अज्ञान से पराजित होने के कगार पर ज्ञान के केन्द्र!

लोकतंत्र में जनता पर ही सबसे भारी जिम्मेदारियां भी हैं। जनता की ही जिम्मेदारी है कि वह शासन-प्रशासन और देश के बाकी सभी इदारों पर पैनी नजर रखे। अगर ऐसा नहीं हो पाता, तो समझिए कि हमारा लोकतंत्र अधूरा और कमजोर है

फोटो: सोशल मीडिया
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रुपरेखा वर्मा

मनुष्य प्रजाति ने मानवीय जीव बनने की कठिन और लंबी यात्रा तय की है। सामूहिकता के कबीलाई रूप से निकल के अधिक बहुरूपी समाज में दाखिल होना, अपने प्रेम और सहानुभूति का अपने से फर्क समूहों तक विस्तार देना, न्याय की ऐसी परिकल्पना करना जो शक्ति केन्द्रित न हो, अनुमान आधारित विश्वास से वैज्ञानिक विश्वास की ओर बढ़ना, वग़ैरह बहुत उलझे और कठिन सफर रहे होंगे। 

इसी सफर में एक बहुत अहम पड़ाव रहा है राजशाही से लोकतंत्र की ओर प्रस्थान। मानव इतिहास में ये कितना बड़ा और क्रांतिकारी कदम रहा है, इसका अंदाज लगाना बहुत मुश्किल नहीं है, क्योंकि उस समय का इतिहास दर्ज है। ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में माने जाने वाले राजा और उसकी प्रजा के रूप में अधिकारविहीन व्यक्ति वाले समाज का ठीक उलट है लोकतंत्र।

बहुत पुरानी होने के बावजूद लोकतंत्र की सबसे सही व्याख्या यही है कि यह जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए तंत्र या सिस्टम है। व्यवहार में इसे उतारने के लिए मूल समस्या यही है कि विविधता से भरे, तमाम पहचानों या आईडेन्टिटीज वाले समाज में सिस्टम बनाने की जिम्मेदारियां कैसे बांटी जाएं कि लोकतंत्र की मूल भावना का निर्वाह हो सके। और, ये याद रखना जरूरी है कि लोकतंत्र के आदर्श रूप में हर एक व्यक्ति पूर्ण और समान अधिकार रखता है, बावजूद इसके कि वह तरह-तरह की सामूहिक या कलेक्टिव पहचान भी रखता है। इस उद्देश्य के लिए देश या राष्ट्र अपने संविधान और कानून बनाते हैं।

ये सभी बातें आम जानकारी में हैं। इसमें कुछ नया नहीं है। लेकिन बिल्कुल स्पष्ट होने के बावजूद जो बात आमतौर पर बिल्कुल भुला दी जाती है, वह यह कि लोकतंत्र में जनता पर ही सबसे भारी जिम्मेदारियां भी हैं। अगर ये व्यवस्था जनता के लिए जनता द्वारा है, तो जनता की ही यह जिम्मेदारी है कि वह शासन-प्रशासन और देश के बाकी सभी इदारों की जानकारी रखे और उन पर पैनी नजर भी रखे। अगर ऐसा नहीं हो पाता, तो समझिए कि हमारा लोकतंत्र अधूरा और कमजोर है।


जनता सामान्यतः यह जिम्मेदारी पूरी कर सके, इसके लिए जरूरी है कि देश और संवैधानिक प्रक्रियाओं के बारे में जनता की जानकारी, शिक्षा, आलोचनात्मक दृष्टि और उसके विधि विधान सम्मत अधिकारों को मजबूत किया जाए और अधिकार चेतना का विस्तार हो। साथ ही, ऐसे वातावरण की मौजूदगी भी जरूरी है जिसमें  जनता का हर व्यक्ति अपनी बात, अपनी चिंताएं निडर हो कर बता सके। 

इस काम के लिए सबसे जरूरी है ऐसी शिक्षा व्यवस्था जो वैज्ञानिक दृष्टि और निष्पक्ष आलोचनात्मक शऊर पैदा करती हो। शिक्षा विद्यार्थियों में निष्पक्षता, उदारता और साहसिक आलोचनात्मक दृष्टि पैदा करे, यह जिस तरह लोकतंत्र के लिए जरूरी होता है, राजशाही के लिए नहीं। बल्कि यूं कहें कि जनमानस में ऐसी दृष्टि का पनपना राजशाही के लिए खतरनाक है। लेकिन चूंकि लोकतंत्र में आम इंसान ही इसका प्रहरी या रखवाला होता है। यहां शिक्षा का सवाल देश की जीवनरेखा का सवाल बन जाता है।

ये  अफसोस की बात है कि शिक्षा व्यवस्था में, तमाम शिक्षाविदों की इस तरह की राय होने के बावजूद इस पर मुकम्मल काम नहीं किया गया। कुल मिला कर दकियानूसी व्यवस्था ही रही, हालांकि पाठ्यक्रमों में कुछ उदारतावादी और आलोचनात्मक टुकड़े जोड़े जाते रहे। यह सामंती चेतना को खत्म करने के लिए काफी नहीं था। इसलिए शिक्षा के लगातार होने वाले विस्तार, वंचितों की शिक्षा तक बढ़ती पहुंच और उदार राजनीति के बावजूद जिस तेजी से और जिस गहराई तक लोकतांत्रिक चेतना फैलनी चाहिए थी,  नहीं फैल पाई।

आज से 10-11 साल पहले तक स्थिति यह रही कि इस कमी को पूरा करने की मांग उठती रही और सत्ता के केन्द्र इस कमी को दूर करने के वायदे करते रहे। सिर्फ वायदे ही नहीं, कुछ कारगर करते भी रहे। लेकिन पिछले 10-11 साल से सत्ता इस तरह की मांग और कोशिशों को दुशमनी की निगाह से देखने लगी। शिक्षा का सरकारी फलसफा लोकतांत्रिक फलसफे के एकदम उलट हो गया। लगता है कि शिक्षा का अर्थ ही पलट दिया गया। आधुनिक उदारतावादी और बहुलतावादी दृष्टि की जगह संकरी एकरूपी अवैज्ञानिक दृष्टि लेने लगी। आगे भविष्य की ओर बढ़ने वाली चेतना की जगह पीछे लौटने और अवैज्ञानिक धर्म-आधारित विश्वासों को बंद आंखों से देखने वाली मानसिकता शिक्षा केन्द्रों में पसरने लगी।

राष्ट्रीयता की सार्वभौमिक नैतिक मूल्यों वाली चेतना की जगह संकुचित और दंभ भरा विचार शिक्षा का उद्देश्य बनने लगा। और स्वतंत्र चिंतन पर पहरे-दर-पहरे लगने लगे। पाठ्यक्रमों से न सिर्फ ग़ालिब हटे, टैगोर भी बाहर हुए। सत्ता ने देश की बहुलतावादी संस्कृति के प्रति नफरत भरने के लिए हर तरह के दबाव डाले।  देशभक्ति जगाने के नाम पर युद्धों में इस्तेमाल हुए पैटन टैंक विश्वविद्यालयों में रखे जाने लगे। कुलपतियों, प्रधानाचार्यों, शिक्षकों की नियुक्तियों में खुल कर राजनीतिक हस्तक्षेप होने लगा। यहां तक कि विश्वविद्यालयों में 'जीवन की व्यवहारिक शिक्षा' के नाम पर शिक्षकों की एक नई तरह की भर्ती शुरू हो गई जिसमें शिक्षकों के लिए किसी भी तरह की डिग्री गैरजरूरी मानी गई। इसके बहाने शिक्षालयों में अनपढ़ और दुराग्रही लोग महत्वपूर्ण और प्रभावी पद पाने लगे। युवा चेतना की खिड़कियां बंद करने का अभियान जारी हो गया।  धार्मिक अलगाव और धर्म-आधारित भेदभाव को केन्द्र में रखने वाला एजेंडा शिक्षा संस्थानों में दाखिल हो गया। कॉलेजों और यूनिवर्सिटियों में कक्षा के अतिरिक्त होने वाले कार्यक्रमों में नाजायज दखलंदाजी फलने-फूलने लगी।

बहुलतावादी वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक चेतना जगाने वाले कार्यक्रमों को बिना किसी नियम कायदे के रोका गया। दर्जनों उन लोगों के लेक्चर जोर जबरदस्ती से, और बहुत बार बदतमीजी से,  रोक दिए गए जो देश के संवैधानिक मूल्यों के पैरोकार रहे हैं और 'रूल ऑफ लॉ' में विश्वास करते हैं। धार्मिक सद्भावना का संदेश देने वाले  कार्यक्रमों को कराने वाले कितने ही प्रिंसिपल्स और शिक्षकों को तरह-तरह से सताया गया। कुछ को बेइज्जत किया गया। कुछ को सजा मिली और कुछ को नौकरी से निकाल दिया गया। बहुत से कई सालों से मुकदमों में उलझे हैं।


उन यूनिवर्सिटियों और कॉलेजों की संख्या कम नहीं है जहां बहुसंख्य धर्म के शुद्ध धार्मिक अनुष्ठान प्रशासन की पूरी भागीदारी से हो रहे हैं। सत्यनारायन की कथा, हनुमान का भंडारा आदि।

आज हमारे देश की त्रासदी यह है कि  ज्ञान के केन्द्रों में ज्ञान-अज्ञान से पराजित होने के कगार पर खड़ा है। विश्वविद्यालय वैश्विक दृष्टि खो रहे हैं। प्रकाश स्तंभ के रूप में पहचाने जाने वाले संस्थान धुआं छोड़ने को मजबूर हैं। 

देश निर्णायक दौर में है। अगर बहुलता और उदारता के मूल्य शिक्षा संस्थानों में जिंदा न रह पाए तो लोकतंत्र भी जिंदा न रह पाएगा।

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