आकार पटेल का लेख: चुनाव के बीच विरोधियों को जेल में डालना क्या असली लोकतंत्र है!

बीजेपी चुनाव के दौरान अपने विरोधियों को जेल में डाल देती है और अभी भी विश्वास करती है, या कम से कम हमें विश्वास दिलाना चाहती है, कि वह केवल लोकतंत्र के नियमों का पालन कर रही है।

दिल्ली में तिहाड़ जेल से रिहा होने के बाद समर्थकों को संबोधित करते दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (फोटो - विपिन)
दिल्ली में तिहाड़ जेल से रिहा होने के बाद समर्थकों को संबोधित करते दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (फोटो - विपिन)
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आकार पटेल

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को कुछ दिन के लिए जमानत मिली है जिसमें वे अपनी पार्टी और सहयोगी दलों के लिए चुनाव प्रचार करेंगे। इसके बाद उन्हें फिर जेल वापस  जाना होगा। हालांकि अभी तक उन पर कोई दोष सिद्ध नहीं हुआ है और वे सिर्फ इसलिए जेल में थे क्योंकि बीजेपी उनकी जमानत का विरोध कर रही है। उन्हें जमानत देते हुए जज ने कहा, केजरीवाल “दिल्ली के मुख्यमंत्री और एक राष्ट्रीय पार्टी के नेता हैं। निस्संदेह उन पर आरोप हैं, लेकिन कोई आरोप सिद्ध नहीं हुआ है। उनका कोई आपराधिक इतिहास भी नहीं है औपवे समाज के लिए कोई खतरा भी नहीं हैं।”

कोर्ट ने यह भी कहा कि वे उनके खिलाफ मुकमा तो 2022 में दर्ज हुआ था  लेकिन उन्हें चुनाव से ऐन पहले 21 मार्च को गिरफ्तार किया गया।

देश में मतदान का पहला चरण 19 अप्रैल को हुआ था और इस तरह केजरीवाल को शुरुआती दौर में कम से कम एक महीने प्रचार का मौका नहीं मिला और तीन चरण का मतदान होने तक उन्हें जेल में ही रखा गया। इस दौरान उनकी पत्नी चुनाव प्रचार करती रहीं।

क्या ऐसे चुनाव को स्वतंत्र और निष्पक्ष माना जा सकता है? अपने विरोधियों को जेल में बंद कर जब आप खुद अपने लिए प्रचार कर रहे हो तो ऐस चुनाव को निरंकुश ही कहा जा सकता है। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री की बेटी भारत राष्ट्र समिति की नेता के कविता अभी तक जेल में हैं जबकि उन पर भी अभी तक कोई आरोप सिद्ध नहीं हुआ है।

बीजेपी का तर्क है कि नेताओं के साथ अन्य आरोपियों से अलग विशेष रवैया नहीं अख्तियार किया जाना चाहिए और उन्हें प्रचार के लिए जमानत नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन बीजेपी जो नहीं कह पा रही है वह यह कि लोकतंत्र उसके लिए कोई मायने नहीं रखता और अपने विरोधियों को जेल में बंद रखने की उसकी इच्छा के लिए चुनाव तो एक बहाना हैं। हमें एक बार फिर याद रखना चाहिए कि इनमें से किसी पर भी दोष सिद्ध नहीं हुआ है और वे सिर्फ आरोपी हैं। आरोपी भी ऐसे जिन पर आरोप बीजेपी ने लगाए हैं।


केजरीवाल के मामले में कोर्ट का जो रुख रहा है वहीं दूसरों पर भी लागू होता है। उनका भी कोई पूर्व आपराधिक इतिहास नहीं है, वे भी समाज के लिए खतरा नहीं हैं और वे सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता हैं।

जेल से रिहा होने पर केजरीवाल का भव्य स्वागत किया गया। और केजरीवाल की पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारी सदस्यों में से एक ने ट्वीट किया कि “चुनाव के ठीक बीच में एक पक्ष चुनकर, लॉर्डशिप ने खुद को  प्रचार का हिस्सा बना लिया है। अब करोड़ों वोटों की आवाज उठेगी, तो शायद उन्हें यह पसंद नहीं आएगा।”

समस्या यह है कि अदालतों को इस सबमें घसीटा जा रहा है। असली सवाल है कि बीजेपी के इन शब्दों को कोई कैसे स्वीकार करे कि वह ये सब करने के बावजूद लोकतंत्र पर हमला नहीं कर रही है। इस मुद्दे पर देश बंटा हुआ दिखता है क्योंकि प्रधानमंत्री के समर्थक ऐसी बातों पर उनका उत्साहवर्ध कर रहे हैं।

मान लो कि विपक्ष और वे सभी जो इसका विरोध करते हैं पूरी तरह निष्पक्ष नहीं हैं और उन्हें अनदेखा किया जा सकता है। लेकिन बाहर की दुनिया जिसका यहां के चुनाव या गतिविधियों पर कोई खास हिस्सेदारी नहीं है, वे उस राह के बारे में क्या सोचती है जो भारत ने चुना है?

हमें एक बार फिर याद करना होगा जो पहले कई बार कहा जा चुका है, कई सालों से इस लेख में कहा जा रहा है। बाहरी दुनिया कहती है कि भारत तानाशाही की तरफ फिसल रहा है और अब वह एक लोकतंत्र नहीं रह गया है।

फ्रीडम हाऊस कहता है, “बीजेपी राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ लगातार सरकारी संस्थाओं का इस्तेमाल कर रही है।” यह एक तथ्य है। फ्रीडम हाऊस ने भारत को आंशिक स्वतंत्र देश की श्रेणी में रखा है। यह भी एक तथ्य है और निश्चित ही केजरीवाल के मामले में उतना ही सच है जितना कि पूरे देश के बारे में।


इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट के डेमोक्रेसी इंडेक्स में नागरिक स्वतंत्रता, बहुलवाद, राजनीतिक संस्कृति और भागीदारी और चुनावी प्रक्रियाओं पर नजर रखी जाती है। इस इंडेक्स में भारत 2020 में 27वें नंबर पर था और भारत को त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र की श्रेणी में रखा गया था। पिछले साल यह इस इंडेक्स में 41 नंबर पर पहुंच गया और यह नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश में आए लोकतांत्रिक गिरावट का नतीजा था। डेमोक्रेसी इंडेक्स में अल्पसंख्यकों पर सरकारी हमले आदि के बारे में भी बातें कही हैं।

नागरिक समाज संगठनों के वैश्विक गठबंधन सिविकस (CIVICUS) ने 2017 में भारत के नागरिक क्षेत्र को 'बाधित' का दर्जा दिया था, लेकिन तब से यह 'दमित' श्रेणी में आ गया है। क्या दमित वह शब्द है जिसका प्रयोग लोकतंत्रों के लिए किया जाता है? नहीं...

मार्च 2022 में, सिविकस ने कहा: "भारत को उन देशों की निगरानी सूची में शामिल किया गया है, जिन्होंने नागरिक स्वतंत्रता में तेजी से गिरावट देखी है" और मोदी ने "आलोचकों को चुप कराने के लिए कठोर उपायों का सहारा लेना जारी रखा है।" चुनाव के दौरान उन्हें जेल में डालना आलोचकों को चुप कराने का एक अच्छा उपाय है, खासकर केजरीवाल और संजय सिंह जैसे मुखर आलोचकों को, जिन्हें ईडी ने बिना किसी दोषसिद्धि के जेल में डाल दिया था, लेकिन हाल ही में उन्हें जमानत मिल गई है।

और आखिर में, गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय की वी-डेम रिपोर्ट कहती है कि भारत को 'पिछले 10 वर्षों में दुनिया के सभी देशों के बीच सबसे नाटकीय बदलावों में से एक' का सामना करना पड़ा है। इसमें कहा गया है कि मोदी के नतृत्व में भारत ने लोकतंत्र के रूप में अपनी स्थिति खो दी और हंगरी और तुर्की जैसे देशों में शामिल होकर इसे 'चुनावी निरंकुशता' के रूप में वर्गीकृत किया गया। अभिव्यक्ति, मीडिया और नागरिक समाज की स्वतंत्रता के मामले में, भारत 'पाकिस्तान जितना निरंकुश और बांग्लादेश और नेपाल दोनों से भी बदतर' था।

2014 के बाद से जब ये रिपोर्टें आनी शुरू हुईं तो सरकार और उसके समर्थकों ने इनका मज़ाक उड़ाया और कहा कि ये पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। आज 2024 में, बीजेपी चुनाव के दौरान अपने विरोधियों को जेल में डाल देती है और अभी भी विश्वास करती है, या कम से कम हमें विश्वास दिलाना चाहती है, कि वह केवल लोकतंत्र के नियमों का पालन कर रही है।

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