आशुतोष की नई किताब ‘हिंदू राष्ट्र’ के अंशः अब डिजिटल मीडिया में ही बचा है साहस

2014 से हर चैनल आरएसएस पदाधिकारियों को अतिरिक्त जगह देने लगा। अब, आरएसएस के लोग हर टेलीविजन डिबेट में नियमित भागीदारी करते हैं, भले मुद्दा हिन्दुत्व के लिए प्रासंगिक हो या नहीं। प्रस्तुत है वक्त के साथ मीडिया के बदलते स्वरूप पर वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष की विचारोत्तेजक पुस्तक ‘हिंदू राष्ट्र’ के अंश।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

क्या मेनस्ट्रीम मीडिया के समर्थन के बिना हिंदू राष्ट्र का सपना पूरा किया जा सकता है? आज के भारत में टेलीविजन चैनल्स एजेंडा सेट करते हैं और अखबारों से बेहतर ढंग से नेरेटिव बुनते हैं। बिली ग्राहम ने 1981 के दशक में अपने धार्मिक उपदेशों को लेकर कहा था- ‘आदमी ने जो कुछ आविष्कार किया है, उनमें संचार का सबसे सशक्त माध्यम टेलीविजन है। अमेरिका और कनाडा में लगभग 300 जगहों से मेरा प्राइम टाइम ‘स्पेशल्स’ प्रसारित किया जाता है और ईसा ने अपने जीवन भर में जितने लोगों को उपदेश दिया होगा, उससे लाखों ज्यादा लोगों को मैं अपने हर टेलिकास्ट में उपदेश देता हूं।’

उनकी यह बात आज के भारत में बहुत मौजूं है, जहां 400 से अधिक न्यूज चैनल चौबीस घंटे खबरों का शोर मचा रहे हैं। अखबार अब भी जोश के साथ छापे और खरीदे जाते हैं लेकिन जहां तक उनकी पहुंच और देश के लिए एजेंडा सेट करने की क्षमता की बात है, निश्चित तौर पर इस मामले में वे न्यूज चैनलों से पिछड़ गए हैं। बोफोर्स विवाद संभवतः आखिरी बड़ा मुद्दा है जिसे अखबारों ने केंद्रीय विमर्श में ला दिया था। मैंने 1991 के दशक के मध्य में टेलीविजन में कॅरियर शुरू किया था। उस वक्त भी यह नन्हे बच्चे की तरह था और अखबार के संवाददाता हमें बाइट जुटाने वाले छोकरे कहकर चिकोटी काटते थे।

दूरदर्शन पर आधे घंटे के न्यूज कैप्सूल से 24 घंटे के निजी न्यूज चैनलों तक की टेलीविजन की यात्रा के दौरान पूरा परिदृश्य ही बदल गया। साल 2000 तक वृहत्तर जन-विमर्श में टेलीविजन ड्राइविंग सीट पर पहुंच चुका था और अखबारों को पिछली सीट पर चले जाना पड़ा था। प्राइम टाइम टेलीविजन स्क्रीन पर दिखना नेताओं समेत हर बड़े व्यक्ति का सपना बन गया था। टेलीविजन समाचार व्यवसाय का सबसे बड़ा माध्यम बन गया था।

एंकर और संपादक के तौर पर मुझे देश के प्रमुख राजनीतिज्ञों और सेलिब्रिटीज को अपने कार्यक्रम में लाने का अवसर मिला। यह आज जैसा वक्त नहीं था, जब कई सम्मानित राजनीतिज्ञ प्राइम टाइम विमर्श में आने से कतराते हैं।

एक समय था जब नरेंद्र मोदी, सुषमा स्वराज, प्रमोद महाजन, अरुण जेटली, यशवंत सिन्हा, राजनाथ सिंह, मुरली मनोहर जोशी, वेंकैया नायडू, जसवंत सिंह, जॉर्ज फर्नांडिस, उमा भारती, रविशंकर प्रयाद, मुरली मनोहर जोशी, शिवराज पाटिल, पी. चिदंबरम, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, प्रणव मुखर्जी, अर्जुन सिंह, शीला दीक्षित, शरद पवार, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, सीताराम येचुरी, हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे चोटी के राजनीतिज्ञ टेलीविजन स्टूडियो में आने और बातचीत में हिस्सा लेने को तत्पर रहते थे।

आशुतोष की नई किताब ‘हिंदू राष्ट्र’ के अंशः अब डिजिटल मीडिया में ही बचा है साहस

पहले परिचर्चा गंभीर किस्म की होती थी। नेता पूरी तैयारी के साथ आते थे। एंकरिंग भी हर किसी के वश का काम नहीं था। काफी हद तक यह स्थिति मनमोहन सिंह के कार्यकाल तक भी रही, लेकिन इसी दौर में वरिष्ठ नेता परिचर्चा वाले कार्यक्रमों में आने से आनाकानी करने लगे थे और उनकी प्राथमिकता अकेले इंटरव्यू देने की हो गई थी।

मैंने जनवरी, 2014 में टेलीविजन कॅरियर छोड़ दिया। उस समय तक टेलीविजन पर खबरें सिर्फ तमाशा नहीं बनी थीं। आज तो टेलीविजन परिचर्चा में राजनीति और शासन के महीन बिंदुओं पर विचार-विमर्श करते वरिष्ठ राजनीतिज्ञों को देखना बिरला ही है। इसकी जगह, पार्टियों के पास वैसे नेताओं का पैनल है जिनका मुख्य कौशल इडियट बॉक्स पर अपने विरोधियों से अधिक जोर से चिल्लाना है।

2014 से मीडिया में तीन प्रमुख ट्रेन्ड्स उभरे हैं। पहली बात, अब ऐसे कई चैनल हैं जो दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी विचारधारा के प्रचार के प्लेटफॉर्म बन गए हैं, जबकि इससे पहले भारत में कभी भी दक्षिणपंथी टेलीविजन चैनल की परंपरा नहीं थी। अब बल प्रयोग वाली राष्ट्रीयता, जंग को उकसावा देने वाले, सैन्यभाव को प्रबल करने वाले, इस्लाम, कश्मीर और पाकिस्तान को हर बात के लिए दोषी ठहराने वाले और उदार तथा सेकुलर मूल्यों की हंसी उड़ाने और उनकी निंदा करने वाले प्राइम टाइम के पसंदीदा हो गए हैं।

अल्पसंख्यक समुदायों के छोटे-छोटे मुद्दे भी खास बातचीत के बिंदु हो गए हैं और उनके जरिये मुसलमानों की सांप्रदायिक छवि बना दी गई है। हर मुद्दा हिंदू-मुस्लिम प्रतिद्वंद्विता के चश्मे से देखा जाता है। 2014 से हर चैनल आरएसएस पदाधिकारियों को अतिरिक्त जगह देने लगा है। अब, आरएसएस पदाधिकारी हर टेलीविजन डिबेट में नियमित भागीदारी करते हैं, भले ही वह मुद्दा हिन्दुत्व के लिए प्रासंगिक हो या नहीं। ऐसा पहले नहीं था। तब उन्हें उसी स्थिति में आमंत्रित किया जाता था, जब चर्चा का विषय आरएसएस से संबधित हो।

दूसरी बात, आक्रामकता और सामने वाले पर चिल्लाना अब आम हो गया है। शालीनता से विचार-विमर्श करना बीते दिनों की बात हो गई है। ऐसा नहीं है कि गरमागरम बहस पहले नहीं होती थी लेकिन भागीदार बराबर व्यक्तिगत आक्रमण से और एक-दूसरे को अपमानित करने से बचते थे। अब तो सब कुछ ध्यान खींचने के लिए होता है। जितनी अधिक चीख-चिल्लाहट होगी, नाटक जितना अधिक होगा, रेटिंग उतनी अधिक होगी।

तीसरी बात, मीडिया तो हमेशा से सरकार पर नजर रखने वाला रहा है। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब यह केंद्र सरकार के लिए मौन रूप से लाडला और विपक्ष के लिए निर्दयतापूर्वक आक्रामक बन गया है। सरकार को जिम्मेदार ठहराने की जगह वह विपक्ष के ही टुकड़े-टुकड़े कर देता है। राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल उसके मनभावन पंचिंग बैग्स हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह उंगली उठाने के दायरे से बाहर हैं; वे आधुनिक देवता हैं जिन्हें न तो छुआ जाना चाहिए, न उनपर सवाल उठाए जाने चाहिए। जबकिपहले के प्रधानमंत्री और पार्टी के चोटी के नेताओं को भी बख्शा नहीं जाता था। अपने दूसरे कार्यकाल में, मनमोहन सिंह की कमजोर प्रधानमंत्री के तौर पर काफी आलोचना की गई और उनका उपहास उड़ाया गया। लेकिन अब कोई भी अपनी नौकरी जाने का खतरा उठाकर मोदी पर सवाल नहीं उठा सकता।

डिजिटल मीडिया ही वह जगह बची है जिसके पास आलोचनात्मक खबरें करने, भ्रष्टाचार और घोटालों का खुलासा करने और सरकार की नाकामियों की रिपोर्ट करने का साहस है। इस तरह की वेबसाइटों को मानहानि के मुकदमों से धमकाया जा रहा है। ‘द वायर’ को अमित शाह के बेटे जय शाह की कंपनी के बारे में खबर प्रकाशित करने पर अदालत में घसीटा गया। ‘द वायर’ ने अपनी स्टोरी में बताया कि किस तरह जय शाह की कंपनी का राजस्व रॉकेट की तरह एक साल के भीतर मात्र 50 हजार रुपये से बढ़कर 80 करोड़ रुपये हो गया। यह तब हुआ जब कंपनी कई वर्षों से घाटे में चल रही थी।

‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्र ने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की आलोचना करने वाली स्टोरी को 14 सिंतबर, 2017 को रहस्यमय तरीके से हटा दिया। ‘द वायर’ की रिपोर्ट के मुताबिक, ‘टाइम्सऑप इंडिया के अहमदाबाद संस्करण ने बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की संपत्ति में बीते पांच साल में स्पष्ट तौर पर 300 प्रतिशत का इजाफा होने की खबर प्रकाशित की थी। लेकिन इस खबर को अपलोड करने के एक घंटे के भीतर ही वेबसाइट से हटा दिया गया।’ इस खबर को क्यों हटा दिया गया, इसके बारे में अखबार ने कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया।

पूर्व में, दक्षिणपंथी कार्यकर्ताओं और विचारकों द्वारा प्रेस पर हिंदू विरोधी होने का आरोप लगाया जाता रहा। मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि भारत में प्रेस आपातकाल के सिवाय कमोबेश मुक्त और स्वतंत्र रहा है। प्रत्येक मीडिया संस्थान की अपनी खुद की संपादकीय दृष्टि होती थी। अगर कुछ अखबारों और टीवी न्यूज चैनलों में वाम झुकाव वाले लोग होते थे, तो वहां कुछ दक्षिणपंथी झुकाव वाले भी होते थे।

अरुण शौरी जैसे कई संपादक हिंदुत्व और आरएसएस के लिए सहानुभूति जताते थे। फिर भी, कुछ अपवादों को छोड़कर, एक राजनीतिक दल के हित में खबरों के साथ छेड़छाड़ नहीं की जाती थी। मनमोहन सिंह ने अपने दूसरे कार्यकाल (2009- 2014) में शत्रुतापूर्ण मीडिया का सामना किया था। खासतौर से टीवी चैनलों का रुख काफी कड़ा था। इन्होंने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर दिनों और महीनों तक अभियान चलाया था।

क्या वैसा आज किया जा सकता है? सच तो यह है कि नहीं। टेलीविजन समाचार चैनलों ने मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में एक भूमिका निभाई थी। उनकी सरकार का बचाव करने में उनका हित है। नीरव मोदी स्कैन्डल के संदर्भ में ब्रांडगुरु संतोष देसाई ने लिखा, ‘पिछले हफ्ते 11,300 करोड़ रुपये का घोटाला सामने आया और एक प्रमुख अंग्रेजी चैनल तुरंत सरकार को बचाने का रास्ता तलाशने में जुट गया और तरह-तरह के तरीकों से इसका ठीकरा पिछली सरकार के मत्थे मढ़ दिया गया।

यह रणनीति उसे भी नहीं चौंकाती जो दुर्भाग्य से नियमित रूप से टीवी न्यूज देखता है। जब भी सरकार किसी मामले में घिरती है, बहस का केंद्र इसे नहीं बनाया जाता कि सरकार ने कहां गलती की, बल्कि मुद्दा यह बना दिया जाता है कि विपक्ष क्या गलत कर रहा है। यहां तक कि सर्वेक्षण भी एकतरफा तरीके से कराए जाते हैं। उदाहरण के लिए, नीरव मोदी के घोटाले के खुलने पर एक अंग्रेजी चैनल द्वारा हाल में किए गए एक पोल की शब्दावली इस तरह से थी- ‘क्या आप बैंक लूट और भ्रष्टाचार पर मोदी सरकार द्वारा की गई राष्ट्रव्यापी कड़ी कार्रवाई का समर्थन करते हैं?’

हैशटैग का प्रताप

आज ट्विटर और टेलीविजन दर्शकों को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रहे हैं। खास तौर पर अंग्रेजी टीवी चैनलों पर इस्तेमाल हैशटैग से जुड़ा अध्ययन करन थापर और संतोष देसाई की चिंताओं की पुष्टि करता है। गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान टेलीविजन पर चलाए गए हैशटैग के बारे में ऑल्ट न्यूज ने एक रोचक अध्ययन किया। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि एनडीटीवी, इंडिया टुडे और सीएनएन न्यूज 18 अपने चैनलों पर हैशटैग को प्रोत्साहित करने में कमोबेश तटस्थ रहे, लेकिन दो अग्रणी चैनलों टाइम्सनाऊ और रिपल्बिक टीवी पूरी ढिठाई के साथ कांग्रेस विरोधी और बीजेपी समर्थक या मोदी समर्थक रहे।

हैशटैग के लिए उनकी विषयवस्तुः कांग्रेस पर हमले, कांग्रेस को भारत विरोधी बताने, राहुल गांधी का मजाक बनाने, कांग्रेस के साथ सहयोग करने वाले नेताओं पर हमले करने, धार्मिक कार्ड खेलने, बीजेपी और मोदी के महिमामंडन, और विकास को छोड़कर अन्य सभी मुद्दों पर जोर देने के इर्द-गर्द रही। इनमें सर्वाधिक खतरनाक है जानबूझकर कांग्रेस पार्टी को भारत विरोधी के तौर पर पेश करना।

रिपब्लिक टीवी ने #CongSlamsIndiaRise हैशटैग से गुजरात मॉडल पर राहुल गांधी की छींटाकशी और ईज ऑफ डूइंग बिजनेस रेटिंग्स की खबरें दिखाईं। चुनावों की घोषणा के एक दिन बाद रिपब्लिक टीवी ने #PakHawalaUnderCongress हैशटैग चलाया। #RahulVsIndiaRising हैशटेग से टाइम्स नाऊ ने गुजरात मॉडल के फेल हो जाने के राहुल गांधी के आरोपों पर परिचर्चा कराई। रिपब्लिक टीवी ने #PakCongMeeting हैशटैग के साथ प्रधानमंत्री मोदी के उन अप्रमाणित और अपुष्ट दावों को चलाया जिसमें आरोप लगाया गया था कि पाकिस्तान गुजरात चुनावों को प्रभावित करने की फिराक में है।

इस मामले में टाइम्स नाऊ भी पीछे नहीं रहा और #CongTalibanTango हैशटैग के साथ चलाई गई खबर में उसने वर्ष 2013 की उस तस्वीर को खोज निकाला था जिसमें तब के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम को तालिबान नेता मुल्ला अब्दुल जईफ के साथ एक ही कमरे में दिखाया गया था। राहुल और मोदी के लिए उपयोग में लाए गए हैशटैग के बीच की तुलना स्पष्ट रूप से विरोधाभास को ही स्थापित करती है।

राहुल गांधी के लिए जहां #PappuCensored, #PappuBanaYuvraj, #RahulMughalEmperor, # RahulHinduOrCatholic, #RahulDucks, #UPAneDeshBecha, #RahulNeechPolitics जैसे हैशटैग इस्तेमाल किए गए, वहीं मोदी के लिए #SoldChaiNotNation, #ModiSweepsGujarat, #PMTakesOff, #BJPGujaratBlitzkrei, #ModiMillionRally, #ModiMalignedIn 2017 जैसे हैशटैग अपनाए गए। दोनों नेताओं के लिए इस्तेमाल किए गए हैशटैग अपने-आप सारी कहानी कह जाते हैं।

वायर में छपी यह बात परेशान करने वाली है कि बीजेपी 11, अशोक रोड स्थित अपने पुराने मुख्यालय से अपना पूरा वार रूम चला रही है। रिपोर्ट बताती है कि यहां बड़ी संख्या में लोग दिन-रात देश के लगभग हर अखबार और टीवीचैनल पर नजर रखते हैं। वार रूम की आंखें हर जाने-माने पत्रकार पर होती हैं और वह इन्हें बीजेपी विरोधी या बीजेपी समर्थक के तौर पर दर्ज करता रहता है। पार्टी के शीर्ष लोगों को रोजाना रिपोर्ट भेजी जाती है। इस पूरे काम के दौरान बड़ी ही निष्ठा के साथ गोपनीयता बरती जाती है कि यह जानकारी कौन और किस कारण से जुटा रहा है।

बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने कोई भी तर्कसंगत जवाब नहीं दिया। अगर वाकई इन सबकी कोई ठोस वजह नहीं है, तो आखिर ये सब जानकारी क्यों जुटाई जा रही हैं, ये सब इतनी गोपनीयता के साथ क्यों किया जा रहा है? इसके बाद सहज सवाल यह उठता है कि क्या भारत एक सर्विलांस देश बनता जा रहा है? और संचार माध्यमों पर नियंत्रण करके और वैचारिक प्रोपेगंडा सामग्री के लगातार प्रसार से क्या सरकार पूरी आबादी की विचार प्रक्रिया को नियंत्रित करना चाहती है?

मैं बिना किसी हिचक कह सकता हूं कि सरकार इस मामले में आंशिक रूप से सफल भी हो चुकी है। इस स्तर तक पहुंचने में लोकतंत्र का बड़ी सफलता के साथ इस्तेमाल किया गया। लेकिन बात यहां खत्म नहीं होती। यह तो शुरुआत भर है। हिंदू राष्ट्र बनने के लिए भारत को एक खास विचारधारा में बंधना होगा। अब तक हमने जो देखा है, वह तो बस एक झलक है किआगे क्या हो सकता है।

(आशुतोष की किताब ‘हिन्दू राष्ट्र’, प्रकाशकः कन्टेक्स्ट, वेस्टलैंड पब्लिकेशंस प्राइवेट लिमिटेड से साभार)

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Published: 30 Mar 2019, 10:19 PM