बिहार: क्या यह भी चुराया हुआ जनादेश है?
इस अविश्वसनीय प्रचंड जीत को ‘अंजाम’ दिया गया है क्योंकि बिहार में हालिया अतीत में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, एनडीए शासन के अपने रिकॉर्ड में भी नहीं, जो इस जनादेश को विश्वास करने योग्य बनाए।

इस वेबसाइट पर हमने 18 अक्टूबर को एक लेख प्रकाशित किया था, जिसका शीर्षक था: 'चुनावी बिसात पर महागठबंधन और एनडीए-चुनाव आयोग गठजोड़ का मुकाबला !' यह इसलिए भी दिलचस्प है क्योंकि निर्वाचन आयोग की कारगुजारियां खुलकर सामने आ चुकी हैं’। विपक्ष को बिहार में बहुत ही बुरे की आशंका तो थी, लेकिन वह इसे जाहिर नहीं कर रहा था। विपक्ष को पता था कि वह एक फिक्स मैच खेल रहा है, लेकिन क्रिकेट की भाषा में शायद वह अंतिम गेंद फेंके जाने का इंतजार करना चाह रहा था।
हरियाणा में 2024 के विधानसभा चुनावों में कथित धांधली के बारे में ‘एच-फाइल्स’ के खुलासे के बाद 5 नवंबर को दिल्ली में मीडिया को संबोधित करते हुए लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने कहा था: ‘हम इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हैं कि अब यह (चुनाव आयोग की संस्थागत धांधली) एक व्यवस्था बन चुकी है। (इसका) औद्योगिकीकरण हो चुका है और इसका इस्तेमाल किसी भी राज्य में किया जा सकता है। बिहार में भी इसका इस्तेमाल होने वाला है। मुझे यकीन है कि बिहार चुनाव में भी यही रिकॉर्ड रहेगा और हम आपको दिखाएंगे कि बिहार में भी यही सब हुआ है।’
‘एच-फाइल्स’ का खुलासा कोई अपवाद नहीं। यह कर्नाटक के महादेवपुरा (लोकसभा 2024) और कर्नाटक के ही आलंद (2023 में हुए पिछले विधानसभा चुनावों में) के बारे में भी इसी तरह के गंभीर खुलासों के फौरन बाद आया था। गैर-कॉर्पोरेट मीडिया संस्थानों, साहसी यूट्यूबर्स और स्वतंत्र विशेषज्ञों के एक समूह द्वारा चुनाव आयोग की विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) प्रक्रिया के बारे में की गई पड़ताल ने भी मतदाता सूची की शुद्धता और चुनावों के संचालन पर गंभीर सवाल उठाए हैं।
एसआईआर के बारे में ‘नवजीवन’ से बात करते हुए सीपीआई-माले महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने कहा था कि एसआईआर को ‘स्पेशल इन्टेन्सिव रिकन्स्ट्रक्शन’ कहना ज्यादा सही होगा। भविष्य उकेरने वाला एक शब्द! लेकिन इससे पहले कि हम इस प्रक्रिया के अन्य दोषपूर्ण पहलुओं पर गौर करते हुए समझने की कोशिश करें कि भट्टाचार्य ने ऐसा क्यों कहा, या वास्तव में हम क्यों सोचते हैं कि यह एनडीए के लिए सही जनादेश नहीं है, आइए चुनावी आंकड़ों से निकलने वाली बातों पर ध्यान जमाएं।
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बीजेपी ने जिन 101 सीटों पर चुनाव लड़ा, उसमें से उसे 89 सीटों पर जीत हासिल हुई। इस तरह उसका स्ट्राइक रेट 88.1 फीसदी रहा। नीतीश कुमार की जेडीयू ने 85 सीटों पर जीत दर्ज की जबकि सिर्फ 29 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने 19 सीटें जीतीं। छह सीटों पर चुनाव लड़ने वाली जीतन राम मांझी की पार्टी हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा पांच सीटें जीती, उसने सिर्फ 6 सीटों पर चुनाव लड़ा था। इसी तरहछह सीटों पर चुनाव लड़ने वाली उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक मोर्चा ने चार सीटों पर जीत हासिल कर ली। यहां तक कि असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम भी पांच सीटें जीतने में कामयाब रही।
करीब 12-14 घंटे की मतगणना के बाद एनडीए 243 में से 202 सीटें जीतने में कामयाब रहा, जबकि विपक्षी महागठबंधन 35 सीटों पर सिमट गया। इनमें से 25 सीटें आरजेडी के खाते में गईं।
महागठबंधन वालों, आप कैसे तय करेंगे कि आपने क्या सही किया और क्या गलत, जब यह जानने का कोई तरीका ही नहीं है कि असल में आपको किसने वोट दिया? और चुनाव आयोग के आंकड़े तो यह खुलासा करने से रहे! आधिकारिक चुनावी आंकड़े उपलब्ध होने पर ही हम उनके झूठ पर चर्चा कर सकेंगे।
इन अविश्वसनीय आंकड़ों को देखते हुए राजनीतिक विज्ञानी सुहास पलशीकर ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा: ‘जब पार्टियां 80-90 फीसदी सीटों पर जीत हासिल करें तो क्या चुनाव विश्लेषण इस बात पर केन्द्रित नहीं होना चाहिए कि उन्होंने शेष 10-20 फीसदी सीटें क्यों खो दीं?’
इन आंकड़ों का मतलब यह भी है कि बीजेपी नीतीश की जेडीयू के बिना भी बहुमत के काफी करीब है, जो ‘ऑपरेशन लोटस’ के लिहाज से नीतीश की पार्टी को कमजोर स्थिति में डालता है। एनडीए के घटक दलों की जीत के आंकड़ों का यह भी मतलब है कि अपनी पार्टी की बहुत अच्छी स्ट्राइक रेट के बावजूद नीतीश या तो इस बार मुख्यमंत्री का ताज नहीं पहनेंगे या जल्द ही कुर्सी खो बैठेंगे। और, इस बार दलों की जो स्थिति है, उसे देखते हुए नीतीश के पास एक बार फिर पलटी मारने की धमकी देने का कोई मौका नहीं होगा। बीजेपी ने इसी उम्मीद पर चुनाव प्रचार के दौरान नीतीश को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं करने का जोखिम उठाया। इसलिए, श्रीमान नीतीश कुमार सावधान रहें, आप चाकू की धार पर हैं।
वापस आते हैं इस बात पर कि इस अविश्वसनीय प्रचंड जीत को कैसे अंजाम दिया गया। हां, इसे ‘अंजाम’ दिया गया क्योंकि बिहार में हालिया अतीत में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, एनडीए के शासन काल में तो कतई नहीं जो इस जनादेश को विश्वास करने योग्य बनाए। बिहार की स्थिति दयनीय ही है।
‘नवजीवन’ ने बिहार में एसआईआर की पूरी प्रक्रिया की संदिग्धता को उजागर करने वाले लेखों की एक पूरी श्रृंखला प्रकाशित की है - ‘एनुमरेशन आवेदन’ के साथ जमा किए जाने वाले दस्तावेजों की असंभव-सी मांगों से लेकर गड़बड़ियों को चिह्नित करने के लिए पार्टियों के बीएलए (बूथ स्तरीय एजेंटों) को इसे सौंपने तक, शिकायतों की स्थिति निर्धारित करने के लिए बूथ स्तर के अधिकारियों (बीएलओ) को विवेकाधीन शक्तियां देने से लेकर गंभीर खुलासों के मद्देनजर विपक्ष के स्पष्टीकरण मांगने पर उसे टाल देने तक, इस ‘शुद्धिकरण’ अभियान के विभिन्न चरणों में पात्र मतदाताओं की संख्या में अपारदर्शी और हैरान करने वाले बदलाव तक।
आइए, एक बार फिर, भारतीय चुनाव आयोग द्वारा 23 जून की शाम के बाद से जारी कुछ बेहद असंभावित आंकड़ों पर गौर करें, जब आयोग ने घोषणा की थी कि अगले दिन बिहार में एसआईआर शुरू होगा!
जनवरी 2025 में बिहार में संक्षिप्त संशोधन (एसआईआर से पहले की आखिरी ऐसी प्रक्रिया) के बाद 7.89 करोड़ मतदाता थे। 24 जून को शुरू हुए एसआईआर की पूर्व संध्या पर यही थी बिहार में मतदाताओं की संख्या।
1 अगस्त को घोषित मसौदा सूची में 7.24 करोड़ नाम थे, यानी 65 लाख नाम हटा दिए गए थे।
30 सितंबर को घोषित अंतिम सूची में 7.42 करोड़ नाम थे। एक महीने के अंतराल में 21 लाख नाम जोड़े गए थे जबकि इससे पहले नाम जोड़ने के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, केवल नाम हटाने की बात हो रही थी क्योंकि कई लोग या तो मर चुके थे या स्थायी रूप से पलायन कर चुके थे और कुछ डुप्लिकेट नाम थे।
‘डुप्लिकेट’ की बात करें तो, पिछली सूची से नाम हटाने के बताए गए कारणों में से एक यह है कि चुनाव आयोग ने अंतिम सूची की घोषणा करने से पहले डी-डुप्लीकेशन सॉफ्टवेयर भी नहीं चलाया था (यह बात एक अन्य खुलासे के जरिये पता चली)। संयोगवश चुनाव आयोग के पास यह सॉफ्टवेयर 2018 से ही है।
अब, ‘अंतिम’ सूची में 7.42 करोड़ मतदाताओं से, पात्र मतदाताओं की संख्या 3 लाख बढ़कर 7.45 करोड़ (ठीक-ठीक कहें तो 7,45,26,858) हो गई, जैसा कि 11 नवंबर को जारी आयोग की प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया है। यह घोषणा चुनाव समाप्त होने के बाद की गई।
यदि आप मसौदा सूची में कथित रूप से जोड़े गए 21 लाख मतदाताओं को नजरअंदाज कर दें, तो भी चुनाव आयोग को ‘अंतिम’ सूची प्रकाशित करने के बाद 3 लाख और मतदाता कहां से मिल गए?!
क्या आपको लगता है कि यह कोई षड्यंत्र सिद्धांत हैं? अगर यह अविश्वसनीय जनादेश सत्तारूढ़ भाजपा के इशारे पर चुनाव आयोग की चालाकी का नतीजा नहीं है तो क्या यह निवर्तमान एनडीए सरकार के कामकाज का, नीतीश कुमार के लगभग 20 सालों के शासन के रिकॉर्ड का नतीजा है? या फिर जाति के सर्वशक्तिमान जादू का नतीजा? हमें नहीं भूलना चाहिए कि नई व्यवस्था में केन्द्र की भाजपा सरकार ने 2:1 के बहुमत से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की।
इस तरह का जबरदस्त जनादेश बताता है कि सरकार जो कह रही है, उससे अच्छे की लोगों की कोई उम्मीद नहीं। या यूं कहें कि सरकार ने लोगों की अपेक्षाओं से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया। हालांकि, सबको पता है कि बिहार पिछड़ेपन का पर्याय बन चुका है, और वह भी दो दशकों के कथित ‘सुशासन’ के बावजूद। यहां गरीबी दर सबसे ज्यादा है; बेरोजगारी दर राष्ट्रीय औसत से दोगुनी से भी ज्यादा है; और स्वास्थ्य एवं पोषण के संकेतक बेहद खराब हैं। इसलिए, यह जनादेश वाकई निराशाजनक है। यहां तक कि राज्य की महिलाएं, जिनके बारे में कई जानकार मानते हैं कि वे नीतीश को लेकर बहुत उत्साहित हैं, लेकिन नकद हस्तांतरण के लाभार्थियों के पास भी बताने के लिए एक अलग कहानी है (पढ़ें: कर्ज के जाल से कैसे निकलें बिहार की महिलाएं )
आप भी शायद मानेंगे, यह कोई अच्छी तस्वीर तो नहीं।
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