सरकार के बढ़ते दमन चक्र के चलते लोकतंत्र अब पूरी तरह से लॉकडाउन में है!

अर्थव्यवस्था की ही भांति लोकतंत्र भी हाल के वर्षों में अनवरत रूप से हमलों का सामना कर रहा है। कार्यपालिका संवैधानिक नींव और लोकतंत्र की संरचना का लगातार मजाक बना रही है। विधायिका और न्यायिक शक्तियां इसकी रोकथाम में या तो अनिच्छुक हैं या फिर अक्षम हैं।

फोटो: IANS
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लॉकडाउन और अनलॉक को अबाधित रूप से चलते हुए तकरीबन पांच महीने हो गए हैं। लॉकडाउन से हुए आर्थिक नुकसान पर बहस भी जारी है लेकिन जो अर्थव्यवस्था पहले से ही गिरावट पर थी, वह इस लॉकडाउन के कारण पूरी तरह सिकुड़ गई है। जो लोग पहले से हाशिये का जीवन जी रहे थे, उनके सामने अब मात्र जीवित भर रहने का संकट खड़ा हो गया है। जैसे- जैसे कोविड-19 का प्रकोप बढ़ता जा रहा है, उसके साथ स्वास्थ्य संकट, भय, बैचेनी और सामाजिक लांछन (सोशलस्टिग्मा) भी बढ़ रहा है और हमारे सामने एक बहुत बड़ी सामाजिक या मानवीय आपदा आ खड़ी हो गई है। लेकिन एक और संकट है जो चुपचाप बल्कि खतरनाक रूप से गहरा रहा है, वह है- भारतीय लोकतंत्र का संकट।

अर्थव्यवस्था की ही भांति लोकतंत्र भी हाल के वर्षों में अनवरत रूप से हमलों का सामना कर रहा है। कार्यपालिका संवैधानिक नींव और लोकतंत्र की संरचना का लगातार मजाक बना रही है। विधायिका और न्यायिक शक्तियां इसकी रोकथाम में या तो अनिच्छुक हैं या फिर अक्षम हैं। राज्यका दमनकारी तंत्र इस तरह से असहमतिका गला घोट रहा है जो निश्चित रूप से हमारे औपनिवेशक शासकों को गौरवान्वित करता।


सोशल मीडिया पर ट्रोल सेनाएं और जमीन पर निगरानी गिरोह (विजिलेंटफोर्सेज) इसमें सहयोग ही नहीं कर रहे हैं बल्कि इसकी गति/शक्ति को बढ़ा रहे हैं। प्रभावशाली टेलीविजन मीडिया आगे बढ़कर इस जुल्म को भड़का रहा है और जय-जयकार भी कर रहा है। साथ ही वह पूरी उदारता के साथ झूठ और समाचारों को विकृत करते हुए सहमति के निर्माण और लोगों की राय को तरोड़-मरोड़ कर सातों दिन चौबीस घंटे लगातार चीखते-चिल्लाते हुए मीडिया ट्रायल के जरिये पेश करने में महारत हासिल कर रहा है। लोकतंत्र अब पूरी तरह से लॉकडाउन में है। कश्मीर में अब यह स्थायी भाव बन चुका है। अब हम देशभर में लोकतंत्र की तालाबंदी को इसी तरह से पसरते हुए देख सकते हैं। लॉकडाउन की यह प्रवृत्ति संसद के निरर्थक और प्रतीकात्मक बन जाने का खतरा लगातार पैदा कर रही है। मंत्रिमंडलया विशेषकर प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से लिए जाने वाले बड़े-बड़े फैसलों और नीतियों की घोषणा बिना संसदीय विचार-विमर्शया जांच-पड़ताल के ही कर दी जाती हैं।

विरोध प्रदर्शन करने और अपनी शिकायतों को बताने के लिए जनता के पास जो सामान्य तरीके उपलब्ध थे, उन्हें भी इस लॉकडाउन के इस रूप ने उनसे छीन लिया है। जब लोगों को उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करने से प्रभावशाली तरीके से रोक दिया जाता है तो राज्य इस अवसर का उपयोग नागरिकों की बाड़े बंदी करने, उन्हें खामोश कर देने तथा किसी भी प्रकार की असहमति को दंडित करने के रूप में करता है। जो यह चलन उभरकर सामने आ रहा है, इसे कुछ उदाहरणों द्वारा समझने का प्रयास करते हैं। सरकार ‘आत्मनिर्भर भारत’ के छद्मावरण के रूप में आक्रामक निजीकरण और अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से कॉरपोरेट के लिए खोलने की घोषणा कर चुकी है। राज्य सरकारें श्रमिकों के अत्यधिक महत्वपूर्ण अधिकारों को स्थगित कर चुकी हैं। पर्यावरण मंत्रालय पर्यावरण प्रभाव आकलन के मामलों में प्रभावित लोगों की किसी भी तरह की आवाज को खत्म करने पर उतारू है। कृषि उत्पादन और मार्केटिंग पर पूरी तरह से कॉरपोरेट के नियंत्रण के लिए अध्यादेशों की घोषणा की गई है। और जिस नई शिक्षा नीति की घोषणा की गई है, वह विद्यार्थियों के प्रवेश और पहुंच को बढ़ाने के बजाय उनके निष्कासन और बहिष्कार को सुगम बनाती है।

जब कोविड-19 निवारण प्रोटोकॉल के तहत धार्मिक और राजनीतिक सभाएं वर्जित हैं, तब सरकार अयोध्या में भूमिपूजन के साथ आगे बढ़ती है और उसे एक सरकारी कार्यक्रम में तब्दील कर देती है जिसमें पहली बार प्रधानमंत्री जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष संविधान की शपथ ली है, उसे किनारे करते हुए मंदिर की नींव रखते हैं।


वैश्विक महामारी की स्थितिको देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भारत की बेतहाशा भरी हुई जेलों का भार कम करने के लिए कैदियों को पेरोल और जमानत देने की सिफारिश की थी। लेकिन उसकी अनदेखी करते हुए सरकार ने यह समय नागरिकों की मनमाने ढंग से गिरफ्तारियां करने और उन्हें जेलों में ठूसने के लिए चुना। गंभीर स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझते वरिष्ठ नागरिक कैदियों (वरवर राव, जी.एन. साईबाबा, शोमा सेन, सुधा भारद्वाज- ये केवल चार नाम हैं) को रिहा करने के बजाय तीन और अकादमिशियनों और लेखकों (आनंद तेलतुम्बड़े, गौतम नवलखा, हैनी बाबू) को भीमा-कोरेगांव मामले में गिरफ्तार किया गया और अन्य लोगों से भी पूछताछ की गई है जबकि इस मामले की साजिश रचने वाले असली षडयंत्रकारियों को खुला छोड़ दिया गया है।

इसी तरह से, उत्तर-पूर्वी दिल्लीमें हुई हिंसा की पूरी जांच संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ आंदोलन चलाने वालों के दमन करने में तब्दील हो चुकी है। हिंसा भड़काने वाले बीजेपी के नेताओं को जांच के दायरे से बाहर रखा गया है जबकि विद्यार्थियों, अकादमिशियनों और जाने-माने राजनीतिक एवं सिविल सोसायटीके कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया जा रहा है और पूछताछ की जा रहीहै। इस दौरान ऐसे बड़े सारे अवसर थे जब सुप्रीम कोर्ट को आम लोगों पर किए जा रहे गहरे अन्याय पर स्वतः संज्ञान लेना चाहिए था। प्रवासी मजदूरों के साथ किया गया निर्मम व्यवहार, लॉकडाउन के दौरान असहाय लोगों पर की गई पुलिस की ज्यादतियां और यूपी पुलिस द्वारा गढ़ी गई मनगढ़ंत कहानियों के आधार पर किए गए फर्जी एनकाउंटर- ये चंद विस्फोटक उदाहरण हैं।

लेकिन जहां सुप्रीम कोर्ट इन सभी मामलों में न्याय के कारणों की ओर बेरुख बना रहा, वहीं जनहित मामलों के जाने-माने वकील प्रशांत भूषण के मात्र दो ट्वीट ने सुप्रीम कोर्ट के अंदर इतनी फूर्ति भर दी कि उसने पूरी तत्परता से प्रशांत भूषण को कोर्ट की अवमानना का दोषी पाया। सुप्रीम कोर्ट की आलोचना और अवमानना के बीच भेद न कर पाने की क्षमता असहमति के अधिकार को बहुत बड़ा धक्का है क्योंकि इसके बिना लोकतंत्र अपना अर्थ ही खो देता है। जब किसी भी प्रकार की सामान्य सार्वजनिक गतिविधियां करीब-करीब स्थगित हैं, राजनीतिक सभाओं की अनुमति नहीं है और अधिकतर लोग महामारी, बाढ़ और लॉकडाउन के तीन तरफा हमले से मात्र जीवित रहने की लड़ाई लड़ रहे हैं, तब क्या यह संभव है या फिर उचित है कि हम बिहार-जैसे राज्य में विधानसभा के चुनाव की ओर आगे बढ़ें? चुनाव आयोग यह मानता है कि यह महामारी कोई इतनी बड़ी आपदा नहीं है कि इसके कारण चुनाव टाल दिए जाएं, इसलिए बिहार इस बढ़ती महामारी के मध्य में एक डिजिटल प्रभुत्व वाली चुनावी क्रिया के लिए पूरी तरह तैयार है।


एक निरंकुश सत्ता जो संसद की अनदेखी करते हुए नीति को आक्रामक रूप से आगे बढ़ा देती हो, एक पुलिस मशीनरी जो बिना किसी रोक टोक से सत्ताधारी पार्टी के हित में काम कर रही हो, एक न्यायपालिका जो किसी वकील द्वारा किए गए ट्वीट से आक्रामक हो जाती हो किंतु वास्तविक अन्याय और संवैधानिक हिंसा की ओर से मुंह फेर लेती हो, एक चुनाव आयोग जो लोगों के स्वास्थ्य और भागीदारी की चिंता किए बिना बस चुनाव करवाने पर तुला हो– यह भारतीय लोकतंत्र के लॉकडाउन मोड का उभरता स्वरूप है। जाहिर है कि सरकार इस लॉकडाउन मोड के जितना हो सके, उतने अनिश्चितकालतक बने रहने से बहुत खुश है। मीडिया भी चाहेगा कि हम यह विश्वास कर लें कि भारतीय लोग भी इस स्थिति का आनंद ले रहे हैं और एक जाना-माना मीडिया हाउस हमें यह ओपिनियन पोल दिखा रहा है कि प्रधानमंत्री अभी भी जनता के बीच बेहद लोकप्रिय (78 प्रतिशत रेटिंग) हैं जब कि लोग अपने दैनिक जीवन में रसातलतक पहुंच चुके हैं। लेकिन मीडिया की चकाचौंध से दूर लोगों में अभी भी असहमति और लोकतंत्र बहुत हद तक जिंदा है। राज्य के ‘स्टेएटहोम’ और ‘वर्कफ्रॉम होम’ के फरमान को मानते हुए लोगों ने विरोध का एक नया तरीका इजाद किया: ‘प्रोटेस्टफ्रॉम होम’। वे किसी भी मुद्देपर खामोश नहीं रहे।

सरकार की निजी कंपनियों द्वारा कॉमर्शियल कोल माइनिंग की घोषणा का स्वागत कोयला कामगारों ने तीन दिन की हड़ताल करके किया। कृषि के लिए जारी अध्यादेशों के विरोध में किसानों ने जबरदस्त प्रदर्शन किया। आशा कार्यकर्ता जो भारत में कोरोना योद्धा की अग्रिम पंक्ति हैं, उन्हें पीपीई किट्स और मूलभूत सुविधाओं एवं अधिकारों के बिना ही काम करना पड़ रहा है, उन्होंने अन्य योजनाओं के कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर दो दिन की हड़ताल की। माइक्रोफाइनेंस सूदखोरी से प्रताड़ित महिलाओं ने देशभर में कर्ज से मुक्ति की मांग की। नौ अगस्त और 15 अगस्त को कामगारों, किसानों और विद्यार्थियों ने एकजुट होकर भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की सच्ची विरासत को सलाम करते हुए संविधान और भारत को बचाने का संकल्प लिया।

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