‘मैं आज तक इसके सम्मोहन से बाहर नहीं निकल पाया हूं’

1 सितंबर 1923 को रायपुर में जन्मे हबीब तनवीर के बिना हिन्दुस्तानी रंगमंच की कहानी अधूरी है। ‘चरणदास चोर’ और ‘आगरा बाजार‘ उनके मशहूर नाटक हैं। यहां पेश है उनके संस्मरण का एक अंश।

फोटो: Twitter
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नवजीवन डेस्क

रायपुर की काली बाड़ी में हर वर्ष दुर्गा पूजा के अवसर पर एक नए नाटक के मंचन की परंपरा थी। वहां का मंच काफी बड़ा होता था और हर तरह के संसाधन भी मौजूद होते थे। इसलिए काली बाड़ी के लिए हमेशा से मेरे दिल में एक नर्म कोना रहा। इसे मैं धार्मिक स्थल की बजाय एक अहम सांस्कृतिक संस्था मानता हूं। पूरे भारत में जहां कहीं भी काली बाड़ी है, वहां सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता ही है। और ऐसा मेरे बचपन से लेकर आज तक जारी है। काली बाड़ी में होने वाले नाटकों में भाईजान भाग लिया करते थे। मैं जब बहुत छोटा था तब वह मुझे एक नाटक दिखाने वहां लेकर गए थे। वह हाफिज अब्दुल्ला का नाटक मोहब्बत के फूल था। वह नाटक मोटे तौर पर पारसी नाट्य कंपनियों के कलात्मक खजाने का नगीना था। अंतर सिर्फ इतना था कि पारसी नाट्य कंपनी पूरी तरह से पेशेवर लोगों का समूह थी, जबकि रायपुर के कलाकार गैर-पेशेवर थे।

यह थियेटर का मेरा सबसे पहला अनुभव था और इसने मुझे अपनी ओर इस तरह खींचा कि मैं आज तक इसके सम्मोहन से बाहर नहीं निकल पाया हूं। यहां तक कि हॉल के अंदर जाने से पहले मैं बाहर के वातावरण से मंत्रमुग्ध हो गया था। वहां पर अनगिनत फेरी वाले थे, लोगों का हुजूम था और जोशीले धुन बजाता हुआ एक बैंड भी था। बैंड ने जब बजाना बंद किया तब तक काफी रात हो चुकी थी और उसके अंदर दाखिल होते ही पूरी भीड़ उसके पीछे-पीछ चल पड़ी और मैं भी उनके पीछे हो लिया।

बैंड ने मंच में बनी जगह पर अपना स्थान ले लिया और स्वागत धुन बजाने लगा। पर्दा उठने लगा। सबसे पहले हमने रंगे हुए और जेवरों से लदे पांव देखे, फिर चमकीले, रंग-बिरंगे परिधान और फिर अंत में भारी श्रृंगार किए हुए खुबसूरत चेहरे देखे। बैंड की धुनों के साथ-साथ पर्दा उठ रहा था और उसके पीछे हमने ध्रुपद वंदना के पारंपरिक स्वागत गीत गाते कलाकारों की कतार देखी। इन दिनों पर्दे दो हिस्सों में बंटकर मंच को नूमायां करते हैं। मैंने हमेशा पुराने तरीके को तरजीह दी, जिसमें पर्दे जमीन से ऊपर की तरफ उठते हैं और गायब हो जाते हैं।

कॉलेज पूरा करने के बाद जब मैं पहली बार बॉम्बे गया तो एक नृत्य कार्यक्रम को देखकर अचंभित हो गया। एक विशाल मैदान में स्थित खुले मंच पर दो नर्तक अपने हाथों में 6 फीट का पर्दा लिए नमूदार हुए, उसे उठाए हुए वे मंच के बीचोबीच पहुंचे और उसे सीधा रखते हुए स्थिर खड़े हो गए। पर्दे के पीछे खड़ा कोई शख्स उसे हिला रहा था। पहले उसने हमें थोड़ी देर के लिए पर्दे के ऊपर से सुनहरे रंग से रंगे अपने नाखून दिखाए, फिर उसने अपने पैर दिखाने के लिए पर्दे को हल्का सा उठाया और फिर तेजी से उन्हें दोबारा ढंक लिया। हमने वहां चांदी के जेवरों से लदा सफेद बालों वाली एक जोड़ी पांव देखे। फिर जैसे ही छाया पर्दे के पीछे पहुंची हमें सफेद बालों के गुच्छों की झलकी मिली, जो तेजी से गायब हो गई। उसके बाद उसने सफेद बालों से लदे अपने पांव और खुबसूरत सुनहरी डोर से बंधी कमर दिखाने के लिए पर्दे को ऊपर उठा दिया। एक बच्चे की तरह पर्दे के साथ खेलते हुए अचानक से पल भर के लिए उसे गिर जाने दिया ताकि उसका चेहरा लोगों को नजर आए और इस बीच हमें उसके लाल होठों, सुर्ख-साफ गाल, चमकती हुई काली आंखें, सफेद भौहें, एक सुनहरा मुकुट और उसके ऊपर सफेद बालों के गुच्छों की झलक मिल गई। आखिरकार उसने पर्दा थामे नर्तकों से उसे खींचकर किनारे फेंक दिया। वे नृतक खामोशी से बाहर निकल गए। हमारे सामने अपनी दाढ़ी खुजाता एक बहुत ही खुबसूरत आदमी खड़ा था। वह हनुमान थे, सुनहरी और लाल धारियों संग सफेद रंग में रंगे। और जो कलाकार उनकी भूमिका निभा रहे थे वे केरल के मशहूर कथकली नर्तक वल्लथोल थे।

वल्लथोल ने अपने को पूरी तरह से सामने लाने में करीब 20 से 25 मिनट लिए। क्यों? मुझे लगता है कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि अगर वह अपने वेश-भूषा को शुरुआत में ही जाहिर कर देते तो हम हनुमान की खुबसूरती और महिमा को इतना पसंद नहीं कर पाते। इसलिए उन्होंने उन्हें पूरा जाहिर करने से पहले हमें उनके अलग-अलग अंग दिखाए ताकि उनका पूरा रूप देखने के लिए हममें जिज्ञासा बढ़ जाए।

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Published: 02 Sep 2017, 12:52 PM