चुनाव आयोग अपनी ही चाल में फंसा! उसे कैसे पता शिकायतें गलत फॉर्मेट में हैं, जबकि शिकायत न मिलने का किया था दावा

खेड़ा ने बताया कि जब पार्टी के बीएलए ने आपत्तियां दर्ज करने की कोशिश की, तो उन्हें बताया गया कि शिकायतें केवल आम लोगों से स्वीकार की जाएंगी, राजनीतिक दलों से नहीं।

दिल्ली स्थित केंद्रीय चुनाव आयोग का मुख्यालय
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विश्वदीपक

वरिष्ठ कांग्रेस नेता पवन खेड़ा ने 31 अगस्त को संवाददाता सम्मेलन में कहा कि बिहार में हाल ही में संपन्न एसआईआर (विशेष गहन पुनरीक्षण) में गड़बड़ियों से जुड़ी 89 लाख शिकायतें की गईं। उन सब को खारिज कर दिया गया। दूसरी ओर चुनाव आयोग का दावा है कि उसे एक भी शिकायत नहीं मिली।

मीडिया से जुड़े कुछ लोगों ने सवाल उठाया कि आखिर शिकायतों की संख्या नाम काटे वोटरों की संख्या से अधिक कैसे हो सकती है? चुनाव आयोग के मुताबिक 65 लाख लोगों के नाम वोटर लिस्ट से काटे गए हैं।

बिहार कांग्रेस प्रवक्ता राजेश राठौर बताते हैं- ‘शिकायतों की संख्या नाम हटाने के मामलों तक सीमित नहीं थी, इसमें विसंगतियों, गलतियों और नाम जोड़ने के मामले भी थे। कई मामलों में एक ही वोटर को अलग-अलग वजहों से अलग-अलग शिकायत करनी पड़ी।’

दिलचस्प बात यह है कि चुनाव आयोग ने यह कहकर खुद ही अपना मामला कमजोर कर लिया कि शिकायतें ‘गलत फॉर्मेट’ में की गईं। सवाल यह उठता है कि उसे कैसे पता चला, क्योंकि खुद उसके मुताबिक उसे एक भी शिकायत नहीं मिली?


राठौर ने माना कि वह इस बात की पुष्टि नहीं कर सकते कि सभी 89 लाख शिकायतें फॉर्म-6 के जरिये की गईं, लेकिन जोर देकर कहा कि चुनाव आयोग प्रक्रिया की आड़ में एसआईआर संबंधी गड़बड़ियों पर लीपापोती कर रहा है। आयोग के मुताबिक फॉर्म 6 नए नाम (आम तौर पर पहली बार वोट डालने वालों के) शामिल करने के लिए, फॉर्म 7 आपत्तियों या नाम काटने के लिए और फॉर्म 8 संशोधन के लिए होता है।

खेड़ा ने जोर देकर कहा: बूथ लेवल एजेंटों (बीएलए) ने उन मतदाताओं की ओर से आपत्तियां दर्ज की थीं जिनके नाम हटा दिए गए थे और उन्हें जिला चुनाव अधिकारियों (डीईओ) को सौंप दिया था’।

संडे नवजीवन से बात करते हुए उन्होंने विस्तार से बताया कि जब पार्टी के बीएलए ने आपत्तियां दर्ज करने की कोशिश की, तो उन्हें बताया गया कि शिकायतें केवल आम लोगों से स्वीकार की जाएंगी, राजनीतिक दलों से नहीं।


रूडी ने रास्ता अलग कर लिया?

सारण से बीजेपी सांसद राजीव प्रताप रूडी ने हाल ही में समस्तीपुर दौरे के दौरान हलचल मचा दी। उनकी टीम ने शहर में महाराणा प्रताप के साथ उनकी तस्वीर और ‘जय सांगा’ के नारे वाले पोस्टर लगा दिए। साफ है, ऐसा राजपूत पहचान और गौरव को जगाने के लिए किया गया। पोस्टरों में न तो उनकी पार्टी का नाम था और न ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तस्वीर।

चुनावी मौसम में इसने तमाम अटकलों को जन्म दे दिया है। क्या रूडी भाजपा से दूरी बना रहे हैं? या यह हर पार्टी के राजपूतों को एकजुट करने की शुरुआती कोशिश है? बिहार की आबादी में राजपूतों की संख्या तकरीबन चार फीसद है और वे पारंपरिक रूप से भाजपा समर्थक रहे हैं, खासकर उन निर्वाचन क्षेत्रों में जहां पार्टी किसी राजपूत को मैदान में उतारे। पोस्टर का विद्रोही अंदाज जान-बूझकर रखा गया या कुछ और चल रहा है? प्रधानमंत्री की तस्वीर का न होना बिहार में मोदी की लोकप्रियता में गिरावट का संकेत भी हो सकता है। राजगीर में आयोजित एशिया कप हॉकी टूर्नामेंट (29 अगस्त-7 सितंबर) में भी मोदी की तस्वीर वाले पोस्टर या होर्डिंग नहीं लगे थे। उनकी जगह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार छाए रहे।

राजपूतों के एकजुट होने से 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को नुकसान हुआ था। पार्टी ने तीन पड़ोसी सीटें- औरंगाबाद, आरा और काराकाट- इंडिया ब्लॉक के हाथों गंवा दीं। आरा में केन्द्रीय मंत्री आर.के. सिंह हारे, बक्सर में राजद के सुधाकर सिंह जीते और औरंगाबाद में राजद के ही अभय कुशवाहा ने भाजपा के सुशील कुमार सिंह को हराया।

रूडी की भाजपा के साथ असहजता हाल ही में नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब के सचिव पद के चुनाव के दौरान भी जाहिर हुई। इस पद का अपने आप में खासा प्रभाव है क्योंकि सभी मौजूदा और कई पूर्व सांसद इसके सदस्य हैं। इस पद के लिए रूडी का मुकाबला भाजपा के ही सांसद संजीव बालियान से हुआ जिनके बारे में आम धारणा यही है कि उन्हें गृहमंत्री अमित शाह का वरदहस्त प्राप्त है। रूडी यह मुकाबला जीत गए, जाहिर है कि विपक्ष के समर्थन से ही वह ऐसा कर सके। इस जीत के बाद से ही इस तरह की अटकलें हैं कि अमित शाह इसे भूलने से रहे। रूडी और भाजपा के बीच की असहजता उस समय भी मुखर हुई जब एक कांग्रेस नेता ने इस सवाल के जवाब में कि क्या रूडी उपराष्ट्रपति पद के लिए विपक्षी उम्मीदवार बी. सुदर्शन का समर्थन करेंगे, जवाब दिया कि ‘वह अपने अंतःकरण के अनुसार काम करेंगे।’


बीएसपी फैक्टर

यह कोई हैरान करने वाली घोषणा नहीं है कि बसपा बिहार विधानसभा चुनाव में सभी सीटों पर लड़ेगी। बसपा का ज्यादातर सीटों पर चुनाव लड़ने का ट्रेंड रहा है। 2020 में पार्टी ने कुल वोटों का 4.17 फीसद हासिल करते हुए विधानसभा की दो सीटें जीतीं। अब सवाल यह है कि बसपा के इस कदम से ज्यादा नुकसान किसे होगा- एनडीए को या फिर इंडिया ब्लॉक को? बसपा का आधार मोटे तौर पर उत्तर प्रदेश से लगते विधानसभा क्षेत्रों में और जाटव समुदाय में है। वैसे बिहार में जाटव आबादी छह फीसद है, लेकिन इनकी निष्ठा विभिन्न दलों में बंटी हुई है।

एआईसीसी सचिव और बिहार कांग्रेस के सह-प्रभारी शाहनवाज आलम का मानना है कि बसपा सुप्रीमो मायावती की अपनी पार्टी को जिंदा रखने से ज्यादा कोई महत्वाकांक्षा नहीं। उन्होंने माना कि स्थानीय कारक के अलावा वह किसे उम्मीदवार बनाती हैं, इसका चुनाव नतीजों पर असर पड़ेगा, लेकिन उन्होंने इस ओर भी ध्यान दिलाया कि पूर्व विधायक जाकिर हुसैन और सासाराम के पूर्व सांसद मनोज राम जैसे तमाम नेता कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं।

सीपीआई(एमएल) प्रदेश सचिव कुणाल का कहना है कि यह मानना गलत होगा कि बसपा केवल इंडिया ब्लॉक के वोट काटेगी, ‘मायावती एनडीए को भी उतना ही नुसकान पहुंचाएंगी, खास तौर पर कैमूर और रोहतास जैसे उत्तर प्रदेश से सटे जिलों में।’ उन्होंने कहा कि इसे नहीं भूलना चाहिए कि बिहार की 19.65 दलित आबादी में हिन्दुस्तानी अवामी मोर्चा (सेकुलर), एलजेपी और जेडीयू के भी वोटर हैं और इस वजह से दलित वोटर में काफी बिखराव होगा।

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