मृणाल पाण्डे का लेखः सभ्यताएं मारी नहीं जातीं, वे आत्मघात करती हैं, यूरोप से भारत के पड़ोस तक यही हाल

सामान्य नागरिक (खासकर महिलाओं) के लिए जंजीरें और गुरुओं के लिए आध्यात्मिक मुक्ति का जहरीला फॉर्मूला मुख्यधारा के कंठ में उतारा जाने लगे, तो टॉयनबी की बात को प्रमाण की जरूरत नहीं रहती कि सभ्यताएं मारी नहीं जातीं, वे आत्मघात करती हैं।

फोटोः नवजीवन
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मृणाल पाण्डे

यूरोप से लेकर भारत के पड़ोस तक में सत्ता की नई खेमेबंदी इन दिनों जारी है। जितनी तेजी से लोकतांत्रिकता का उत्थान पतन हो रहा है, देख कर इतिहासकार आर्नाल्ड टॉयनबी का कहना याद आता है कि सभ्यताओं की हत्या नहीं होती, वे खुद ही आत्महत्या कर लेती हैं। म्यांमार में जनता की चुनी सरकार गिरा कर सेना काबिज है जिसकी क्रूरता के तमाम किस्से हैं। उधर, पाकिस्तान लंबे समय से शीर्ष स्तर पर सेना और सरकार के बीच रस्साकशी और भ्रष्टाचार का शिकार था जिसके हकु्मरान यूएन से विश्व मीडिया तक में भारत के खिलाफ विषवमन करते हए अपने सऊदी और अमेरिकी खूंटों के बल पर उछलकूद करते रहे। इन दिनों उसके सरपरस्तों में चीन भी शामिल हो गया है।

श्रीलंका इस खस्ताहाल बिरादरी में नया है। पिछले सात दशकों में इस मिलीजुली सिंहली, तमिल, मुस्लिम और ईसाई आबादी वाले छोटे से द्वीप ने औसत आमदनी, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सराहनीय बढ़त बना ली थी। इधर आठ-दस बरस से सत्ता पर काबिज राजपक्षे परिवार ने फिजां में लगातार फूटपरस्ती से राज बनाए रखने की नीयत से सांप्रदायिक सांप-बिच्छू छोड़ कर चीनी कर्ज बार-बार लेकर उसे बुरी तरह दिवालिया बना दिया है।

सिंहली बहुल इस देश में बौद्ध धर्म सबसे बड़ी आबादी का धर्म है। उसके बौद्ध भिक्षुओं ने सार्वजनिक शिक्षा और परिवार नियोजन के क्षेत्र में घर-घर घूम कर वहां के बहसंख्य बौद्धों ही नहीं, अल्पसंख्य तमिल, ईसाई और मुस्लिम समदायों का विश्वास भी इस कदर जीत लिया था कि देश खूब फल-फूल उठा। लेकिन आज वहां के समाज को बुरी तरह बांट डाला गया है। इससे देश दिवालिया होता गया, हालात बेकाबू होते गए, तो अब वहां इमर्जेंसी लागू है। गिरफ्तारियां हो रही हैं, कई-कई घंटों का कर्फ्यू है। फिर भी भूखमरी की कगार पर खड़ी जनता के प्रदर्शनकारी और विपक्ष यहां तक कि लोकप्रिय क्रिकेटर भी सड़कों पर हैं। खबर यह भी है कि इस बीच राजपक्षे परिवार के सदस्य देश से किसी अघोषित जगह को खिसकने लगे हैं।

अब आइए पाकिस्तान पर। इलीट वर्ग के अधिकतर विदेश में रहे इमरान खान की प्रशासकीय अकुशलता से सारी दुनिया परिचित थी। फिर भी रातोंरात एक सम्मानित क्रिकेटर से तालिबान समर्थक कट्टरपंथी मुसलमान बन कर मुल्लाओं की मदद से शासन की बागडोर हाथ में लिए बैठे हैं। अपने विदेशी सरपरस्तों के बूते वह सेना तक से रार मोल ले बैठे। संसद में विपक्ष उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया, तो उसको खारिज करवा कर उन्होंने देश में नए चुनावों की मुनादी करवा दी। चुनाव तक देश को चंद कठपतुलियों और बाबूशाही के हवाले रखने की योजना थी। लेकिन देश के सुप्रीम कोर्ट ने पानी फेर दिया और संसद बहाल कर अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग का आदेश दे दिया। वोटिंग हुई और इमरान सत्ता से बेदखल हो गए। देश राजनीतिक संकट में घिरा है। उससे भी बदतर हालात अफगानिस्तान में हैं जहां तालिबान के कोड़ों तले जनजीवन नरक बनता जा रहा है।


इन कभी लोकतांत्रिक रहे मुल्कों की बदहाली फौरी तौर से गहरे आर्थिक संकट से जुड़ी है। खाना-पीना, बिजली, पानी सब का अकाल है। शिक्षा, जन स्वास्थ्य सुविधाएं सब बुरी तरह क्षत-विक्षत हैं। भारत के लिए इस सब में नसीहत साफ है कि समय रहते बहुसंख्यवाद पोस कर बड़ा वोट बैंक बनाने की ऐसी मुहिम पर लगाम लगाई जाए। जब पेट्रो कीमतों की बढ़त से महंगाई लगाम तुड़ा कर भाग रही है और बेरोजगारी चरम पर है, यह बहाना बहुत दूर नहीं चलेगा कि इसका उत्तरदायी अल्पसंख्य समुदाय है। यह भी कि विकास की गति का क्रमश: कम होना और हर आर्थिक-सामाजिक पैमाने का गर्त की तरफ जाना केवल विश्व बाजार में तेल की कीमतों में उछाल की वजह से है। यह वादा कि बहुसंख्य हिंदू जनता जल्द ही भारत को एक कांग्रेस मुक्त, लिबरल विचारधारात्यागी, पूर्णत: हिन्दू, मौर्यकालीन चाणक्यनीति तथा चातुर्वण्य सामाजिकता पर टिका हुआ हिन्दू राष्ट्र बनता पाएगी भी पोच है!

हिंदू राष्ट्र बनेगा तो क्या होगा ? बताया जाता है कि तब हम गोबर से गैस और गोमूत्र से दवा बनाएंगे, हमारे डॉक्टर चरक शपथ लेकर गो ब्राह्मण हितकारी तरीके से देसी दवाओं की मदद से रोगशोक भगा देंगे। हमारे शिक्षण संस्थानों में गीता पाठ कराया जाएगा। हमारी पाठ्यपुस्तकों में भारतीय इतिहास को हिन्दू दृष्टि से दोबारा लिखा जाएगा और आबाल वृद्ध जनता में राष्ट्र प्रेम जगाने को तिरंगा फहराकर और जय श्री राम का तुमुल घोष हर राज्य में गूंजेगा। पर क्या तब बेरोजगारी, ईंधन-पानी की भारी किल्लत, महिलाओं के खिलाफ अपराधों में वृद्धि, उत्पादन में शिथिलता और प्रशासनिक भ्रष्टाचार का नाश हो जाएगा ? क्या हम श्रीलंका और पाकिस्तान में इसकी असल परिणति नहीं देख सकते ?

घरेलू स्तर पर कर्नाटक की हालिया घटनाओं पर एक नजर डालना भी समीचीन होगा। यह वह राज्य है जहां 12वीं सदी में जाति-पांति और कर्मकांड के खिलाफ वीरशैव पंथ बना कर जनवादी आंदोलन से ब्राह्मणवाद को कठोर चुनौती दी गई। 19वीं सदी में यहां मैसूर राज्य उच्च शिक्षा की मिसाल बना। यहां के आईआईटी और आईआईएम और उच्च शिक्षा संस्थानों ने दर्जनों इंजीनियर, सफल उद्योगपति और लेखक-चिंतक पैदा किए। आज वहां मुसलमान घरों की छात्राओं का हिजाब पहन कर पढ़ने जाना अचानक रोक दिया गया है। मंदिर के पास मुसलमान कारोबारियों की बरसों पुरानी दूकानें बंद करवाई जा रही हैं। हलाल बनाम झटका मीट की बिक्री पर एक बेसिरपैर का टंटा खड़ा कर चंद नेताओं के जहरीले वक्तव्यों को सार्वजनिक होने दिया जा रहा है। देश के कुल यूनीकॉर्न स्टार्टअप्स का एक तिहाई जहां खड़ा हो, वहां यह होना समझदारों के लिए सचमुच सर पीटने का विषय है। राज्य की एक प्रमुख फार्मा कारोबारी किरन मजूमदार शॉ ने अभी लंबी चुप्पी तोड़ते हुए बेंगलुरु जैसे अत्याधुनिक तथा टेक इंडस्ट्री का केन्द्र मानी जाने वाली राजधानी में पैर पसारती ऐसी दिमागी और आर्थिक बदहाली और प्रशासन के प्रतिगामी रवैये पर गहरी चिंता और नाखुशी जाहिर की तो अब उन पर गाज तारी है।

यह लक्षण भले नहीं। सब जानते हैं कि भाजपा के लिए हर चुनाव एक युद्ध होता है, जिसे वह एक आक्रामक सेना की तरह ‘हतो वा प्राप्यसे स्वर्गं जितो वा भोक्ष्यसे महीम्’ की तर्ज पर साम, दाम, दंड, भेद से जीतने की आकांक्षा रखती है। जीतती भी है। पर किस कीमत पर ? स्मरणीय है कि इस राज्य का विकास जब और जितना भी हुआ, धार्मिक बहुलता को तवज्जो देकर, नए रचनात्मक विचारों के लिए जगह बना कर, नई तकनीकी के विकास से ही हुआ है। कर्नाटक सरीखे आधुनिक राज्य में जहां बाहर से लाखों जाति धर्मों के टेक विशेषज्ञ निरंतर आते-जाते हैं, जहां दुनिया भर से उच्च टेक इंडस्ट्री लगाने के लिए कुछ बरस पहले तक विदेशी पूजीपतियों में होड़ लगी रहती थी, वह आज अंधकार की कगार पर है। जिस भरपूर आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक विकास के लिए शांतिपूर्ण सहअस्तित्व सबसे बड़ी शर्त है, उसका ध्वस्त होना श्रीलंका की तरफ लुढ़कना होगा।


आज भी देश की हर पार्टी में कुछ समझदार सच्चे देशप्रेमी नेता हैं। सनकी तानाशाहों की असहिष्णुता से आज विश्वयुद्ध जैसी स्थिति में जा पहुंची दुनिया के शासक दल और दलीय सहयोगियों को शीर्ष पर दो बातें समझनी होंगी। एक, कि भारत में 12वीं सदी से वेदबाह्य समुदायों की भारी तादाद रही है लेकिन उन्होंने कभी सनातन धर्म पर धावा नहीं बोला। उसके शीर्ष लोगों को दी, तो बौद्धिक चुनौती दी। उस चुनौती पर सहज विवेचन और विचार-विमर्श से वैचारिक मतभेद के बावजूद दोनों तरफ वैचारिक समृद्धि बढ़ी और जातियों के बीच नई तरह का आर्थिक सहकार भी बना। जब सनातनी कट्टरपंथिता बढ़ी और उसने बहसंख्य समाज को प्रतिगामी और शक्की बना दिया, राजकीय दरबार में न्याय की फरियाद अनसुनी होने लगी, तब जनता बुरी तरह बिफरी और मौके का फायदा ले कर हमारे देश में बाहर से विदेशी आक्रांता आए जो लूटपाट कर चलते बने।

दूसरी बात, हमारे यहां जब कोई खेमा अपने नेता को विश्वगुरु का दर्जा देकर उनके साथ चमत्कारिक कथाएं जोड़नी शरू कर दे और प्रचार किया जाए कि शिक्षा से विज्ञान तक और कला से लेखन तक हर विषय पर हमको किसी के परामर्श की जरूरत नहीं, पूज्यपाद गुरुजी के सद्विचार ही देश के वास्ते हर हाल में सही सामयिक और तर्कसंगत हैं, यह मानने वाले पंथ का पतन तय है। सुधार को अगर चमत्कार कहा जाए, तो यथास्थिति से समझौते की राह खुल जाती है। भक्तिकालीन आंदोलन ने इसी तरह ब्राह्मणवाद से समझौता कर लिया और उसके कारण दलितों-पिछड़ों ने जो विलक्षण रचनात्मकता दिखाई, वह बुझ गई। सामान्य नागरिक (खासकर महिला) के लिए जंजीरें तथा गुरुओं के लिए आध्यात्मिक मुक्ति का जहरीला फॉर्मूला अगर मुख्यधारा के कंठ में उतारा जाने लगे, तो टॉयनबी की बात को प्रमाण की जरूरत नहीं रहती कि सभ्यताएं मारी नहीं जातीं, वे आत्मघात करती हैं।

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