आर्थिक तंगी से जूझते एक और पत्रकार ने की आत्महत्या, UNI की नौकरी में पिछले कई महीने से नहीं मिला था वेतन

राष्ट्रीय सुरक्षा मोदी सरकार का नया ब्रह्मास्त्र हो चला है। राफेल की कीमत, पेगासस खरीद के बाद मीडिया घराने भी राष्ट्रीय सुरक्षा में शामिल हो गए हैं। इंतजार कीजिये, जल्दी ही भूख, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विषय भी राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ जाएंगे।

फोटोः सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

प्रधानमंत्री को भले ही देश में आर्थिक तंगी न नजर आती हो, पर इससे परेशान होकर केवल बेरोजगार ही नहीं बल्कि व्यवसायी और नौकरी-पेशा भी आत्महत्या कर रहे हैं। चेन्नई में फोटोजर्नलिस्ट टी कुमार ने 13 फरवरी की रात में अपने कार्यालय में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। टी कुमार समाचार एजेंसी यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया (यूएनआई) के तमिलनाडु में स्टेट ब्यूरो चीफ थे और इस पद पर पहुंचने वाले पहले फोटोजर्नलिस्ट थे। वे एक अत्यधिक अनुभवी पत्रकार थे और यूएनआई के साथ वर्ष 1986 से जुड़े थे।

यूएनआई आल इंडिया एम्प्लाइज फ्रंट के अनुसार टी कुमार लम्बे समय से आर्थिक तंगी से गुजर रहे थे, क्योंकि इस समाचार एजेंसी के अधिकतर कर्मचारियों को पिछले 60 महीने से वेतन सामान्य नहीं मिल रहा है। पहले कई महीने वेतन नहीं मिला और उसके बाद कर्मचारियों को वेतन के बदले 10 से 15 हजार दिए जाने लगे। जाहिर है, यूएनआई के अधिकतर पत्रकार लम्बे समय से आर्थिक तंगी झेल रहे हैं।

यूएनआई आल इंडिया एम्प्लाइज फ्रंट के अनुसार कुछ महीने पहले टी कुमार की पत्नी के पैर की हड्डी टूट गयी थी, तब उन्होंने आकस्मिक तौर पर कम से कम 1 लाख रुपये स्वीकृत करने का आवेदन दिया था, पर उन्हें केवल 25,000 रुपये दिए गए थे। अगले सप्ताह टी कुमार के पुत्री की शादी होने वाली थी, इसके लिए उन्होंने अपने बकाया वेतन से आकस्मिक तौर पर 5 लाख रुपये स्वीकृत करने का आवेदन दिया था, पर इस आवेदन पर यूएनआई के प्रबंधन की तरफ से आज तक कोई कार्यवाही नहीं की गई है।

यूएनआई आल इंडिया एम्प्लाइज फ्रंट ने सख्त शब्दों में प्रबंधन से मांग की है कि टी कुमार के परिवार को फौरन 10 लाख रुपये की आर्थिक सहायता दी जाए, इसके बाद उनके पूरे वेतन का भुगतान किया जाए और एक स्वतंत्र कमेटी बनाकर उनको आत्महत्या की स्थिति तक पहुंचाने के लिए दोषी अधिकारियों की पहचान कर उन्हें सख्त सजा दी जाए। फ्रंट की चेतावनी है कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो फिर यूएनआई आल इंडिया एम्प्लाइज फ्रंट देशव्यापी हड़ताल करेगा।


टी कुमार की आत्महत्या पर तमिलनाडु में सत्ता, विपक्ष, पत्रकार संगठनों और कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने शोक सन्देश भेजा है। मुख्यमंत्री ने इसे दुखद बताया है। इसके बाद विपक्ष ने और पत्रकार संगठनों ने शोक प्रकट करते हुए कहा कि सरकार को टी कुमार के परिवार की फौरन आर्थिक मदद करनी चाहिए। इस मांग के बाद मुख्यमंत्री स्टालिन ने पत्रकारों की सहायता के लिए बनाए गए कोष से 3 लाख रुपये परिवार के लिए स्वीकृत किये। 56 वर्षीय टी कुमार अपने पीछे अपनी पत्नी, एक पुत्र और एक पुत्री को छोड़ गए हैं।

हमारे देश में पत्रकारों द्वारा आत्महत्या के मामले बहुत सामान्य नहीं हैं। इससे पहले 15 नवम्बर 2021 को पुणे में एक मराठी समाचारपत्र के चीफ सब-एडिटर, 53 वर्षीय राजेंद्र येदेकर ने अपने घर में फांसी लगाकर आत्महत्या की थी। किसी सुसाइड नोट के नहीं मिलने से कारणों का ठीक पता आज तक नहीं चल सका है। राजेन्द्र येदेकर विज्ञान और प्रोद्योगिकी के क्षेत्र में बहुत लिखते थे और सावित्रीबाई फुले यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ़ कम्युनिकेशन एंड जर्नलिज्म में अध्यापन भी कर चुके थे।

हाल के वर्षों में किसी पत्रकार द्वारा आत्महत्या का सबसे चर्चित मामला दैनिक भास्कर में स्वास्थ्य मामलों के पत्रकार तरुण सिसोदिया का था, जिन्होंने कोविड संक्रमण के इलाज के दौरान अत्यधिक सुरक्षित माने जाने वाले नई दिल्ली स्थित एम्स की चौथी मंजिल से कूदकर 6 जुलाई 2020 को जान दे दी थी। सोशल मीडिया पर उनका अंतिम मैसेज था, वे मेरी जान के पीछे पड़े हैं। तरुण सिसोदिया की कोविड से संबंधित अधिकतर रिपोर्टिंग में सरकारी लापरवाही और स्वास्थ्य सेवाओं की नाकामियां झलकती थीं।

इसके बाद कोविड19 से ग्रस्त तरुण सिसोदिया जब एम्स के कोविड वार्ड में भर्ती हुए थे, तब उन्होंने वहां की लापरवाहियां और बदइन्तजामी उजागर की थी। यह मामला स्वास्थ्य मंत्रालय तक पहुंच गया था और जांच की बात उठने लगी थी। वहां पर उनकी हालत सुधरने लगी थी, पर एम्स प्रशासन ने अपनी नाकामियां छिपाने के लिए लगभग ठीक हो चुके तरुण सिसोदिया को आईसीयू में भर्ती कर दिया, जिससे उनके पास उनका स्मार्टफोन नहीं रह सके। इसके बाद ही तरुण सिसोदिया ने यह कदम उठाया था।


स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस मामले की जांच के आदेश दिए थे, पर जांच की रिपोर्ट में कुछ बताया नहीं गया, सिवाय इसके कि तरुण अपना मानसिक संतुलन खो बैठे थे। ऐसी रिपोर्ट का पता सबको पहले से ही था, आखिर एम्स निदेशक डॉ रणणदीप गुलेरिया कोविड-19 से संबंधित हरेक सरकारी कमिटी में शामिल थे, दिन भर टीवी चैनलों पर बैठकर कोविड 19 पर प्रवचन देते थे। जाहिर है, तरुण सिसोदिया की मौत की तहकीकात किसी भी मीडिया घराने ने नहीं की।

हमारे देश में पत्रकारिता पर सरकार पूरा नियंत्रण करना चाहती है। सरकार का पूरा प्रयास है कि केवल वही मीडिया घराने चलते रहने चाहिए जो सरकार का 24X7 गुणगान करते हैं। सरकार से प्रश्न करने वाले या साकार के घोटालों को उजागर करने वाले सभी मीडिया घराने बंद हो जाने चाहिए। इस क्रम में कभी सरकार विज्ञापनों का खेल खेलती है, कभी निष्पक्ष प्रेस क्लब पर ताला लगा देती है, कभी इनकम टैक्स और एन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट की सहायता लेती है और कभी राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर प्रसारण का लाइसेंस रद्द कर देती है।

केरल में प्रतिष्ठित मलयालम समाचार चैनल मीडियावन का केंद्र सरकार ने लाइसेंस रद्द कर दिया है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अनुसार गृह मंत्रालय ने न्यूज चैनल को सुरक्षा के लिए खतरा माना है। हमारे देश में अब तक अभिव्यक्ति की आजादी के लिए अदालतें आगे आती थीं, पर अब न्यायाधीशों को सेवाकाल समाप्त होने के बाद राज्यसभा की सीट या दूसरे संवैधानिक पद अधिक भाने लगे हैं और इसका असर उनके फैसलों पर साफ़ दिखने लगा है।

मीडियावन ने केरल उच्च न्यायालय में केंद्र सरकार के फैसले के विरुद्ध याचिका दायर की तो केंद्र सरकार का जवाब एक सीलबंद लिफाफे में भेजा गया, जिसके बारे में याचिकाकर्ता समेत केरल सरकार को भी नहीं बताया गया कि इसमें क्या लिखा है। इस सीलबंद लिफाफे के आधार पर केरल उच्च न्यायालय की एक सदस्यीय बेंच ने केंद्र सरकार के निर्णय को मान्य रखा। अब मीडियावन ने फिर से न्यायालय में डबल बेंच में सुनवाई के लिए याचिका दायर की है।


मीडियावन के मामले में देश के 12 सांसदों और करीब 45 वरिष्ठ पत्रकारों, अधिवक्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और दूसरे जागरूक पूर्व अधिकारियों ने एक ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये हैं और इसे अभिव्यक्ति की आजादी और निष्पक्ष सूचना के प्रसार पर केंद्र सरकार का हमला बताया है। सांसदों में कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, डीएमके, आरजेडी, शिव सेना और सीपीआई के सांसद हैं। पत्रकारों में प्रमुख नाम हैं– हिन्दू के एन राम, टेलीग्राफ के सम्पादक, कारवां के सम्पादक। अधिवक्ताओं में प्रशांत भूषण और कोलिन गोंसाल्वेस प्रमुख हैं। अन्य प्रमुख नाम हैं– तुषार गांधी, बॉम्बे उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश कोलसे पाटिल।

प्रशांत भूषण ने दिल्ली में आयोजित इस मामले से सम्बंधित एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि देश की न्यायालयों में सरकार की तरफ से सीलबंद लिफाफे में प्रस्तुत जवाब एक नया नार्मल हो गया है। इन जवाबों के बारे में किसी को नहीं बताया जाता, पर इस मामले में सीलबंद लिफाफे में प्रस्तुत जवाब सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले की अवहेलना करता है जिसमें कहा गया है कि मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की आजादी या मौलिक अधिकार के मामले में कोई भी पक्ष सीलबंद लिफाफे में जवाब नहीं प्रस्तुत कर सकता है क्योंकि हरेक ऐसे मामले में हरेक पक्ष को दूसरे पक्ष का जवाब जानने का पूरा अधिकार है।

राष्ट्रीय सुरक्षा अब केंद्र सरकार का नया ब्रह्मास्त्र हो चला है। राफेल की कीमत राष्ट्रीय सुरक्षा है, पेगासस की खरीद राष्ट्रीय सुरक्षा है, अब मीडिया घराने भी राष्ट्रीय सुरक्षा में शामिल हो गए हैं। इंतजार कीजिये, जल्दी ही भूख, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विषय भी राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ जाएंगे। वैसी कभी-कभी जनता भी सीलबंद लिफाफे में जवाब प्रस्तुत करने वाली सत्ता से आजिज आकर उस सत्ता को ही हमेशा के लिए सीलबंद लिफाफे में बंद कर देती है– पर क्या हमारे देश में ऐसा होगा?

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