आकार पटेल का लेख: सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद के विरुद्ध एकजुटता की आवाज

भारत और इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष का एक साझा सूत्र और बंधुता सुनिश्चित करने का संकल्प।

फोटो सौजन्य : @TheBostonCoali1
फोटो सौजन्य : @TheBostonCoali1
user

आकार पटेल

मैं यह लेख अमेरिका से लिख रहा हूं, जहां मैं एक अनोखे एकता सम्मेलन में हिस्सा लेने आया हूं, और मुझे लगा कि इसके बारे में लिखा जाना चाहिए। यह इस मायने में रोचक सम्मेलन है क्योंकि इसमें दो संघर्षों के बारे में बात हुई, एक- लोकतांत्रिक भारत में धर्मनिरपेक्षता और दूसरा कब्जे वाले फिलिस्तीन में साम्राज्यवाद का विरोध।

इस सम्मेलन का आयोजन बॉस्टन दक्षिण एशियाई गठबंधन ने किया था, जिसमें मुख्य रूप से दो वक्ता थे। एक थीं हमारी तीस्ता सीतलवाड़, जो गुजरात में न्याय के संघर्ष की नायिका हैं। और एक था दक्षिण लेबनान का एक युवक, जिसका नाम सलीम हल्लाल है। इस सम्मेलन के श्रोताओं में कुछ दर्जन लोग थे जिनमें बहुत से देसी भी थे, और मेरे ख्याल से यही वह बात थी जो इस मुझे इस सम्मेलन के बारे में काफी रोचक लगी और मुझे लगा कि इसके बारे में लिखना चाहिए। और ऐसा क्यों लगा, यह मैं बाद में लिखूंगा।

इन दोनों वक्ताओं की बातचीत का सार तथ्यों पर केंद्रित था। एक का केंद्र सांप्रायिक अपराधों में सरकारी प्रायोजन (कुछ लोग इसे सरकार द्वारा प्रोत्साहित भी कह सकते हैं) और दूसरे का केंद्र था स्वतंत्रता के लिए एक देश का संघर्ष।

इन दोनों में एक साझा सूत्र था, और वह था ऐतिहासिक संशोधनवाद और घटनाओं और तथ्यों का पुनर्लेखन। फ़िलिस्तीन और 'न्यू इंडिया' दोनों में यह साझा विचार रखा जा रहा है कि एक हज़ार साल पहले या दो हज़ार साल पहले यहां की ज़मीन और इस भूमि पर कुछ और हुआ करता था। यह विचार और धारणा, आज लोगों और संरचनाओं और स्मारकों के खिलाफ हिंसा को न्यायोचित ठहराती है।

श्रोताओं में बैठे मुझ समेत कई लोग इस संवाद में दो अलग-अलग परिदृश्यों की एकसमानता से सहमत नजर आए। कई दशकों से मित्र रहीं तीस्ता सीतलवाड ने जो कुछ भी कहा वह सटीक और विचारशील था। वहां बैठे बहुत से लोगों को नई पता होगा कि 2002 में और उसके बाद गुजरात में क्या हुआ था।

उन्होंने उन 174 ऐसे लोगों के बारे में बात की जिन्हें गुजरात की घटनाओं से बच गए लोगों और एक्टिविस्ट के साहस और निश्चय के कारण ही अदालतों से दोषी ठहराया गया था। इनमें से 124 को उम्रकैद की सजा हुई। ये ऐसे अदालती फैसले थे जो अकसर इंसाफ की पुकार के प्रति सरकारी प्रतिरोध के कारण सामने आते हैं। ऐसा करने में कितना साहस और हिम्मत लगी होगी, इसके लिए सिर्फ इस बात पर ही विचार करना पर्याप्त होगा कि बलात्कार-हत्या के दोषियों को आज भारत में सरकार द्वारा कैसे पोषित किया जाता है और उन्हें रिहा करने की कोशिश की जाती है, जिसका कारण सिवाए कट्टरता के और कुछ नहीं हो सकता।

बहुत से लोगों को नहीं पता होगा, और जिन्हें पता होगा, तो वे भूल गए होंगे कि सुप्रीम कोर्ट ने तमाम मामलों की सुनवाई गुजरात से बाहर कराने का आदेस दिया था, और जहां तक मेरी जानकारी है ऐसा इससे पहले पहले कभी नहीं हुआ था।


सलीम हल्लाल ने भी सीधे तौर पर और काफी जज्बाती लहजे में बात रखी कि जमीनी हकीकत क्या है और कैसे एक अन्यायपूर्ण कहानी को बनाए रखने की कोशिश की जा रही है।

उन्होंने कहा कि इजरायल में शुरुआती दौर में बसने वाले लोग फिलिस्तीनी मदद से ही बचे रहे, बिल्कुल उसी तरह जैसे कि अमेरिका में शुरुआती दौर में बसने वाले लोग। फिलिस्तीन में जो कुछ हो रहा है वह कोई धार्मिक संघर्ष नहीं है, बल्कि कब्जा करने वालों के खिलाफ मूल निवासियों का संघर्ष है। उन्होंने उजागर किया कि बिना जमीन वाले नए बसे लोगों का उपनिवेशवाद बिना लोगों वाली जमीन पर एक साथ आने का वर्णन कितना खोखला है।

उन्होंने बताया कि कैसे यह भ्रम बनाना कि इज़रायल-फ़िलिस्तीन का मुद्दा एक जटिल मुद्दा है, दरअसल एक बेहद सरल वास्तविकता को जटिल बनाने के लिए इस्तेमाल की गया महज एक तरीका है। यह कब्जे और उपनिवेशवाद का एक विशेष एजेंडे के साथ इतिहास को दोबारा लिखने का तरीका है।

यह पूरी चर्चा बोस्टन साउथ एशियन कोएलिशन यूट्यूब पेज पर उपलब्ध है और मैं सभी से इसे देखने का आग्रह करता हूं।

और अब बात कि आखिर यह सम्मेलन रोचक क्यों लगा। कारण यह है कि अमेरिका में भारतीय समूहों द्वारा भारत सरकार के पक्ष में और उसका समर्थन करते हुए दिखाया जाना असामान्य नहीं है। खासतौर से ऐसे मुद्दों पर कि किस तरह भारत सरकार अल्पसंख्यक भारतीयों के साथ कैसा बरताव करती है और सरकार द्वारा आयोजित कार्यक्रमों (हाऊडी मोदी) आदि में क्या होता है। यह विशेष रूप से और दुर्भाग्य से मेरे अपने गुजराती समुदाय के लिए सच है, जिन्हें अक्सर सरकारी सांप्रदायिकता के पक्ष में सबसे आगे दिखाया जाता है। लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है और कई अन्य भारतीय भी हैं, जो हाल के वर्षों में भारत ने जो रास्ता अपनाया है उसका विरोध कर रहे हैं। ये वही लोग हैं जिनसे इस सम्मेलन के दौरान मैं उस दिन जुड़ा था।

इस कार्यक्रम में मैं भी थोड़ी देर के लिए बोला  था कि विदेशों में बसे भारतीय क्या कर सकते हैं। इसका मतलब यह था कि भारत में जो कुछ हो रहा है, उससे जुड़ने के लिए उन्हें अपने आवास वाले देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का इस्तेमाल कर सामने आना चाहिए। भारत में 2019 में एक भेदभावपूर्ण नागरिकता कानून पारित तो हुआ, लेकिन इसे अभी तक लागू नहीं किया गया, और इसका मुख्य कारण इसके खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए थे।


लेकिन इसका एक और कारण था कि यूरोपीय संसद ने इसके खिलाफ एक आलोचनात्मक रुख सामने रखा था। कोई पूछ सकता है कि आखिर दूर बैठे किसी और देश के सांसदों की इसमें क्या दिलचस्पी थी, जिसे हम ‘अपना आंतरिक मामला’ कह रहे थे, लेकिन स्पष्ट है कि ऐसा शायद इसलिए था क्योंकि विदेशों में रहने वाले भारतीयों ने भी अपने सांसदों के सामने इस कानून को लेकर चिंता जाहिर की थी।

भारत, मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा और नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय समझौते पर दस्तखत करने वाले देशों में शामिल है। ऐसा कोई कारण नहीं है कि हमारे मित्र हमें यह तथ्य याद न दिला सकें। और इसका नतीजा होगा कि और ऐसी संभावना है कि इससे विदेशों में रहने वाले लोग भारत में जो कुछ चल रहा है, उसमें अधिक मजबूती से शामिल हो सकेंगे।

एकजुटता महत्वपूर्ण है, सिर्फ इसलिए नहीं कि हमें दूसरों के कष्टों को समझना चाहिए, बल्कि इसलिए कि ऐसे मामलों में हमारी भागीदारी हमारा कर्तव्य है।

हमारे संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि हम भारतीयों ने भारतीयों के लिए 'व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित करते हुए बंधुता' सुरक्षित करने का संकल्प लिया है। भाईचारा तभी आ सकता है जब हम एक-दूसरे के लिए खड़े हों। बॉस्टन दक्षिण एशियाई गठबंधन के कार्यक्रम में शामिल देसी लोगों की भागीदारी दरअसल ऐसा ही करने का एक प्रयास है।

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia