आकार पटेल का लेख: यह हैं कुछ वजहें जिनसे सुप्रीम कोर्ट के जज अपनी जिम्मेदारियों से नहीं बच सकते

हम में से कई को लगता है कि भारत ने एक ऐसे राजनीतिक दल के एक निर्विवाद नेता की अगुवाई में सरकार का नियंत्रण देने का रास्ता पकड़ लिया है। लेकिन यह रास्ता न तो संविधान के अनुरूप है और न ही देश की परंपराओं और आधुनिकता के मुताबिक।

फोटोः सोशल मीडिया
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आकार पटेल

अभी हाल ही में हमारे सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने विदेश में दिए लेक्चर के दौरान एक बेहद महत्वपूर्ण और चौंकाने वाले मुद्दे को उठाया। लीगल मामलों की एक वेबसाइट ने उनके भाषण की खबर लगाते हुए हेडलाइन में लिखा, “अगर नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए अदालतों को एकमात्र जगह माना जाता है, तो इसके नतीजे फिसलन भरे होंगे।”

जज (उनका नाम मैं नहीं दे रहा हूं क्योंकि इस मामले में यह बात कहने वाले की नहीं बल्कि बात की अहमियत है और हमें इसे समझना चाहिए) के बयान को लिखते हुए कहा गया कि, “देश में बढ़ती मुकदमेबाजी की प्रवृत्ति राजनीतिक विमर्श में धैर्य की कमी का संकेत है। यह नतीजा एक फिसलन भरी ढलान है, क्योंकि अधिकारों को नगारिकों को दिलाने के लिए अदालतों को ही व्यवस्था या सरकार का एकमात्र अंग माना जाता है, जिससे विधायिका और कार्यपालिका के साथ निरंतर आपसी संवाद की जरूरत खत्म होती है।”

इन शब्दों से एकदम स्पष्ट और साफ है कि इनका असली अर्थ क्या है? जज साफ तौर पर कह रहे हैं कि नागरिकों को अपने अधिकारों के लिए सरकार और चुने हुए प्रतिनिधियों के साथ बात करनी चाहिए। इस प्रक्रिया में अदालतें भी अहम हैं, लेकिन नागरिकों के अधिकारों की रक्षा या उन्हें अधिकार दिलाने की एकमात्र जगह नहीं हैं।

दरअसल ज्यादातर लोकतंत्र इसी तरह काम करते हैं, और न्यायिक प्रक्रिया और खासतौर से सुप्रीम कोर्ट नागरिकों के साथ संवाद या संपर्क का सिर्फ एक हिस्सा होते हैं। अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट साल में सिर्फ 80 केसों की ही सुनवाई कर उन पर फैसला देता है। लेकिन भारत में 70,000 मामले सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं। दोनों देशों की न्यायिक प्रक्रिया में इतना बड़ा अंतर स्पष्ट है जबकि हमारा जस्टिस सिस्टम मोटे तौर पर अमेरिकी सिस्टम की ही तरह काम करता है।
1949 में फैसला लिया गया था कि भारत के सुप्रीम कोर्ट में 8 से ज्यादा जज नहीं होंगे। (आर्टिकल 124)। अमेरिका में 9 होते हैं। भारत में आज 30 से ज्यादा सुप्रीम कोर्ट जज हैं। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट सारे मामलों की सुनवाई एक साथ यानी सभी जजों के साथ करता है। भारत में छोटी-छोटी बेंच हैं जो जमानत से लेकर संपत्ति विवाद तक के मामलों की सुनवाई करती हैं। अमेरिका में ऐसे मामले निचली अदालतों में ही निपटा दिए जाते हैं। भारत में ऐसा क्यों नहीं होता इसके कारण जाहिर हैं, इसलिए पूरे जस्टिस सिस्टम को नए सिरे से व्यवस्थित करने की जरूरत है।


चलिए इस बात को छोड़ते हैं, और जज ने जो कुछ कहा उस पर विचार करते हैं। देश के ज्यूडिशियल सिस्टम के नागिरकों के साथ गहरे जुड़ाव और संवाद के बावजूद आंकड़े बताते हैं और जज भी महसूस करते हैं कि देश में मुकदमेबाजी की प्रवृत्ति बढ़ रही है और राजनीतिक प्रक्रिया का नागरिकों के साथ जुड़ाव नाकाफी है। मेरी समझ से यह सही विश्लेषण है। लेकिन सवाल है कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है?

इसका जवाब इस बात में है कि देश की सरकार इस समय मनमानी पर उतारू है। अगर सरकार और इसे नियंत्रित करने वाला राजनीतिक दल बिना किसी मुकदमे या कोई आरोप सिद्ध हुए ही लोगों के घरों को नष्ट करना चाहता है, तो लोग कहाँ जाते हैं? एक जगह वे जा सकते हैं, क्योंकि सरकार तो खुद ही इस मामले में शामिल प्रतीत होती है। और हिंसा के लिए जिम्मेदार लगती है। वे विधायिका के पास जा सकते हैं, यानी विपक्षी दलों के पास जा सकते हैं और सरकार को इस सबका कारण बताने को बाध्य कर सकते हैं। लेकिन क्या भारत में ऐसा हो रहा है? और ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है कि नागरिक, सिविल सोसायटी समूह, एक्टिविस्ट आदि जो अदालत की शरण में जा रहे हैं उन्होंने सरकार से संवाद नहीं किया। ऐसा तो उन्होंने किया, लेकिन सत्ता में बैठे राजनीतिक दल की मंशा ही अगर प्रताड़ना हो तो क्या किया जा सकता है। ऐसे में प्रताड़ित करने वाले के साथ किस किस्म का संवाद स्थापित किया जा सकता है?

इस बारे में जज ने कुछ नहीं कहा। भाषण में कुछ और कहा गया, जोकि अधिकारों में बढ़ती खाई को न्यायसंगत ठहरता है। जज ने कहा, “सुप्रीम कोर्ट को नागरिकों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए लेकिन कोर्ट को ऐसे मुद्दों से दूर रहना चाहिए जिसमें चुने हुए प्रतिनिधियों की भूमिका हो। ऐसा करने से कोर्ट की संवैधानिक भूमिका कम होती है और लोकतांत्रिक समाज की कोई सेवा नहीं होती, यही असली मुद्दा है और इसीलिए ऐसे मुद्दों को जन संवाद, विमर्थ और नागरिकों के उनके प्रतिनिधियों के साथ जुड़ाव और संविधान के दायरे में होना चाहिए।”

जो कुछ कहा गया उसमें कोई असाधारण बात नहीं है। किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में नागरिकों को सरकार के सभी अंगों के साथ अर्थपूर्ण संवाद और जुड़ाव का मौका मिलना चाहिए ताकि उससे नतीजे निकल सकें। हालाँकि, यहाँ इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि न्यायपालिका का एक बुनियादी काम है कार्यपालिका यानी सरकार की मनमानी रोकना, खासतौर से तब जब इस तरह की मनमानी से भारत के संविधान को खतरा हो।


आज स्थिति यह है कि नागरिकों और चुनावी राजनीति में गुप्त चंदे के मामले कोर्ट तय नहीं करता है। कश्मीर पर भी याचिकाओं पर फैसला नहीं हुआ। दबाव का यही वह स्त्रोत है जिसके चलते टिप्पणीकार और एक्टिविस्ट न्यायपालिका का रुख करते हैं और शायद जज का इशारा इसी की तरफ था। हम में से कई को लगता है कि भारत ने एक ऐसे राजनीतिक दल के एक निर्विवाद नेता की अगुवाई में सरकार को नियंत्रण देने का रास्ता पकड़ लिया है। लेकिन यह रास्ता न तो संविधान के अनुरूप है और न ही देश की परंपराओं और आधुनिकता के मुताबिक।

बेशक विधायिका और कार्यपालिका सहित सरकार के सभी तंत्र ऐसे होने चाहिए जहां नागरिक अपने अधिकारों के लिए संपर्क कर सकें। लेकिन यह निर्विवाद प्रतीत होता है कि इस लड़ाई का प्राथमिक क्षेत्र न्याय प्रणाली में होना चाहिए जहां न्यायाधीशों को बड़े पैमाने पर और दुर्भावनापूर्ण सरकार के खिलाफ नागरिकों के लिए खड़ा होना चाहिए।

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