हंगर इंडेक्स से लेकर हर सूचकांक को खारिज करने की खतरनाक प्रवृत्ति, क्या हकीकत वही होती है जो मोदी बताएं!

अलग-अलग एजेंसियों द्वारा तैयार किए गए अलग-अलग सूचकांक, भारत में तीव्र और बढ़ती पोषण संबंधी कमी की ओर इशारा करते हैं। यहां तक ​​कि जब सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि स्पष्ट रूप से उच्च दर पर हो रही है, तो यह एक ऐसा मुद्दा है जिसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए

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प्रभात पटनायक

फासीवादी संगठनों की एक खासियत होती है। वे उन सबूतों को सिरे से खारिज कर देते हैं जो उनके नैरेटिव के खिलाफ होते हैं; और भारत में सत्ता में बैठे हिन्दुत्ववादी कोई अपवाद नहीं। उनका नैरेटिव भारत को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में पेश करता है; लेकिन अगर अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां या यहां तक कि सरकार की अपनी एजेंसियों के सबूत कुछ और दिखाते हैं, तो वे सारे सबूत गलत ठहरा दिए जाते हैं। 

उनका सीधा कहना है: हकीकत वही जो मोदी बताएं। अगर सबूत कुछ और दिखाते हैं तो वह गलत होगा और ज्यादा संभावना है कि यह एक नापाक आतंकवादी साजिश है। पूर्ण अस्वीकृति और आलोचना के बीच एक बुनियादी फर्क है। अगर हिन्दुत्ववादी तत्व सबूतों की आलोचना करते तो यह सार्थक गतिविधि होती क्योंकि आलोचना कैसी भी हो, सकारात्मक होती है। इससे या तो सबूत इकट्ठा करने का तरीका बेहतर होगा या यह किसी ऐसी व्याख्या के दरवाजे खोलेगी जिसपर सामान्य तौर पर किसी का ध्यान ही नहीं गया। कुल मिलाकर आलोचना से समझ बेहतर होती है। 

लेकिन सबूतों की आलोचना करना उनकी क्षमता से परे है; वे अपने तर्क के विपरीत किसी भी सबूत को सिर्फ सिरे से खारिज कर सकते हैं, बिना यह बताए कि उनके दावों की परख के लिए सबूत के किसी खास हिस्से को ध्यान में क्यों नहीं रखा जाना चाहिए।

मैं मोदी सरकार द्वारा सबूतों को अस्वीकार करने के तीन प्रकरणों के संदर्भ में अपनी बात रखूंगा। पहला उपभोक्ता व्यय पर 2017-18 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण से संबंधित है। याद रहे कि इन सर्वेक्षणों की रूपरेखा 1950 के दशक में सांख्यिकीविद् प्रोफेसर पी सी महालनोबिस ने बनाई थी। हर पांच साल पर होने वाला यह बड़ा नमूना सर्वेक्षण देसी-विदेशी शोधकर्ताओं को बेशकीमती सामग्री देता था। हालांकि, 2017-18 के पंचवार्षिक सर्वेक्षण में देश में गरीबी की निराशाजनक तस्वीर दिखाए जाने पर कथित तौर पर मोदी सरकार ने न केवल सर्वेक्षण के नतीजों को सार्वजनिक होने से रोका बल्कि इन सर्वेक्षणों को ही खत्म कर दिया। 

2017-18 के सर्वेक्षण नतीजों को दबाए जाने से पहले जो कुछ ‘लीक’ हो गया, उसके मुताबिक 2011-12 और 2017-18 के बीच प्रति व्यक्ति ग्रामीण उपभोक्ता व्यय में 9 फीसद की गिरावट आई। इस सबूत से चिंतित होने के बजाय सरकार ने नतीजों को ही दबा दिया और भविष्य के सभी सर्वेक्षणों से किनारा कर लिया। यह खास तौर पर एक फासीवादी प्रतिक्रिया ही कही जा सकती है। 


मेरा दूसरा उदाहरण राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 से जुड़ा है जो 2019-21 के दौरान किया गया था। इससे पता चला कि 2015-2016 में किए गए एनएफएचएस-4 की तुलना में बच्चों और महिलाओं दोनों में एनीमिया के मामलों में चिंताजनक वृद्धि दर्ज की गई है। जहां 2015-16 में 6 महीने से 59 महीने की उम्र के 59 फीसद बच्चे एनीमिया से पीड़ित थे, वहीं 2019-21 में यह आंकड़ा बढ़कर 67 फीसद हो गया।

इससे भी अधिक, इन दो तिथियों के बीच मध्यम से गंभीर एनीमिया की घटनाएं 30.6 से बढ़कर 38.1 फीसद हो गईं जबकि मामूली एनीमिया की घटनाएं क्रमशः 28.4 और 28.9 फीसद पर बनी रहीं। इसी तरह, महिलाओं (49 वर्ष की आयु तक) में इस अवधि के दौरान एनीमिया की घटनाओं में 53 से 57 फीसद का इजाफा हुआ; मध्यम से गंभीर एनीमिया 28.4 से 31.4 फीसद बढ़ा। 

यहां तक कि 49 वर्ष की आयु तक के पुरुषों में भी जहां एनीमिया की घटना बहुत कम थी और 23 से 25 फीसद के मामूली अंतर से बढ़ी थी, इसमें भी मध्यम से गंभीर एनीमिया के मामले 5 से बढ़कर 8 फीसद हो गए। ग्रामीण बच्चों और वयस्कों में औसत से अधिक एनीमिया की घटना देखी गई। 

इन नतीजों पर सरकार की क्या प्रतिक्रिया रही? जनता की चिंता करने वाली कोई भी सरकार उनपर चर्चा के लिए विशेषज्ञों की समिति बुलाती और इस रुख को जल्दी से जल्दी पलटने के लिए जरूरी कदम उठाती। लेकिन इस सरकार ने एक मनगढ़ंत आरोप में यह सर्वेक्षण कराने वाली संस्था- इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन के निदेशक को निलंबित कर दिया। आरोप की मनगढ़ंत प्रकृति इस तथ्य से बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि जब निदेशक ने इस्तीफा दे दिया तो उनका निलंबन वापस ले लिया गया। एक बार फिर, यह एक फासीवादी प्रतिक्रिया थी।

मेरा तीसरा उदाहरण ग्लोबल हंगर इंडेक्स से संबंधित है। 2023 का सूचकांक दिखाता है कि जिन 125 देशों के आंकड़े इकट्ठा किए गए, उनमें भारत 111वें स्थान पर है। गौर करने वाली बात है कि ये आंकड़े निम्न स्तर की भूख वाले देशों के लिए संकलित नहीं किए गए। इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि भारत की रैंक हमारे निकटतम पड़ोसियों, पाकिस्तान (102वें), बांग्लादेश (81वें), श्रीलंका (60वें) और नेपाल (69वें) से भी नीचे है, और यह लगातार नीचे गिर रही है। 


एक बार फिर यह देखना सही होगा कि इन बेहद परेशान करने वाले नतीजों पर सरकार की क्या प्रतिक्रिया रही? जरा भी सदमा नहीं, जरा भी चिंता नहीं, बल्कि सीधे तौर पर इसे खारिज कर दिया गया। यहां तक कि एक कैबिनेट मंत्री ने उनके बारे में पूरी तरह से गलत जानकारी वाली और हास्यास्पद टिप्पणियां भी कीं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स की गणना चार मापदंडों से की जाती है: अल्पपोषण, पांच साल से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु दर, बच्चों का बौनापन (उम्र के अनुपात में कम ऊंचाई) और बच्चों का कमजोर होना (ऊंचाई के अनुपात में कम वजन)।

अगर एक पल के लिए सरकार के इस दावे को मान भी लें कि ये पैरामीटर वयस्कों के बजाय बच्चों की स्थिति से बहुत अधिक प्रभावित हैं, फिर भी सूचकांक दिखाता है कि दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में भारत में बच्चों की स्थिति बेहद खराब है; दूसरे शब्दों में यह जीएचआई के नतीजों को नजरअंदाज करने का आधार नहीं बनता।

मंत्री ने हास्यास्पद रूप से दावा किया था कि वह भी भूखी थी क्योंकि वह पूरे दिन यात्रा कर रही थी और अगर तब उनके पोषण की स्थिति के बारे में पूछने के लिए फोन किया जाता तो वह वही कहती। सरकार का कहना है कि जीएचआई तैयार करने में ली जाने वाली पोषण संबंधी जानकारी जो भारत में 3000 उत्तरदाताओं के सर्वेक्षण पर आधारित थी, इसी वजह से संदिग्ध है और इस कारण जीएचआई को पूरी तरह अस्वीकार करना जरूरी था। 

हालांकि इस संदर्भ में तीन बिंदुओं पर ध्यान देने की जरूरत है। पहला, अल्प-पोषण जीएचआई के चार मापदंडों में से केवल एक है; दूसरा, यहां तक कि अल्प-पोषण का आकलन करने के लिए भी जीएचआई न केवल उत्तरदाताओं बल्कि प्रत्येक देश की खाद्य बैलेंस शीट पर भी निर्भर करता है जो स्वयं आधिकारिक आंकड़ों से प्राप्त होता है; और तीसरा, उत्तरदाताओं के मतदान का कारण उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षणों को बंद करना है जिसका आदेश खुद भाजपा सरकार ने दिया था।


याद रखना चाहिए कि जीएचआई में भारत की रैंक, समय के साथ घटने के बावजूद, काफी समय से बेहद खराब रही है, यहां तक कि भाजपा सरकार द्वारा उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण बंद कर दिए जाने के काफी पहले से। सकल घरेलू उत्पाद की उच्च वृद्धि दर के साथ तीव्र और बढ़ती भूख का सह-अस्तित्व, दूसरे शब्दों में, फासीवादी तत्वों के सत्ता में आने से पहले ही, नव-उदारवादी शासन की एक बारहमासी विशेषता रही है; उन्होंने केवल इस प्रवृत्ति को जारी रहने दिया है। यह दावा कि भूख का आकलन करने के लिए मतदान करने वाले उत्तरदाता भारत को खराब रोशनी में दिखाने के लिए जिम्मेदार हैं, उपर्युक्त कारणों के अलावा, दो अन्य कारणों से भी दोषपूर्ण है: पहला, इस पद्धति का उपयोग सभी देशों के लिए किया जाता है, न कि केवल भारत के लिए। चूंकि अन्य देशों के पास भारत की तरह विस्तृत नमूना सर्वेक्षण नहीं हैं; और दूसरा, भारत की निम्न रैंक मतदान-उत्तरदाता पद्धति के कारण नहीं है क्योंकि यह इस पद्धति के उपयोग से पहले की है।

तथ्य यह है कि कई अलग-अलग एजेंसियों द्वारा तैयार किए गए इतने सारे अलग-अलग सूचकांक, प्रत्येक अलग-अलग स्रोतों का उपयोग करते हुए, भारत में तीव्र और बढ़ती पोषण संबंधी कमी की ओर इशारा करते हैं, यहां तक ​​कि जब सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि स्पष्ट रूप से उच्च दर पर हो रही है, तो यह एक ऐसा मुद्दा है जिसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए। चिंता दिखाने के बजाय सरकार द्वारा इन सबूतों को खारिज कर देना उसका उसका असली रंग दिखाता है। अगर ऐसा ही रहा तो यह सरकार तो इस देश के पूरे सांख्यिकीय ढांचे को ही तबाह कर देगी जिसे इतनी मेहनत से खड़ा किया गया था। (आईपीए सेवा)

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