कृश्न चंदर की ‘पौदे’: इस किताब को हिन्दी में आने में लग गए सात दशक

कृश्न चंदर की किताब ‘पौदे’ अक्तूबर, 1945 हैदराबाद (दकन) में आयोजित उर्दू के तरक्की पसंद अदीबों की ‘कुल हिन्द कॉन्फफ्ररेंस’ का रिपोर्ताज है। मुल्क में उर्दू अदीबों की इस तरह की यह पहली कॉन्फफ्ररेंस थी।

कृश्न चंदर की किताब ‘पौदे’ की तस्वीर
कृश्न चंदर की किताब ‘पौदे’ की तस्वीर
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ज्योति नंदा

जरा सोचकर देखिए, जिस लिपि की आपको जानकारी भी न हो, उस लिपि से किसी किताब का तर्जुमा या लिप्यांतर का जिम्मा वह शक्स अपने कंधे पर ले ले, तो उसे क्या कहेंगे। जाहिर है, यह काम कोई जुनूनी ही कर सकता है। और यह जुनून चढ़ा मशहूर रंगकर्मी और लेखक जाहिद खान पर। काम पूरा कैसे हुआ, इसकी अलग कहानी है। लेकिन जो हुआ, वह निर्विवाद तौर पर ऐतिहासिक महत्व का काम है।

कृश्न चंदर की शाहकार किताब ‘पौदे’ (पौधे) को हिन्दी में आने में सात दशक से भी ज्यादा का वक्त लग गया। अब आखिरकार इसका हिन्दी लिप्यांतरण छप कर आ गया है। ‘पौदे’ को सबसे पहले ‘मकतबा सुल्तानिया’ मुंबई ने साल 1947 में उर्दू जबान में प्रकाशित किया था। उसके बाद इस किताब के कई संस्करण निकले। साल 2008 में ‘एशिया पब्लिशर्स’ ने इसे छापा। लेकिन हिन्दी भाषा में इस किताब को आने में सात दशक से भी ज्यादा समय लग गया। शायद ये बेमिसाल किताब हिन्दी में अपनी आमद के लिए ज़ाहिद खान सरीखे किसी जुनूनी शक्स का इंतजार कर रही थी।

ज़ाहिद खान ने सोशल मीडिया पर यह जानकारी साझा करते हुए कृश्न चंदर साहब के भतीजे पवन चोपड़ा साहब का शुक्रिया अदा किया है जिन्होंने उनकी एक छोटी सी इल्तिजा पर न सिर्फ यह मूल नायाब किताब उन्हें मुहैया कराई, बल्कि इसके लिप्यांतरण के लिए भी अपनी रजामंदी प्रदान की। यह भी खासी महत्वपूर्ण बात है कि इस किताब का प्रकाशन भी उनके परिवार द्वारा साल 1955 से संचालित ‘एशिया पब्लिशर्स’ ने ही किया है। कहना न होगा कि पवन चोपड़ा, कृश्न चंदर की अदबी विरासत को बड़े ही संजीदगी और मुस्तैदी से देश-दुनिया में आगे बढ़ा रहे हैं। कृश्न चंदर की सभी किताबें, उनके चाहने वालों और पाठकों तक पहुंचें, इसके पीछे यही मंशा है। कृश्न चंदर साहब की तकरीबन सारी किताबें (उर्दू, हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में) उन्होंने ‘एशिया पब्लिशर्स’ से ही प्रकाशित हुई हैं और यह निश्चित तौर पर बड़ी बात है।

ज़ाहिद खान बताते हैं कि कृश्न चंदर की किताब ‘पौदे’, अक्टूबर 1945 हैदराबाद (दकन) में आयोजित उर्दू के तरक्कीपसंद अदीबों की ‘कुल हिंद कॉन्फ्रेंस’ का रिपोर्ताज है। मुल्क में उर्दू अदीबों की इस तरह की यह पहली कॉन्फ्रेंस थी। आजादी से पहले हुई इस अहम कॉन्फ्रेंस में उर्दू अदब से जुड़े अनेक बड़े अदीब मसलन मौलाना हसरत मोहानी, एहतिशाम हुसैन, डॉ. अब्दुल अलीम, क़ाज़ी अब्दुल गफ़्फ़ार, फिराक गोरखपुरी, सज्जाद ज़हीर, डॉ. मुल्कराज आनंद, सरोजिनी नायडू, जोश मलीहाबादी, अली सरदार जाफ़री, साहिर लुधियानवी, मख़दूम मोहिउद्दीन, कैफ़ी आज़मी, वामिक़ जौनपुरी, सागर निज़ामी, सिब्ते हसन, महेन्द्रनाथ, आदिल रशीद, मुमताज़ हुसैन, इब्राहिम जलीस, जिगर हैदराबादी, कुद्दस सहबाई, रिफ़अत सरोश, मदन गोपाल और कृश्न चंदर वगैरह ने शिरकत की थी। हैदराबाद में उस वक़्त जैसे तरक्कीपसंद तहरीक की पूरी कहकशां जमीन पर उतर आई थी। यह एक यादगार और ऐतिहासिक कॉन्फ्रेंस थी। इस कॉन्फ्रेंस की कुछ अहम बातों का जिक्र सज्जाद जहीर साहब ने भी अपनी अहमतरीन किताब ‘रौशनाई तरक्कीपसंद तहरीक की यादें’ में किया है, ‘‘यह कॉन्फ्रेंस कोई पांच दिन तक हुई। इसका उद्घाटन मिसेज सरोजिनी नायडू ने किया था। उद्घाटन समारोह एक सिनेमा हॉल में हुआ था और उसमें कोई दो-ढाई हजार लोग शामिल हुए थे। इस कॉन्फ्रेंस के अध्यक्षमंडल में मौलाना हसरत मोहानी, डॉ. ताराचंद, कृश्न चंदर, फिराक गोरखपुरी और एहतिशाम हुसैन शामिल थे। पहले दिन के उद्घाटन की सदारत कृश्न चंदर ने की।’’


बक़ौल ज़ाहिद खान, कॉन्फ्रेंस में सिब्ते हसन ने ‘उर्दू जर्नलिज़्म के विकास’, सरदार जाफरी ने ‘इकबाल की शायरी, दर्शन और जिंदगी’, एहतिशाम हुसैन ने ‘उर्दू की तरक्कीपसंद आलोचना’, साहिर लुधियानवी ने ‘उर्दू की जदीद इंकलाबी शायरी’, सज्जाद जहीर ने ‘उर्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तानी के मसले’ और कृश्न चंदर ने ‘उर्दू अफसाने’ पर अपने शोधपरक पर्चे पढ़े थे। किताब ‘रौशनाई तरक्कीपसंद तहरीक की यादें’ में ‘पौदे’ की तारीफ करते हुए सज्जाद जहीर ने लिखा है, “इससे बेहतर या वैसा भी लिखना मेरे लिए मुमकिन नहीं है। ‘पौदे’ साहित्य और पत्रकारिता की मिली-जुली विधा में जिसका नाम रिपोर्ताज है, एक खास हैसियत रखती है। इसमें कॉन्फ्रेंस के ब्यौरे नहीं, बल्कि इसकी फ़ज़ा और माहौल को पेश किया गया है।’’ कृश्न चंदर ने अपनी इस किताब में कॉन्फ्रेंस के अकेडमिक ब्यौरे नहीं दिए हैं, बल्कि इस पूरी कॉन्फ्रेंस की फ़ज़ा और माहौल की शानदार अक्कासी की है। कृश्न चंदर ने हालांकि, इस पूरी किताब में अदबी ज़बान का इस्तेमाल किया है जो आम पाठकों के लिए सहल नहीं। बावजूद इसके ‘पौदे’, पाठकों पर अपना मुकम्मल असर छोड़ती है। कुछ ऐसा कि जो पाठक इस किताब को एक बार पढ़ेंगे, वे इसकी इब्तिदा से लेकर आखिर तक इसके मोहपाश में बंधे रहेंगे। कृश्न चंदर की लेखनी का जादू, पूरी किताब में बिखरा पड़ा है। उनकी बेहतरीन किस्सागोई ने इस छोटे से रिपोर्ताज को भी मानो शाहकार बना दिया है। किताब में प्राक्कथन सज्जाद जहीर ने लिखा है। साथ ही कृश्न चंदर की भी एक लंबी भूमिका भी है।

ज़ाहिद खान मानते हैं कि आज ‘पौदे’ अगर पाठकों के सामने है, तो इसमें शायर इशरत ग्वालियरी की भी बड़ी भूमिका है जिन्होंने बेशकीमती समय निकालकर, इस किताब के लिप्यंतरण में हर मुमकिन मदद की। ज़ाहिद बताते हैं कि उन्हें उर्दू लिपि नहीं आती लेकिन एक जुनून और जज़्बा था कि किसी भी तरह इस किताब को हिन्दी में आना चाहिए। लेकिन यह बड़ी मुश्किल थी। ऐसे में जहां चाह, वहां राह वाली बात सही साबित हुई। ज़ाहिद ने एक आसान रास्ता यह निकाला कि इशरत साहब किताब पढ़ते गए, और उन्होंने इसे हिन्दी में लिपिबद्ध कर लिया। नतीजा बहुत शानदार रहा और सबके सामने है। महज दो सौ रुपये मूल्य की यह किताब ‘पौदे’ के प्रकाशक ‘एशिया पब्लिशर्स, सेक्टर- नौ, रोहिणी, दिल्ली’ से सीधे प्राप्त की जा सकती है।

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