किसान आंदोलन और सरकार में राजनीतिक संस्कृति का टकराव, क्योंकि ये गणतांत्रिक भारत के प्रति जगा रहे हैं उम्मीद

इन आंदोलनों ने गणतांत्रिक भारत के प्रति उम्मीदें बनाए रखी हैं। किसी एकल नेतृत्व के नाम से होने वाले आंदोलनों के कुल नतीजों से जनित अनुभवों के बाद सामूहिक नेतृत्व वाले आंदोलनों ने यह भरोसा दिया है कि भारत को एक गणतंत्र के रुप में फिर से सृजित किया जा सकता है।

फोटोः सोशल मीडिया
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अनिल चमड़िया

किसान आंदोलन में एक नई राजनीतिक संस्कृति का विकास देखने को मिल रहा है कि उसका नेतृत्व सामूहिक है। नवंबर 2020 से शुरू हुआ किसान आंदोलन इसका अकेला उदाहरण नहीं है। 2019 में जब केंद्र सरकार ने नागरिकता कानून में बदलाव कर संविधान के चरित्र को प्रभावित करने की कोशिश की तो उसके विरोध में देश भर में आंदोलन हुए और उस आंदोलन में सामूहिक नेतृत्व की एक संस्कृति का विस्तार होते देखा गया। दुनिया भर में आंदोलनों के इतिहास में दर्ज होने वाले भारत के इन दो अनूठे आंदोलनों में सामूहिक नेतृत्व की वजह से सरकार को कई नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, क्योंकि वह उसकी राजनीतिक संस्कृति के अनुभव से परे हैं। यह कहा जा सकता है कि सामूहिक नेतृत्व की संस्कृति की वजह से सरकार को आंदोलनों से निपटने के लिए अपनी मशीनरी की ताकत और दुष्प्रचार जैसे हथकंडों पर आश्रित होना पड़ा।

इन दो आंदोलनों से पहले 2018 में 2 अप्रैल को जब देश भर में सामाजिक संगठनों ने अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण कानून के चरित्र में सुप्रीम कोर्ट द्वारा किए गए फैसले के बाद भारत बंद का आह्वान किया गया था तो वह देशव्यापी बंद सामूहिक नेतृत्व की वजह से सफल हुआ। बंद के इस कार्यक्रम की घोषणा जब की गई थी तब सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं लिया था। इसकी वजह एकल नेतृत्व की राजनीतिक संस्कृति से सत्ता का ग्रस्त होना था। इस आंदोलन का असर देखकर सत्ता मशीनरी को दमन का सहारा लेना पड़ा। साथ ही सत्ता समर्थक सामाजिक शक्तियों को भी दमन की कार्रवाइयों में उतरना पड़ा।

आखिर सत्ता संस्कृति क्या है

सत्ता की राजनीति एक नायक के इर्द-गिर्द घूमने वाली संस्कृति के रुप में विकसित हुई है। ब्रिटिश सत्ता की गुलामी के विरूद्ध आंदोलन के सामूहिक नेतृत्व देश के विभिन्न हिस्सों में स्थानीय स्तर पर उभरते दिखते हैं। सामूहिक नेतृत्व की संस्कृति भारतीय गणतंत्र के लिए स्वभाविक मानी जाती है। लेकिन सत्ता का जोर एक नेतृत्व की राजनीतिक संस्कृति पर बना रहा। सत्ता के विकेन्द्रीकरण के बदले केन्द्रीकरण की नीति पर जोर रहा। और सत्ता का अर्थ केवल दिल्ली की संसद और सरकारी कार्यालयों तक सीमित नहीं है। यह सत्ता हर स्तर पर मौजूद है।

जैसे समाज को सांस्कृतिक स्तर पर सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली फिल्मों की बुनावट पर नजर डाली जा सकती है। राजनीति और फिल्मों में समानांतर एक नायक की संस्कृति विकसित होती दिखती है। राजनीति और फिल्मों में नायक के बाद महानायक और महाशक्ति के रूप में उस संस्कृति को भी विस्तारित होते देखा जा सकता है। दरअसल गणतंत्र एक सृजन की संस्कृति की जरूरत पर बल देता है, जबकि राजा की तरह नायक वाले तंत्र के लिए भक्ति की संस्कृति की जरूरत होती है।

डा. अम्बेडकर का गणतांत्रिक संविधान लागू करने के बाद पहला भाषण

“26 जनवरी, 1950 को भी भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र होगा। पर उसकी स्वतंत्रता का भविष्य क्या है? क्या वह अपनी स्वतंत्रता बनाए रखेगा या उसे फिर खो देगा? मेरे मन में आने वाला यह पहला विचार है। यह बात नहीं है कि भारत कभी एक स्वतंत्र देश नहीं था। विचार बिंदु यह है कि जो स्वतंत्रता उसे उपलब्ध थी, उसे उसने एक बार खो दिया था। क्या वह उसे दूसरी बार खो देगा? यही विचार है जो मुझे भविष्य को लेकर बहुत चिंतित कर देता है।” डा. अम्बेडकर अपने इस प्रश्न का जवाब अपने इस लंबे भाषण में इस रुप में देते हैं- “भारत जैसे देश में यह बहुत संभव है- जहां लंबे समय से उसका (प्रजातंत्र) उपयोग न किए जाने को उसे एक बिलकुल नई चीज समझा जा सकता है कि तानाशाही प्रजातंत्र का स्थान ले ले। इस नवजात प्रजातंत्र के लिए यह बिल्कुल संभव है कि वह आवरण प्रजातंत्र का बनाए रखे, परंतु वास्तव में वह तानाशाही हो।”

डा. अम्बेडकर प्रजातंत्र को खोने का खतरा क्यों देख रहे थे जबकि उसी वक्त भारतीय समाज में ‘स्वतंत्रता’ का दावा पेश किया गया? सत्ता की संस्कृति का आधार समाज में आमतौर पर व्याप्त संस्कृति पर निर्भर होता है। पुरुष वर्चस्व वाली वर्ण व्यवस्था पर आधारित भारतीय समाज में नायक की संस्कृति की जड़ें बेहद गहरे स्तर पर पहुंचाई गई हैं। ब्रिटिश सत्ता के हस्तांतरण के बाद भारतीय समाज में व्याप्त इस संस्कृति को सत्ता ने अपना आधार बनाया। नायक की संस्कृति का विस्तार महानायक तक पहुंचने के साथ हम ये भी देख सकते हैं कि कैसे सत्ता का हर स्तर पर केन्द्रीकरण हुआ है। हर स्तर पर हम ‘एक’ की बात करते हैं। यह केवल नया उदाहरण है कि एक राष्ट्र, एक चुनाव की जरूरत पर जोर देने लगे।

संसद में 543 सदस्य जरूर बैठते हैं। मतदाताओं ने इनका चुनाव किया है, लेकिन वास्तविकता यह है कि मतदाताओं ने आज की राजनीति के महानायकों के प्रतिनिधियों को चुनकर भेजा है। कई सांसदों से ये सुना गया कि उन्हें आम लोगों के बीच जाने की जरूरत ही क्या है। उनकी कोशिश होती है कि वे अपने महानायक की भक्ति में खरे उतरने का हर संभव प्रयास करते रहें। ऐसे में सिर्फ चुनावी विजय नहीं, बल्कि महाविजय होती है। डा. अम्बेडकर भी अपने भाषण में प्रजातंत्र के आवरण वाली तानाशाही की आशंका के साथ यह जोड़ते हैं- “चुनाव में महाविजय की स्थिति में इसके (तानाशाही) यथार्थ बनने का खतरा अधिक है।”

इसके साथ ही डा. अम्बेडकर यह भी जोड़ते हैं-“ जॉन स्टुअर्ट मिल की उस चेतावनी को ध्यान में रखना, जो उन्होंने उन लोगों को दी है, जिन्हें प्रजातंत्र को बनाए रखने में दिलचस्पी है, अर्थात अपनी स्वतंत्रता को एक महानायक के चरणों में भी समर्पित न करें या उस पर विश्वास करके उसे इतनी शक्तियां प्रदान न कर दें कि वह संस्थाओं को नष्ट करने में समर्थ हो जाए।''

सत्ता को यहां कतई सीमित अर्थो में नहीं लिया जाना चाहिए। सत्ता का अर्थ यहां उस संसदीय संस्कृति से है जो कि तमाम पार्टियों के बीच एक सामान आपसी प्रतिस्पर्द्धा के रुप में मौजूद है। वह संसदीय संस्कृति पार्टियों के अस्तित्व के लिए एक महानायक पर निर्भरता है। पार्टियों में पारदर्शिता और सदस्यों की सहमति से ढांचा निर्मित करने की किसी प्रक्रिया की कोई जरूरत ही नहीं रह गई हैं। ऐसी पार्टियों के नेतृत्व में प्रशासनिक सत्ता संविधान के गणतांत्रित मूल्यों और योजनाओं के लिए अपेक्षित किसी भी मुहिम या आंदोलन को स्वीकार करने को तैयार नहीं होती है।

कहा जा सकता है कि भारतीय गणतंत्र के लिए स्थापित सत्ता ने नायकों के नेतृत्व वाले आंदोलनों को साध लेने में अपनी क्षमता को अचूक मान लिया है। आंदोलन ही नहीं संसदीय राजनीति की प्रतिस्पर्द्धा करने वाली उन पार्टियों के महानायकों को भी साध लेने की अपनी क्षमता जाहिर की है जो सामाजिक और सांस्कृतिक वर्चस्व के लिए चुनौती साबित हो सकते हैं। उदाहरण के लिए सामाजिक न्याय की धारा की पार्टियों के महानायकों की तरफ ध्यान दिया जा सकता है, जिन्हें प्रशासनिक भय से खामोश रहने और समझौता करने के लिए बाध्य किया जाता है। ऐसा इसीलिए होता है कि सामाजिक न्याय के महानायक केवल संवैधानिक मूल्यों का भावनात्मक दोहन करना चाहते हैं। उनकी राजनीतिक संस्कृति में कोई अंतर नहीं है। ऐसी सत्ता संस्कृति की वजह से ही उन आंदोलनों से निपटने के लिए सत्ता को नई चुनौतियों का अनुभव होता है, जो आंदोलन किसी एक महानायक के नेतृत्व का मोहताज नहीं होता है।

उभरते आंदोलनों से गणतांत्रिक भारत के प्रति उम्मीदें

आंदोलनों ने गणतांत्रिक भारत के प्रति उम्मीदें बनाए रखी हैं। खासतौर से किसी एकल नेतृत्व के नाम से जाने जाने वाले आंदोलनों के कुल नतीजों के बीच जनित अनुभवों के बाद सामूहिक नेतृत्व वाले आंदोलनों ने यह भरोसा दिया है कि भारत को एक गणतंत्र के रुप में फिर से सृजित किया जा सकता है। वैसे हर आंदोलन लोकतंत्र के लिए उत्पाद तैयार करता है । ब्रिटिश सत्ता विरोधी आंदोलनों ने लाखों की तादाद में संवैधानिक संस्कृति के प्रति सचेत मूल्यों से लैस कार्यकर्ता तैयार किए। इसके बाद के आंदोलनों ने भी लोकतंत्र को बनाए रखने वाली कतारें खड़ी की।

लेकिन हाल के वर्षों में जिस तरह से महानायकत्व की संस्कृति का वर्चस्व बढ़ा है, उसके सामानांतर बहु नेतृत्व या गणतांत्रिक नेतृत्व की एक संस्कृति का विकास हुआ है। हालांकि, पिछले जिन तीन आंदोलनों की यहां चर्चा की गई है, ऐसे आंदोलन इसी संख्या तक सीमित नहीं हैं। हाल के वर्षों में कई स्तरों पर आंदोलन हुए हैं, वे सभी किसी एक महानायक के नाम से नहीं जाने जाते हैं।

वर्तमान किसान आंदोलन के नेतृत्व की संस्कृति गणतंत्रात्मक है, जबकि महानायकत्व वाली संसदीय संस्कृति में किसान आंदोलन को लेकर एक समझ यह बन रही है कि किसान आंदोलन की वजह से ज्यादा से ज्यादा हरियाणा और पंजाब की तीस सीटों का नुकसान हो सकता है। आंदोलन को महज सीटों के नुकसान और लाभ में देखने की यह संस्कृति सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों का हिस्सा है। प्रजातंत्र में समाज अपने अनुकूल गणतंत्रात्मक राजनीतिक संस्कृति विकसित करने की तरफ बढ़ रहा है।

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