लोकतंत्र लोगों से बनता है, हुक्मरानों का मोहताज नहीं

हमारी संस्थाएं मजबूत इरादे से हमारे पूर्वजों ने स्थापित की थीं। मगर वे अब भी विधायिका की नेकनीयती पर निर्भर करती हैं। यह खतरे से खाली नहीं होता।

लोकतंत्र लोगों से बनता है, हुक्मरानों का मोहताज नहीं
लोकतंत्र लोगों से बनता है, हुक्मरानों का मोहताज नहीं
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मीनाक्षी नटराजन

संदर्भ चुनाव का है। दुनिया के सबसे बड़े दो लोकतांत्रिक मुल्कों में चुनावी प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। एक में प्राइमरी के लिए प्रचार जोरों पर है। भारत में तारीख घोषित हो चुकी है। ऐसे में हुक्मरानों की भाषा, और उनके भाषण पर गौर करना आवश्यक है।

भारत में किसी भी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को क्या कहकर नवाजा जाता है, सर्वविदित ही है। जनवरी में हुए उद्घाटन के बहाने विध्वंस की वाणी प्रचारित हुई। वह दिल दहलाने वाली थी। कहा जा रहा है कि पांच सौ साल की जंग लड़कर फतह हासिल की गई है। यह जंग लड़ी किससे गई थी? पांच सौ साल पहले के किसी बादशाह के कथित कृत्य का बदला किससे लिया जा रहा था? किसी मुफलिस चूड़ी वाले, किसी मंदिर की चौखट पर प्यास बुझाने के लिए आए प्यासे व्यक्ति से, किसी अखलाक से? किससे? इनमें से कौन पांच सौ साल पहले के हमलावर बादशाह का वंशज है? खैर, इस जंग के प्रचार पर वजीरे आला खामोश रहे। जैसे ही चुनावी बॉण्ड पर उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया, तो काबू नहीं रख पाए। न्याय प्रक्रिया पर बरस पड़े।

इधर, हुकूमत नागरिकता का नया कानूनी अध्यादेश ला ही रही है जहां उन पांच सौ साल पूर्व के हमलावर या बादशाह की कथित बिरादरी को छोड़ सबके लिए जगह है। यह तो हुई एक बड़े लोकतंत्र की बात।

दूसरे मुल्क की कहानी भी ऐसी ही हो जाएगी, सोचा नहीं था। कुछ ही दिन पहले अमेरिकी नागरिक अपनी तेरह साल की भांजी का स्कूली कार्यक्रम देखा। मॉक ट्रायल की स्कूली प्रतियोगिता थी। प्रत्येक टीम में विभिन्न राष्ट्रों के मूलवंशी अमेरिकी नागरिक किशोरों को देख मन भाव विभोर हुआ। क्या हम ऐसे होंगे कभी? ऐसे होते तो थे कभी। इसलिए समावेशी संविधान लिखा गया।

गोया कि अमेरिकी अधिनायकत्व ने कभी प्रभावित नहीं किया। उनकी सामरिक नीति के दोगलेपन के हमेशा दर्शन किए। एक तरफ लोकतंत्र की पैरोकारी, दूसरी तरफ कठपुतली शासक बिठवाकर ईंधन के स्रोतों पर कब्जा करना सबको दिखता है। मगर यह भी गौरतलब है कि इसकी मुखालिफत उसी भूमि पर पुरजोर ढंग से अनेक लेखक, चिंतक, राजनीतिक अभ्यर्थी करते आए हैं। बिना देशद्रोही कहाए। ऐसा लगता था कि लोकतंत्र की बुनियाद में जिस संस्थागत मजबूती की जरूरत है- जैसे स्वायत्त न्याय व्यवस्था, आजाद मीडिया, स्वतंत्र प्रशासन, वह अमेरिकी लोकतंत्र की ताकत है और कभी तानाशाही को पनपने नहीं देगी।


हमारी संस्थाएं मजबूत इरादे से हमारे पूर्वजों ने स्थापित की थीं। मगर वे अब भी विधायिका की नेकनीयती पर निर्भर करती हैं। यह खतरे से खाली नहीं होता। यह सोचते-सोचते याद हो आया कि 2006 में जब मुझे न्यूयॉर्क जाने का अवसर मिला, तब मैं एक ही जगह देखना चाहती थी- स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी। उसके नीचे लिखी पंक्तियों ने हमेशा मन में दस्तक दी है। जहां एम्मा लजारस कहती हैं- "थके, गरीब आजादी में सांस लेने को आतुर जन समूह, बेघर, त्यागे हुए, तूफान के कहर से जूझते जनों को मेरे पास दे दो। स्वर्ण द्वार के समीप मैं मशाल को थामे खड़ी हूं।" माने एक ऐसा लोकतंत्र जो दुनिया भर के सताए पीड़ितों, शरणार्थियों का आशियाना बनने का स्वप्न रंजन करता था। ऐसे एक आजाद खयाल समझे जाने वाले मुल्क के पूर्व राष्ट्रपति वर्तमान में प्रत्याशी की दौड़ में शामिल व्यक्ति की चेतावनी कई सवाल पैदा करती है। ओहियो में अपना चुनाव प्रचार करते हुए वह कहते हैं कि उनके चुने नहीं जाने से रक्तपात की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इसको क्या कहा जाएगा? यह भविष्यवाणी है या आगाह किया जा रहा है कि खबरदार, चुना नहीं गया तो परिणाम दुःखद होगा। उसी भाषण में उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें कुछ जनसमूह तो 'लोग' नहीं लगते। वे 'लोग' नहीं हैं, शायद पशु हैं। एक जमाने में मुल्क के हुक्मरान ऐसी भाषा नहीं बोला करते थे। ऐसे वक्तव्य देने वाले को अपवाद माना जाता था। सत्य के चूक जाने की सदी में इस बयान को कैसे देखा जाए! इन्हीं महानुभाव के अहमदाबाद आगमन पर झुग्गी बस्तियों को ढंक दिया गया था। कथित मानवेतर समूह को नजर से ओझल रहना चाहिए।

हुक्मरान तय करेंगे कि किन्हें वे 'लोग' की संज्ञा देंगे? वे जो आज्ञाकारी हों, जो वैसे रहें जैसे संभ्रांत मानस को भाए। बस, उन्हें वे लोग मानेंगे। उत्तर सत्य काल की यह नई विचार व्यवस्था है जहां सत्य को कुर्बान करने से किसी हुक्मरान को गुरेज नहीं। याद हो आया कि देश के पहले प्रधानमंत्री ने अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लीडल हार्ट को उद्धृत किया है। हार्ट कहते हैं कि सामरिकता के लिए सत्य को कभी बलि नहीं चढ़ाई जानी चाहिए। खासतौर पर जब वह किसी नए विचार के रूप में सामने आए, तब उसका विरोध बहुत होगा। परोक्ष रूप से उसकी पेशकश हो सकती है ताकि सत्य को सीधे तकरार से बचाकर विभिन्न पक्षों के लिए सुग्राह्य बनाया जाए। लेकिन सत्य के साथ समझौता करने से विचार ही समाप्त हो जाएगा। वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा। उस समय बापू की अडिगता कई राजनेताओं को सुहाती न थी। तब ऐसे जननेता भी थे जो सत्य को त्यागे बिना उसे सर्व स्वीकार्य बनाते थे। पर ये उन दिनों की बात थी जब हुक्मरान उत्तर सत्यकाल के प्रतिनिधि नहीं थे। वे इस सत्य से मुंह नहीं फेरते थे कि हर मानव, हर जीव सम है। प्रसिद्ध आदिवासी लेखिका जसिंता कहती हैं कि "उन्हें हमारे सभ्य होने का इंतजार है, हमें उनके मनुष्य होने का।"

महान लोकतांत्रिक मुल्कों के शासनाकांक्षियों को क्या कहा जाए? एक के पास छप्पन इंच का सीना है, मगर बड़ी तंगदिली है। दूसरे से यही कहना होगा कि तुम्हें कुछ लोग, लोग कहलाने लायक नहीं लगते। पर आप इंसान कहलाने लायक तो होना चाहते होंगे। लोकतंत्र लोगों से बनता है। हुक्मरानों का मोहताज नहीं होता।

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