एक्सक्लूसिव इंटरव्यू: 'मेरी पहचान मेरे विचारों से है, मेकअप से नहीं', मीडिया पर प्रियंका भारती का बड़ा बयान
प्रियंका भारती ने कहा कि मुझे सुनने में आया है कि मेरा नाम कुछ चैनलों की बहिष्कार सूची में टॉप पर था। कुछ एंकर्स स्पष्ट कहते थे कि वे मेरे साथ डिबेट नहीं करना चाहते। लेकिन अब वे बैकफुट पर हैं।

बिहार में प्रधानमंत्री की ‘मां का अपमान’ अचानक सियासी मुद्दा बन गया। चुनावी मंच से किसी अनजाने युवक की हरकत को भारतीय जनता पार्टी बड़ा बनाकर पेश करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। लेकिन, आरजेडी (राष्ट्रीय जनता दल) की प्रवक्ता प्रियंका भारती के शब्दों में: “जो अपमान बिहार की बेटियों के साथ बीजेपी-नियंत्रित टीवी चैनल कर रहे हैं, वह किसी से कम नहीं है।” बल्कि यह एक किस्म की “आधुनिक छुआछूत” है।
फिर भी, यह तेज-तर्रार युवती पूरे जोश, होश और तुरत-बुद्धि के साथ पलटवार कर रही है। उनकी यह आत्मविश्वासी मुखरता अब भाजपा को डराने लगी है- यहां तक कि सत्ता-नियंत्रित ‘दरबारी’ मीडिया को साधकर वे कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें प्राइम-टाइम की बहसों से दूर रखा जाए। नंदलाल शर्मा ने प्रियंका भारती से उनकी अब तक की जीवन यात्रा और राष्ट्रीय मीडिया में उनकी मौजूदगी पर बातचीत की। चुनिंदा अंश:
अपने शुरुआती जीवन और पृष्ठभूमि के बारे में बताएं। यह भी कि इसमें आपके परिवार, विशेषकर आपकी मां और पिता की क्या भूमिका रही?
मैं बिहार के फतुहा विधानसभा क्षेत्र के निकट एक छोटे से गांव से हूं। मेरे परिवार की पृष्ठभूमि बहुत साधारण थी। मेरी मां ने केवल चौथी कक्षा तक पढ़ाई की, क्योंकि परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। वह मुख्य रूप से खेती-बाड़ी और घरेलू कामों में व्यस्त रहीं। मेरे पिता ने बारहवीं कक्षा तक पढ़ाई की। उन्होंने शुरुआत में टेम्पो चलाया, फिर कुछ अन्य काम सीखे और बाद में स्थानीय स्तर पर जमीन की रसीद कटाने का काम शुरू किया।
आर्थिक तंगी के बावजूद, मेरे पिता ने हमारी शिक्षा में कोई कमी नहीं आने दी। कई बार परिजनों ने सुझाव दिया कि हमें सरकारी स्कूल में दाखिल कर दिया जाए, क्योंकि पैसे की कमी थी। लेकिन मेरे पिता ने कर्ज लेकर भी हमें अच्छे स्कूल में पढ़ाया। उनकी जिद थी कि बेटी को अच्छी शिक्षा मिले। अंग्रेजी शिक्षा मिले। शुरुआती पढ़ाई स्थानीय स्तर पर ही हुई।
2016 में मैंने आईआईटी, जेएनयू, और दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षाओं में हिस्सा लिया और तीनों में सफलता प्राप्त की। आईआईटी में जाने का मन नहीं था, और मेरी रुचि साहित्य में थी। मुझे जेएनयू में दाखिला मिला जहां केवल 180 रुपये की फीस थी जो मुझे आश्चर्यजनक लगा। जेएनयू में मुझे ‘मेरिट कम मीन्स’ के तौर पर दो हजार रुपये की मासिक स्कॉलरशिप मिलने लगी जिससे मेरी पढ़ाई का खर्च चलता था। साथ ही, मैंने जर्मन भाषा में रुचि होने के कारण केन्द्रीय विद्यालय और अन्य स्कूलों के बच्चों को ट्यूशन देना शुरू किया, जिससे अतिरिक्त आय होती थी।
इस सफर में सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों, विशेषकर आरजेडी और सामाजिक न्याय की विचारधारा की क्या भूमिका रही?
जेएनयू मेरे जीवन का टर्निंग पॉइंट था। वहां मैंने सामाजिक न्याय और आरक्षण के महत्व को गहराई से समझा। 2007 में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने से विश्वविद्यालयों में आरक्षण की व्यवस्था शुरू हुई, जिसके कारण मुझे जेएनयू में दाखिला मिला। हालांकि, बाद में पीएचडी में मेरा दाखिला सामान्य कोटे में हुआ। मैं मानती हूं कि लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान, मायावती, और बीपी मंडल जैसे नेताओं ने हाशिये के समुदायों को मुख्यधारा में लाने का महत्वपूर्ण काम किया। लेकिन इस सफर में कई चुनौतियां भी थीं। जेएनयू में प्रोटेस्ट के दौरान मुझे और मेरे जैसे हाशिये के समुदायों से आने वाले लोगों को अक्सर बोलने का मौका नहीं मिलता था। लेफ्ट के प्रदर्शनों में हमें पिछली पंक्ति में खड़ा कर दिया जाता था, हमारे पोस्टरों को पीछे कर दिया जाता था, और हमारी आवाज दबाने की कोशिश की जाती थी। फिर भी, मैंने हर बार अपनी बात रखी। शुरू में मुझे गुस्सा आता था, लेकिन अब मैं इन चीजों से ऊपर उठ चुकी हूं। अब मैं हर चुनौती का सामना मुस्कान के साथ करती हूं।
कोई ऐसा खास अनुभव जो आपको याद हो, जिसने आपको सामाजिक न्याय के लिए लड़ने की प्रेरणा दी?
बचपन से ही मैंने गलत के खिलाफ आवाज उठाई है। एक बार मेरे गांव में एक लड़की की शादी कम उम्र में एक 30 साल के व्यक्ति से तय हो रही थी। वह लड़की दसवीं कक्षा में थी। मैंने उसकी मां से कहा कि आप अपनी बेटी के साथ ऐसा कैसे कर सकती हैं? इस बात पर मुझे थप्पड़ पड़ा, लेकिन मैं चुप नहीं रही। मैं हमेशा से गलत के खिलाफ बोलती रही- चाहे वह मेरे परिवार में हो या समाज में। मेरे नाना-नानी नहीं चाहते थे कि मेरी पढ़ाई पर ज्यादा खर्च हो, लेकिन मैंने और मेरे पिता ने इसके लिए लड़ाई लड़ी। बचपन से ही मैंने देखा कि महिलाओं और हाशिये के समुदायों के साथ भेदभाव होता है। इसने मुझे प्रेरित किया कि मैं सामाजिक न्याय के लिए लड़ूं।
आप आरजेडी प्रवक्ता किस तरह बनीं और मीडिया में आने के बाद आपको किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा?
एक दिन फोन आया कि मुझे आरजेडी का प्रवक्ता बनाया गया है। मुझे पहले कोई जानकारी नहीं थी। तेजस्वी जी ने हमेशा मेरा समर्थन किया। एक बार उन्होंने फेसबुक पर मेरे भाषण की तारीफ की थी, जब मैं पार्टी में किसी औपचारिक पद पर भी नहीं थी। मुझे बाहर के लोगों से बधाई मिलने पर पता चला कि मैं प्रवक्ता बनी हूं। मीडिया में आने के बाद मुझे कई टिप्पणियां सुननी पड़ीं, जैसे कि मेकअप या फाउंडेशन के बारे में। मैंने स्पष्ट कहा कि मैं जैसी हूं, वैसी ही रहूंगी। मेरे लिए काजल और बुनियादी चीजें काफी हैं। मैं मेकअप पर निर्भर नहीं हूं। विचारों से ही व्यक्तित्व निखरता है।
बतौर प्रवक्ता आपके लिए सबसे मुश्किल अनुभव क्या रहा?
सबसे बुरा अनुभव तब हुआ, जब एक प्रोफेसर ने ‘दो टके के लोग’ जैसे अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया। यह न केवल मेरे लिए, बल्कि मेरे परिवार और समुदाय के लिए अपमानजनक था। यह सामंती और जातिवादी सोच का परिचायक था। मुझे गर्व है कि मैंने उसका जवाब दिया और अपनी बात रखी। यह अनुभव मेरे लिए बहुत कष्टकारी था, क्योंकि यह मेरे माता-पिता और मेरी पूरी वंशावली पर हमला था। मैं ऐसी सोच के खिलाफ हमेशा बोलती रहूंगी।
क्या कोई ऐसा चैनल है, जो पक्ष और विपक्ष की महिला प्रवक्ताओं के साथ बेहतर व्यवहार करता है?
इस घटना के बाद मेरा मीडिया चैनलों पर भरोसा कम हुआ है। कुछ एंकर्स डिबेट में बहुत मीठे ढंग से बात करते हैं, लेकिन अगली डिबेट में फिर वही रवैया अपनाते हैं। कुल मिलाकर, कोई भी चैनल पूरी तरह निष्पक्ष नहीं है।
आपने पुरुष और महिला एंकर्स के व्यवहार में कोई अंतर देखा?
महिला एंकर्स अक्सर ज्यादा टोकती हैं और हावी होने की कोशिश करती हैं। वे कभी-कभी गरिमा की सीमा भी लांघ जाती हैं। पुरुष एंकर्स कम-से-कम सम्मान के साथ सुनते हैं और टोकाटाकी कम करते हैं। मुझे लगता है कि महिला प्रवक्ताओं को महिला एंकर्स के सामने जाना चाहिए, क्योंकि हम उनकी भाषा में जवाब दे सकते हैं। पुरुष प्रवक्ता अक्सर संकोच करते हैं; वे महिलाओं के साथ कठोर भाषा का उपयोग करने में झिकझकते हैं। इस अंतर का कारण यह हो सकता है कि कुछ महिला एंकर्स को लगता है कि उन्हें अपनी निष्ठा साबित करनी है।
आपने एक कार्यक्रम में मनुस्मृति फाड़ दिया था, जिसके बाद काफी विवाद हुआ। उस घटना के बाद महिला एंकर्स ने किस तरह व्यवहार किया? राहुल गांधी 90 प्रतिशत आबादी के प्रतिनिधित्व और मीडिया में विविधता की वकालत करते हैं। इस पर आपकी क्या राय है?
उस घटना के बाद, जब मैं स्टेज से उतर रही थी, तो एक महिला एंकर ने मुझसे पूछा, “आप क्या बोल रही थीं? कौन मनुस्मृति पढ़ता है?” मैंने जवाब दिया कि मैंने मनुस्मृति पढ़ी है। बिना पढ़े मैं कोई आलोचना नहीं करती। मैंने पूरी किताब पढ़ी और उसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर विचार किया। लेकिन उस एंकर ने कहा कि उन्हें “थप्पड़ मारने का मन किया।” यह वही पुरानी भाषा थी जो महिलाओं को दबाने के लिए इस्तेमाल होती है, “थप्पड़ मारेंगे, नीचे झुकाएंगे, तुम्हारी औकात ये है।” मुझे बहुत बुरा लगा और मैंने जवाब दिया कि जो भी आप देंगी, हम उसे चक्रवृद्धि ब्याज के साथ लौटाएंगे।
क्या आपको नहीं लगता कि अगर मीडिया में विविधता हो, अलग-अलग समुदायों का प्रतिनिधित्व हो, तो बहस का स्तर बिल्कुल अलग होगा?
अगर कोई सुमन भारती है या कोई सुमन पासवान एंकरिंग कर रही होती तो उस दर्द को जानतीं, उस छुआछूत और जातिगत गाली की पीड़ा को समझतीं। इसलिए जब मैं उनके सामने बैठूंगी, तो वे मेरी बातों से रिलेट करेंगी। कम-से-कम यह नहीं होगा कि वे कहें कि जातिगत भेदभाव तो है ही नहीं, आप लोग फालतू की राजनीति कर रहे हैं। इस तरह की भाषा उस एंकर की नहीं होगी, अगर वहां कोई सुमन राम जैसी एंकर होंगी।
भाजपा के नियंत्रण के आरोपों के बावजूद मुख्यधारा की मीडिया में बात रखने से कोई फायदा होता है? इसके मुकाबले स्वतंत्र मंचों को कैसे देखती हैं?
मुख्यधारा की मीडिया में अपनी बात रखना मुश्किल है, क्योंकि वहां हमें पांच-दस सेकंड में अपनी बात कहनी होती है, और उसमें भी बार-बार टोका जाता है। 2024 के लोकसभा चुनावों के सर्वे बताते हैं कि तीस प्रतिशत से ज्यादा लोग टीवी के आधार पर वोट देते हैं। इसलिए, हम इस मंच को नहीं छोड़ सकते। हां, स्वतंत्र मंचों पर हमें अपनी बात खुलकर रखने की स्वतंत्रता मिलती है। हर मंच पर हमारी उपस्थिति जरूरी है।
बिहार में धारणा है कि महिलाएं नीतीश कुमार की वोटर हैं, और शराबबंदी जैसे मुद्दों को प्राथमिकता देती हैं।
बिहार की महिलाएं बहुत जागरूक हैं। आप देखिए, हर जगह से खबरें आ रही हैं कि महिलाएं मंत्रियों को दौड़ा रही हैं, उनका विरोध कर रही हैं। जनता ने विपक्ष की भूमिका खुद उठा ली है। जहां भी गलत हो रहा है, लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। मुझे कई संदेश मिलते हैं, जिनमें लोग कहते हैं कि उनकी पत्नियां जो पहले राजनीति में रुचि नहीं लेती थीं, मेरी बातें सुनकर खुश होती हैं। इसका मतलब है कि महिलाएं सच को समझ रही हैं और राजनीति में रुचि ले रही हैं। यह हमारी जीत है। मुझे लगता है कि इस बार बिहार में बदलाव जरूर आएगा।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महिलाओं को स्वरोजगार के लिए दस हजार रुपये देने की योजना का ऐलान किया है। क्या इससे महिला वोटरों के रुझान पर असर पड़ेगा?
ये भी तो हो सकता है कि जो मिल रहा है, ले लो, लेकिन काम वही करो जो करना है! मुझे लगता है बिहार की महिलाएं बहुत सजग और जागरूक हैं।
इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव क्यों आपके लिए उम्मीद जगाने वाला है? दो-तीन बिंदुओं में बताएं।
पहला, 2020 के चुनाव में हम केवल बारह हजार वोटों के अंतर से सरकार नहीं बना पाए थे। कई सीटें कुछ सौ वोटों के अंतर से हारीं। इस बार हम अधिक संगठित हैं। हमें पता है कि चुनाव आयोग पक्षपात कर सकता है, इसलिए हम तथ्यों के साथ और सतर्कता से काम कर रहे हैं।
दूसरा, तेजस्वी जी का 17 महीने का कार्यकाल हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने पांच लाख सरकारी नौकरियां दीं, अस्पतालों में निरीक्षण किए, टूरिज्म और स्पोर्ट्स नीतियां बनाईं, और 600-700 ऐसे डॉक्टरों को निलंबित किया, जो सरकारी नौकरी के साथ निजी क्लीनिक चला रहे थे। अगर इतने कम समय में इतना हो सकता है, तो पूरे पांच साल में बिहार की तस्वीर बदल सकती है।
तीसरा, हमने 50,000 करोड़ रुपये के एमओयू साइन किए, जो बिहार में पहले कभी नहीं हुआ। हमारे पास विजन है- चाहे वह मक्का, मखाना, या केले के उत्पादन को बढ़ावा देना हो। केरल के केले के चिप्स अंतरराष्ट्रीय बाजार में हैं, लेकिन बिहार के केले का कोई जिक्र नहीं। हम चाहते हैं कि बिहार की अर्थव्यवस्था मजबूत हो।
अब आप डिबेट में नियमित रूप से जाने लगी हैं। क्या चैनलों का व्यवहार बदला है?
मुझे सुनने में आया है कि मेरा नाम कुछ चैनलों की बहिष्कार सूची में टॉप पर था। कुछ एंकर्स स्पष्ट कहते थे कि वे मेरे साथ डिबेट नहीं करना चाहते। लेकिन अब वे बैकफुट पर हैं, क्योंकि जनता के बीच यह बात फैल गई है कि मुख्यधारा की मीडिया भाजपा के इशारे पर काम करती है।
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Published: 07 Sep 2025, 11:21 AM