नोटबंदी के बाद नहीं बढ़ा है देश का टैक्स-संग्रह, अरुण जेटली का दावा गलत

सीबीडीटी ने करीब हफ्ते भर पहले जारी आंकड़ों में बताया है कि कुल कर-संग्रह में प्रत्यक्ष कर पिछले पांच सालों में सबसे कम वित्त वर्ष 2016-17 में रहा है। इसी वित्त वर्ष के दौरान 8 नवंबर को नोटबंदी लागू की गई थी।

फोटो: सोशल मीडिया
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अनिल सिंह

8 नवंबर, 2018 को नोटबंदी के दो साल पूरे होने जा रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी के उस फैसले का जो परिणाम और असर हुआ और उसे लेकर जो ज्यादातर विश्लेषण आए, उससे यह लगभग साफ हो चुका है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए नोटबंदी काफी घातक साबित हुई। नोटबंदी के उन्हीं पहलुओं पर चर्चा के लिए हम आज से एक श्रृंखला शुरू कर रहे हैं, जिसके तहत पहला लेख हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं। -नवजीवन

नोटबंदी लागू करते वक्त जितने भी दावे किए गए थे, सारे के सारे ध्वस्त हो चुके हैं। लेकिन इनसे अलग हटकर वित्त मंत्री अरुण जेटली और उनके संगी-साथी इसकी एक अन्य उपलब्धि का डंका पीट रहे थे। उनका कहना था कि नोटबंदी से देश में टैक्स देनेवालों की संख्या ही नहीं, टैक्स संग्रह भी बढ़ गया है। लेकिन उनके इस दावे की ढोल खुद वित्त मंत्रालय के अंतर्गत काम करने वाले केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) ने फोड़ दी है।

सीबीडीटी ने करीब हफ्ते भर पहले जारी आंकड़ों में बताया है कि कुल कर-संग्रह में प्रत्यक्ष कर पिछले पांच सालों में सबसे कम वित्त वर्ष 2016-17 में रहा है। इसी वित्त वर्ष के दौरान 8 नवंबर को नोटबंदी लागू की गई थी। वित्त वर्ष 2016-17 में देश में जमा हुए कुल कर-संग्रह में प्रत्यक्ष कर का हिस्सा 49.65 प्रतिशत रहा है, जबकि वित्त वर्ष 2013-14 में यह हिस्सा 56.32 प्रतिशत, 2014-15 में 56.16 प्रतिशत और 2015-16 में 51.03 प्रतिशत रहा था। बीते वित्त वर्ष 2017-18 में यह हिस्सा बढ़कर 52.29 प्रतिशत पर पहुंचा है। फिर भी यह दस साल पहले वित्त वर्ष 2007-08 में हासिल किए गए स्तर, 52.97 प्रतिशत तक से नीचे है।

असल में टैक्स या कर-संग्रह को मात्र संख्या के रूप में देखना भ्रामक ही नहीं, गलत भी है। उसे हमेशा संपूर्ण कर-संग्रह के साथ-साथ लंबे समय और अर्थव्यवस्था के आकार या सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। यही सर्वमान्य और स्वीकृत तरीका है। लेकिन एनडीए सरकार, खासकर उसके वित्त मंत्री अरुण जेटली केवल संख्या दिखाकर अपनी उपलब्धि का ढिंढोरा पीटते रहे हैं।

सीबीडीटी के ताजा आंकड़ों का मतलब यह हुआ कि मोदी सरकार के चार साल में प्रतिगामी माने जाने वाले अप्रत्यक्ष कर का हिस्सा बढ़ा है, जबकि प्रगतिशील माने जाने वाले प्रत्यक्ष कर का हिस्सा घट गया। बता दें कि अप्रत्यक्ष कर में अब जीएसटी के अलावा कस्टम और एक्साइज ड्यूटी जैसे टैक्स ही बचे हैं। उन्हें प्रतिगामी इसलिए माना जाता है कि वे अरबपति और कंगाल, सब पर एक समान दर से लगते हैं। वहीं, प्रत्यक्ष कर को प्रगतिशील माना जाता है क्योंकि वे आय के अनुपात में लगते हैं और गरीबों पर तो लगते ही नहीं। पिछले चार सालों में प्रत्यक्ष कर के हिस्से का कम होना यह दिखाता है कि टैक्स-नीति के लिहाज से मोदी सरकार के कर्म प्रतिगामी रहे हैं।

प्रत्यक्ष कर में निजी इनकम टैक्स, कॉरपोरेट टैक्स और वेल्थ टैक्स आते हैं। वित्त वर्ष 2016-17 में देश का कुल कर संग्रह 17,11,228 करोड़ रुपये रहा था। इसमें से प्रत्यक्ष कर की मात्रा 8,49,713 करोड़ रुपये थी। उस वित्त वर्ष में कुल कर-संग्रह साल भर पहले से 17.68 प्रतिशत ज्यादा था, जबकि प्रत्यक्ष कर-संग्रह में 14.52 प्रतिशत ही वृद्धि हुई थी। गौरतलब है कि तब तक के दस सालों में यानी, 2006-07 से 2016-17 के बीच हमारा कुल कर-संग्रह 13.75 प्रतिशत और प्रत्यक्ष कर संग्रह 13.95 प्रतिशत की सालाना चक्रवृद्धि दर (सीजीएआर) से बढ़ा था। प्रत्यक्ष कर में भी अगर निजी इनकम टैक्स की बात करें तो वह उन दस सालों में 15.10 प्रतिशत की सालाना चक्रवृद्धि दर से बढ़ा था। इस तुलना से साफ है कि देश में टैक्स का बढ़ना स्वाभाविक गति से होता रहा है और उसमें 2016-17 की नोटबंदी ने कोई भी करिश्मा नहीं दिखाया है। यह भी ध्यान देने की बात है कि वित्त वर्ष 2013-14 से नोटबंदी के साल 2016-17 तक के तीन सालों में देश में वेतनभोगी करदाताओं की संख्या 37.05 प्रतिशत और गैर-वेतनभोगी करदाताओं की संख्या 19.48 प्रतिशत बढ़ी है। यह भी आंकड़ा आया कि इन तीन सालों में एक करोड़ रुपये से ज्यादा सालाना आय घोषित करनेवाले करदाताओं की संख्या 60 प्रतिशत बढ़ गई है। पूरे संदर्भ में न देखा जाए तो इन आंकड़ों से खुद को भी आश्चर्य होगा और दूसरों को भी आश्चर्य में डाला जा सकता है। लेकिन अर्थव्यवस्था की समग्र गति के संदर्भ में देखा जाए तो इनका भ्रम टूट जाता है।

सीबीडीटी ने आंकड़ों की ताजा सीरीज़ में बताया है कि देश में वित्त वर्ष 2007-08 के दौरान प्रत्यक्ष कर और जीडीपी का अनुपात 6.3 प्रतिशत रहा है जो अब तक का उच्चतम स्तर है। तब यूपीए सरकार ने नोटबंदी जैसा कोई अभियान नहीं चलाया था। उस सरकार के आखिरी साल वित्त वर्ष 2013-14 तक में यह अनुपात 5.62 प्रतिशत था। बाद के दो सालों में यह गिरता गया और 2015-16 में 5.47 प्रतिशत पर आ गया। नोटबंदी के साल 2016-17 में यह थोड़ा बढ़कर 5.57 प्रतिशत पर आ गया। फिर भी 2007-08 के शिखर से काफी नीचे था। अभी बीते वित्त वर्ष 2017-18 में इस अनुपात के आंकड़े में यह 5.98 प्रतिशत है।

सवाल उठता है कि जब अर्थव्यव्यस्था अपनी स्वाभाविक गति से बढ़ रही थी, तब उसमें नोटबंदी जैसा अस्वाभाविक व्यवधान डालने की क्या जरूरत थी जिससे उसकी लय-ताल ही नहीं टूटी, बल्कि सरकार को टैक्स दे सकनेवाली लाखों छोटी इकाईयां बर्बाद हो गईं। ऊपर से बिना संपूर्ण सदर्भ के टैक्स रिटर्न और करदाताओं की संख्या को एक मान लेने के साथ ही टैक्स बढ़ने की झांकी पेश करना क्या देश के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा कृत्य नहीं है?

(लेखक वित्तीय साक्षरता और निवेश से जुड़े हिंदी पोर्टल ‘अर्थकाम’ के संपादक हैं)

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