...इस बेताबी का अगला क़दम सैलाब होता है, किसी को ये कोई कैसे बताए: जावेद अख्तर की नज़्म ‘नया हुक्मनामा’

जावेद अख्तर...जाने माने शायर, गीतकार और फिल्म लेखक हैं। देश के हालात पर अक्सर टिप्पणियां करते रहते हैं। उनकी एक नज़्म ‘नया हुक्मनामा’ बहुत लोकप्रिय है। पेश है उनकी यही नज़्म।

फोटो : सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

किसी का हुक़्म है

सारी हवाएं हमेशा चलने से पहले बताएं

कि उनकी सम्त क्या है।

हवाओं को बताना ये भी होगा

चलेंगी जब तो क्या रफ़्तार होगी,

कि आंधी की इजाज़त अब नहीं है।

हमारी रेत की सब ये फ़सीलें,

ये कागज़ के महल जो बन रहे हैं,

हिफ़ाजत इनकी करना है ज़रूरी,

और आंधी है पुरानी इनकी दुश्मन,

ये सभी जानते हैं।

किसी का हुक़्म है

दरिया की लहरें

ज़रा ये सरकशी कम कर लें,

अपनी हद में ठहरें।

उभरना फिर बिखरना और बिखरकर फिर उभरना,

ग़लत है उनका ये हंगामा करना

ये सब है सिर्फ़ वहशत की अलामत,

बग़ावत की अलामत,

बग़ावत तो नहीं बर्दाशत होगी।

ये वहशत तो नहीं बर्दाशत होगी।

अगर लहरों को है दरिया में रहना,

तो उनको होगा अब चुपचाप बहना।

किसी का हु्क्म है

इस गुलसितां में बस अब एक रंग के ही फूल होंगे.

कुछ अफ़सर होंगे जो ये तय करेंगे,

गुलिस्तां किस तरह बनना है कल का,

यक़ीनन फूल यक-रंगी तो होंगे

मगर ये रंग होगा कितना गहरा,

कितना हलका,

ये अफ़सर तय करेंगे।

किसी को कोई ये कैसे बताए

गुलिस्तां में कहीं भी

फूल यक-रंगी नहीं होते,

कभी हो ही नहीं सकते,

के हर रंग में छुपकर बहुत से रंग रहते हैं।

जिन्होंने बाग़ यक-रंगी बनाना चाहे थे,

उनको ज़रा देखो

के जब एक रंग में सौ रंग ज़ाहिर हो गए हैं तो,

वो अब कितने परेशां हैं,

वो कितने तंग रहते हैं।

किसी को कोई ये कैसे बताए,

हवाएं और लहरें,

कब किसी का हुक्म सुनती हैं,

हवाएं हाक़िमों की मुट्ठियों में,

हथकड़ी में,

कैदखानों में नहीं रुकतीं।

ये लहरें रोकी जाती हैं,

तो दरिया कितना भी हो पुर-सूकून,

बेताब होता है,

और इस बेताबी का अगला कदम

सैलाब होता है।

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