। राजा साहब जब ये जानने से इनकार कर देते हैं कि नैना के पेट में पल रहा बच्चा किसका था तो पाठक फिर चौंकता है और उनका किरदार तब कहीं जाकर मुकम्मल होता है।

संजीव पालीवाल का ये पहला ही उपन्यास है, लेकिन पढ़ने के बाद लगता है कि इसकी तैयारी पुरानी है। लेखक साहित्य रचने का दावा नहीं करता, लेकिन अपने लेखन में वो पर्याप्त गंभीर है। ये अच्छा है कि मेरठ मार्का लुगदी साहित्य ने एक स्पेस खाली किया है, अगर इस स्पेस को नैना जैसे नॉवल भरते हैं तो ये अच्छा संकेत है। अंग्रेजी कथा लेखन में, खास तौर पर यूरोप और अमेरिका में, बेस्ट सेलर्स की एक अलग श्रेणी है। ये पूरी तरह साहित्य नहीं होता मगर अपनी भाषा और रिसर्च में साहित्य से कम श्रम नहीं मांगता। हाल के दिनों में हिन्दी में भी प्रयोग खूब हुए हैं, ‘लप्रेक’ से लेकर ‘चिकलेट्स’ तक। चेतन भगत से लेकर अमिष त्रिपाठी तक के अनुवाद पढ़े जा रहे हैं। ‘नैना’ कोई नवीन प्रयोग तो नहीं है, लेकिन जो भी है गंभीर है। इसे सिर्फ क्राइम थ्रिलर मानने की भूल मत करिए।

किताब का शीर्षक : नैना - एक मशहूर न्यूज एंकर की हत्या

लेखक : संजीव पालीवाल

पृष्ठ : 266 मूल्य: रु 250

प्रकाशक : एकवेस्टलैंड

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