आकार पटेल का लेख: निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव का नारा सिर्फ छलावा, धांधली और फिक्सिंग की आशंका

मोदी लोकतंत्र की जननी जैसे बड़े-बड़े मुहावरे गढ़ सकते हैं लेकिन पिछले कुछ समय से यह स्पष्ट हो गया है कि यह न केवल झूठ है बल्कि एक मजाक भी है।

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आकार पटेल

यह कोई स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव नहीं हैं। इस चुनाव में होने वाली धांधलियों और पहले से नतीजे तय किए जाने की अनुगूंज नरेंद्र मोदी के सत्ता में तीसरे कार्यकाल में बहुत जोर से सुनाई देगी। इस चुनाव ने हमारे लोकतंत्र को काफी नुकसान पहुंचाया है और आगे भी नुकसान पहुंचाता रहेगा।

यह चुनाव धांधली भरे होंगे, इसे समझने के लिए किसी को बहुत ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है। दो मुख्यमंत्री जेल में हैं। आखिर क्यों? इसलिए नहीं कि उन्हें किसी अदालत ने सजा सुना दी है, लेकिन इसलिए कि उन्हें उन एजेंसियों ने जेल में डाला है जिनका नियंत्रण मोदी के हाथ में है। कांग्रेस पार्टी के खाते फ्रीज कर दिए गए हैं। आखिर क्यों? इसलिए नहीं कि उसने बहुत बड़ी गड़बड़ी की है और उसे सजा मिली है, लेकिन इसलिए क्योंकि उसका मामला ऐसी एजेंसी के हाथ में है जिसका नियंत्रण मोदी के हाथ में है। इन्हीं एजेंसियों ने पहले जिन लोगों पर मामले दर्ज किए थे, उन्हें बीजेपी और एनडीए के साथ आने के बाद क्लीनचिट दी जा चुकी है।

किसी भी वास्तविक लोकतंत्र में ऐसा नहीं होता है। अभी तो हमने इलेक्टोरल बॉन्ड घोटाले की बात ही नहीं की है। और सबसे अजीब बात यह है कि अधिकांश लोगों को लगता है कि 2024 में नरेंद्र मोदी की सत्ता में वापसी होगी, तो फिर इस पर हो-हल्ला क्यों किया जाए। शायद मोदी हैं है ऐसे। यह उन लोगों के लिए सबसे स्वाभाविक व्याख्या है जिन्होंने घटनाओं के क्रम को ध्यान से देखा है जिनके कारण यह सब हो रहा है।

इनमें बाहरी दुनिया और खासतौर से वे संस्थान भी शामिल हैं जो लोकतंत्र का अध्ययन करते हैं। वे सालों से हमें बता रहे हैं कि भारत पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है, कि इसका लोकतंत्र नीचे फिसल चुका है, कि भारत में तानाशाही जैसा माहौल है।

यूनिवर्सिटी ऑफ गोथेनबर्ग के वी-डेम ने भारत को2018 में 'चुनावी निरंकुशता' वाले देश के रूप में वर्गीकृत किया। मार्च में जारी अपनी 2024 की रिपोर्ट में, उसने कहा कि भारत 'सबसे बदतर निरंकुश देशों में से एक' है। 2020 में, इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट ने भारत को यह कहते हुए 'त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र' के रूप में वर्गीकृत किया कि वहां '2015 से लोकतांत्रिक मानदंडों पर दबाव है।


वाशिंगटन स्थित थिंक टैंक फ्रीडम हाउस ने 2021 में कहा कि भारत स्वतंत्र नहीं बल्कि ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ है। तब से ही फ्रीडम हाउस में भारत की यह रेटिंग बरकरार है।

फ्रीडम हाउस की रेटिंग पर भारत सरकार की प्रतिक्रिया एक प्रेस विज्ञप्ति से सामने आई थी, जिसमे कहा गया था कि, ‘भारत के संघीय ढांचे के तहत देश के कई राज्यों में ऐसी पार्टियों का शासन है जोकि राष्ट्रीय स्तर से अलग हैं, और ऐसा स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन संस्था द्वारा कराए गए चुनाव से संभव हुआ है। किसी भी सजीव लोकतंत्र की कार्यप्रणाली की यह मिसाल है, जिसमें विभिन्न मतों और विचारधारा वाले गुटों और व्यक्तियों को जगह दी जाती है।’

यह बेईमानी भरा बयान था। फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट दो हिस्सो में थी। पहले हिस्से में 40 फीसदी आधार राजनीतिक अधिकारों को दिया गया था। इस मामले में भारत को 40 में से 34 अंक मिले थे (2023 में यह अंक गिरकर 33 हो गए थे), जिसमें स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता, राजनीतिक दल शुरु करने की स्वतंत्रता और विपक्षी दलों को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर दिए जाने को पूरे अंक दिए गए थे।

इस हिस्से में भारत को इस मामले में पूरे अंक नहीं मिले थे कि वोटिंग को हिंसा के जरिए सांप्रदायिक तनाव प्रभावित नहीं किया गया। इस पर तो क्या ही बहस हो। दरअसल पारदर्शिता के मामले में भारत को 4 में से 3 अंक मिले थे, जोकि शायद बहुत ही विनम्रता का द्योतक है।

सरकार की प्रतिक्रिया वैसे वही सबकुछ दोहरा रही थी जो कि मोटे तौर पर फ्रीडम हाउस ने कहा था। लेकिन जिन मोर्चों पर भारत की रेटिंग कम रही थी, वह था 60 फीसदी हिस्सा जिसमें नागरिक स्वतंत्रता आती है और जो स्वतंत्रता का भी हिस्सा है। इस मामले में भारत को 60 में से 33 अंक मिले थे। अभिव्यक्ति धर्म, शिक्षा और कहीं जमा होने की आजादी, एनजीओ के काम करने की आजादी (रिपोर्ट में मेरे संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया पर हमलों का जिक्र खासतौर से किया गया था), कानून का शासन, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और पुलिस द्वारा प्रक्रियाओं का पालन आदि में भारत की रेटिंग बेहद खराब रही थी। लेकिन इन मोर्चों पर हासिल स्कोर असलियत को पूरी तरह बयान नहीं करते।

दरअसल, जैसा कि पाठकों ने नोट किया होगा, भारत को उम्मीद करनी चाहिए कि राजनीतिक अधिकारों के मामले में, स्कोर अब कम हो जाएगा। आप अपने विरोधियों को जेल में डालें और यह दिखावा भी करें कि आप राजनीतिक अधिकारों वाले लोकतंत्र हैं, अब संभव नहीं है।

पहली बार जब भारत की रेटिंग गिरना शुरु हुई थी तो सरकार हड़बड़ा गई थी क्योंकि मोदी तो आश्वस्त थे कि अच्छा काम कर रहे हैं। सरकार ने अपने मंत्रालयों से उन मानकों की जानकारी मांगी जिसके आधार पर इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट ने भारत की रेटिंग को त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र की श्रेणी में वर्गीकृत किया था, हालांकि इस रिपोर्ट में कारण स्पष्ट रूप से सामने रखे गए थे। इसमें कहा गया था, ‘इसका प्राथमिक कारण नागरिक अधिकारों में गिरावट’ है और नागरिकता के मामले में धर्म को शामिल करना है। बहरहाल यह सब तो दिख ही रहा था, लेकिन अब न्यू इंडिया में जो कुछ हो रहा है, वह लोकतंत्र और उसकी प्रक्रियाओं पर सीधा हमला है।


ऐसे में चुनाव और उसके बाद हमें क्या आशा करनी चाहिए? अगर मोदी एक विशाल जनमत और 400 सीटों (जैसाकि वे दावा करते हैं) के साथ सत्ता में वापसी करते हैं, तो इन चुनावों को वैसे ही देखा जाएगा जैसा कि रूस और नॉर्थ कोरिया में होता है। इन चुनावों की कोई विश्वसनीयता नहीं होगी और पूरे कार्यकाल में यह बरकरार रहेगी।

दूसरी तरफ अगर उन्हें 2019 की तुलना में कम सीटें मिलती हैं और साधारण बहुमत ही मिलता है, तो विपक्ष आसानी से झुक नहीं पाएगा। वे जानते हैं कि वह उन्हें जेल में डालने के लिए सत्ता और पद का दुरुपयोग करेगा।

भारत बांग्लादेश जैसा बन गया है, जो कि एक ऐसा लोकतंत्र हैं जहां विपक्ष को काम करने की इजाजत नहीं है। यही स्थिति पाकिस्तान में भी हुई है।

मोदी लोकतंत्र की जननी जैसे बड़े-बड़े मुहावरे गढ़ सकते हैं लेकिन पिछले कुछ समय से यह स्पष्ट हो गया है कि यह न केवल झूठ है बल्कि एक मजाक भी है।

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