खरी-खरी: बदली राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों में कांग्रेस को जरूरत है एक नए सामाजिक विजन की

भारत इस समय एक कठिन दौर से गुजर रहा है। गांधीवादी-नेहरूवादी विचारों से ही नहीं बल्कि संवैधानिक मूल्यों से भी देश भटक चुका है। केवल नई राजनीतिक ही नहीं बल्कि नई सामाजिक स्थिति उत्पन्न हो चुकी है। ऐसे हालात में कांग्रेस को एक नए सामाजिक विजन की जरूरत है।

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ज़फ़र आग़ा

आखिर वही हुआ जो होना था। पिछले सप्ताह यह तय हो गया कि कांग्रेस पार्टी की कमान गांधी परिवार के ही हाथों में ही रहेगी। अब आप ही बताइए, क्या कांग्रेस की कमान गुलाम नबी आजाद को सौंप दी जाए! क्या शशि थरूर कांग्रेस को पुनर्जीवन दे सकते हैं! पूरी कांग्रेस पार्टी में गांधी परिवार के सिवाय क्या कोई है जिसके नाम पर स्वयं उसके जिले के बाहर एक हजार की भीड़ भी एकत्र हो सके। ऐसी दशा में यह तय ही था कि किसी को यह बात भली लगती है या बुरी, वर्तमान स्थिति में कांग्रेस का नेतृत्व गांधी परिवार ही कर सकता है। अतः पिछले सप्ताह पार्टी की कार्यसमिति की बैठक के बाद कांग्रेस नेतृत्व के बारे में जो भ्रम था, वह छंट गया है।

हां, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सन 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी में नेतृत्व को लेकर तरह-तरह के भ्रम उत्पन्न हो गए थे। पार्टी के अध्यक्ष पद से राहुल गांधी के त्यागपत्र के बाद पार्टी के एक महत्वाकांक्षी समूह को यह महसूस होने लगा था कि पार्टी नेतृत्व खाली है। फिर आलाकमान की ओर से भी स्पष्ट संकेत नहीं मिल रहे थे। इसके अतिरिक्त कांग्रेस पार्टी के भीतर एवं उसके बाहर लोगों को यह महसूस होने लगा था कि अब परिवार से छुट्टी मिल सकती है। अतः ‘परिवारवाद’ की आड़ में कांग्रेस नेतृत्व को निपटाने की मुहिम तेज हो गई।

मोदी जी तो स्वयं ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का ऐलान कर ही चुके हैं। अतः मीडिया भी राशन-पानी लेकर इस अभियान में कूद पड़ा। फिर राहुल गांधी के त्यागपत्र के बाद परिवार की ओर से नेतृत्व के संबंध में किसी प्रकार की दो टूक बात न होने के कारण पार्टी में ‘जी-23’-जैसा एक समूह उत्पन्न हो गया जिसने मीडिया के जरिये नेतृत्व के मामले में प्रश्न उठाकर पार्टी में उत्पन्न भ्रम को और गहरा दिया। परंतु कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी की एक फटकार से ‘जी-23’ समूह को तो चुप्पी लग गई और पार्टी के बाहर गांधी परिवार की आलोचना करने वाले उदारवादी गिरोह के लोगों के मुंह भी लटक गए। अब दो बातें स्पष्ट हैं। नेतृत्व गांधी परिवार के ही हाथों में रहेगा और पार्टी में नीचे से लेकर अध्यक्ष पद तक के लिए अगले वर्ष सितंबर में चुनाव हो जाएंगे।

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इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि लोकतंत्र में परिवारवाद का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। परंतु गांधी परिवार के आलोचकों को इस संबंध में दो बातें स्पष्ट होनी चाहिए। सबसे पहले, क्या संपूर्ण भारतवर्ष में गांधी परिवार के अतिरिक्त कोई ऐसा है जिसके नेतृत्व में भारत की वे उपलब्धियां हो सकती थीं जो गांधी परिवार के नेतृत्व में देश ने हासिल कीं! क्या जवाहरलाल नेहरू से बड़े ‘विजन’ का यह देश कोई दूसरा नेता पैदा कर सका! इंदिरा गांधी जब भारत का नेतृत्व कर रही थीं, क्या उस समय भारत में उनसे बेहतर कोई दूसरा नेता था! राजीव गांधी पर भले ही कितनी उंगलियां उठें लेकिन वह अकेले नेता थे जिन्होंने देश में कम्प्यूटर क्रांति का मार्ग खोलकर भारत को संसार में 21वीं सदी का रास्ता दिखाया।

उनके बाद कांग्रेस ने सीताराम केसरी के नेतृत्व में सामूहिक नेतृत्व का प्रयोग किया। पार्टी की जोगत बनी, उससे सब अवगत हैं। सोनिया गांधी पर विदेशी मूल का आरोप लगा। परंतु कांग्रेस को पुनर्जीवन देने और इस देश के गरीब को मनरेगा-जैसा कार्यक्रम देने का श्रेय भी सोनिया गांधी को ही जाता है। यह मत भूलिए कि भारत की आधुनिकता की कहानी गांधी परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमती है। और यही कारण है कि राहुल और प्रियंका-जैसे गांधी परिवार के बच्चों को भी सुनने स्वतः स्फूर्त दस-बीस हजार की भीड़ आसानी से इकट्ठा हो जाती है। अतः कोई परिवारवाद का कितना ही लांछन लगाए, कांग्रेस की बात गांधी परिवार के बिना बनती नहीं है।


दूसरा कटु सत्य यह है कि उदारवादी समूह का एक वर्ग गांधी परिवार पर तो उंगली उठाता है लेकिन यह आवाज कहीं से नहीं उठती कि भारत में भाजपा और वाम दलों को छोड़कर हर उदारवादी राजनीति करने वाली पार्टी परिवारवाद में पूरी तरह से लिप्त है। जरा नजर उठाकर तो देखिए, कश्मीर से कन्याकुमारी तक कौन-सी पार्टी ऐसी है जहां परिवारवाद का खुला चलन न हो। कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस का नेतृत्व अब्दुल्ला परिवार की तीसरी पीढ़ी के हाथों में है। तमिलनाडु में डीएमके की कमान करुणानिधि के सुपुत्र स्टालिन के हाथों में है। दूसरी क्षेत्रीय पार्टियां जैसे- बिहार में राष्ट्रीय जनता दल, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, अपने को सेकुलर कहने वाली क्या इन सभी पार्टियों में परिवारवाद का खुला चलन नहीं है? परंतु परिवारवाद का लांछन लगता है तो केवल कांग्रेस के गांधी परिवार पर। यह दोहरा मापदंड नहीं तो और क्या है?

भारत कोई अमेरिका और ब्रिटेन नहीं जहां लोकतंत्र का इतिहास ढाई-तीन सौ वर्ष पुराना है। और स्वयं इन देशों को देखिए तो अमेरिका में केनेडी, क्लिंटन और बुश परिवारों की वहां की राजनीति में बड़ी भूमिका रही है। परंतु वहां उनके खिलाफ परिवारवाद का शोर नहीं उठा। स्वयं इंग्लैंड में प्रधानमंत्री कोई भी बने, पर राज वही शाही खानदान करता है जो कई सौ वर्षों से वहां का कर्ताधर्ता है। अतः गांधी परिवार के खिलाफ जो घड़ी-घड़ी शोर उठता है, वह एक सोचा-समझा राजनीतिक षडयंत्र ज्यादा है और उसमें लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रेम कम दिखाई पड़ता है।


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इसका यह अर्थ कतई नहीं कि गांधी परिवार अपनी उज्जवल विरासत के चलते जो मनमानी चाहे, करे। विशेषकर जब कांग्रेस पार्टी संकट में हो तो इस परिवार का दायित्व और अधिक बढ़ जाता है। अतः राहुल गांधी और प्रियंका गांधी अब पार्टी की कमान उठाने को तैयार हैं तो उनकी जिम्मेदारियां भी बहुत हैं। भारत इस समय एक अत्यन्त कठिन दौर से गुजर रहा है। यह स्वतंत्र भारत का पहला दौर है जब देश केवल गांधीवादी और नेहरूवादी विचारों से ही नहीं बल्कि संवैधानिक मूल्यों से भी भटक चुका है। देश में एक नई राजनीतिक ही नहीं बल्कि एक नई सामाजिक स्थिति उत्पन्न हो चुकी है। भारत सहित सारे संसार में पहचान एवं नफरत की राजनीति का चलन चल रहा है। इस नई सामाजिक परिस्थिति में पार्टी को एक नए सामाजिक विजन की आवश्यकता है। वह विजन ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ नहीं हो सकता है। परिवार को देश के सामने एक नए राजनीतिक स्वरूप में आना होगा, नहीं तो रैलियों में तो भीड़ दिखाई पड़ेगी लेकिन वह चुनावी विजय में परिवर्तित नहीं होगी। इस संबंधमें परिवार को पंडित नेहरू से प्रेरणा लेनी होगी जिन्होंने बड़ी सफलता से बंटवारे की नफरत की आग का सामना किया। गांधी परिवार की इस पीढ़ी का दूसरा अहम दायित्व यह है कि वह कांग्रेस पार्टी में पुनः लोकतांत्रिक संस्कृति उत्पन्न करे जिसका जिक्र राहुल गांधी करते रहे हैं और वह पार्टी में वही संस्कृति उत्पन्न करने की बात भी करते हैं। पार्टियों का पुनर्जन्म केवल किसी के व्यक्तिव पर ही निर्भर नहीं होता है। एक लोकतांत्रिक राजनीतिक दल में यदि लोकतंत्र ही न पनपे तो उसका पतन निश्चित है। गांधी परिवार की इस पीढ़ी को यह बात समझ कर दृढ़ता से पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की परंपरा को अवसर देना चाहिए।

वर्तमान स्थितियों में कांग्रेस का भविष्य गांधी परिवार में ही निहित है। परिवार इस जिम्मेदारी को उठाने को तैयार भी है। परंतु स्वयं परिवार के लिए यह एक अत्यन्त कठिन जिम्मेदारी है। अब देखें, गांधी परिवार की राहुल एवं प्रियंका की यह पीढ़ी इस जिम्मेदारी को कैसे निभाती है।

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