स्वतंत्रता दिवस विशेष: सिर उठाता राष्ट्रवाद और कमजोर होता लोकतंत्र

ऐतिहासिक पहेलियों की बात करके लोकतंत्र को ताकतवर नहीं बनाया जा सकता। जो राजनीति अपनी वैधता के लिए काल्पनिक गौरवशाली अतीत को आधार बनाती है, वह ऐतिहासिक बदलाव के साथ तालमेल नहीं बैठा पाती।

नवजीवन
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गणेश देवी

आजादी की 75वीं सालगिरह पर हमने कुछ जाने-माने भारतीयों से इस सवाल का जवाब जानने की कोशिश की है कि ‘आज हम कितने आजाद हैं?’ उनके विचार देश में एक नई शुरुआत की पृष्ठभूमि तैयार करते दिख रहे हैं। इन विचारों को एक श्रृंखला के तौर पर हम आपके सामने लेकर आ रहे हैं। हम आपको इन विचारों से लेखों के माध्यम से रूबरू कराएंगे। पहली कड़ी में वरिष्ठ लेखक गणेश देवी का लेख:

वैसे तो 19वीं सदी से पहले ही कुछ देशों में ‘राष्ट्रवाद’ और ‘लोकतंत्र’ को स्थानीय तौर पर परिभाषित किया जाने लगा था, लेकिन यूरोप में इन शब्दों ने फ्रांस की क्रांति के बाद ही एक स्पष्ट सैद्धाांतिक आकार लेना शुरू किया। शुरू में ‘राष्ट्र’ से तात्पर्य लोगों से था। इटली और जर्मनी में राष्ट्रवाद के लिए हुए आंदोलनों के बाद ‘राष्ट्र’ का दायरा बढ़ा और इसमें मुख्यतः लोगों के अतीत और उनके भविष्य से संबंधित आख्यानों को शामिल किया गया। एक लंबे काल खंड में अतीत को स्मृति में बने रहने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। वह धीरे-धीरे मिथक का स्वरूप लेने लगता है और एक समय के बाद वह तर्कहीन रूप से संकुचित और लोगों की सोच के हिसाब से बदल जाता है। अतीत के विपरीत भविष्य का फैलाव अनंत काल तक होता है। स्वाभाविक रूप से इसके स्वरूप का खाका खींचना कल्पना के लिए चुनौतीपूर्ण होता है और इस तरह लोगों के दिलो दिमाग में यह उनकी सामूहिक किस्मत के लिए ऐसा आदर्श बन जाता है जो सिर्फ खयालों में रह सकता है, व्यवहार में नहीं।

20वीं शताब्दी के दौरान लोगों ने ‘राष्ट्रत्व’ को दृढ़ता के साथ अपनाने की जरूरत महसूस की। ज्यादातर नवजात राष्ट्रों ने अपने सपनों को पूरा करने के रास्ते के रूप में लोकतंत्र को स्वीकार कर लिया। जिन्होंने राष्ट्र के साथ-साथ लोकतंत्र होना चुना, उन्हें ये दोनों शब्द लगभग पर्यायवाची लगने लगे। इन दो शब्दों का एक हो जाना न सिर्फ शाब्दिक अर्थ के लिहाज से गलत था बल्कि यह राजनीतिक नजरिये से भी सही नहीं था। जब भारत में आजादी का आंदोलन चल रहा था, तब एक ‘राष्ट्र’ बनने का विचार महत्वपूर्ण हो गया क्योंकि अंग्रेजी शासन के खत्म होने के बाद छोटी-बड़ी तमाम रियासतों को एकीकृत करने का सवाल उठने वाला था। हालांकि जब औपनिवेशिक शासन के अंत का समय आया, तब कई दूरदर्शी नेताओं को राष्ट्रवाद के संभावित खतरों का अंदाजा हो गया था।

पूर्व में भारतीय राष्ट्र को ‘भारत माता का मदिंर’ कहने वाले श्री अरबिंदो ने अपने निधन से कुछ महीने पहले (1950 में) लिखा कि मानवता का भविष्य तभी सुरक्षित होगा जब नवगठित संयुक्त राष्ट्र को एक अंतरराष्ट्रीय सरकार बनाने की दिशा में बढ़ाया जाए। रवींद्र नाथ टैगोर जिनकी अमर कविता हमारा राष्ट्रगान बनी, ने मानवता पर जो अपने विचार व्यक्त किए, उसमें किसी तरह की भौगोलिक राष्ट्रीय सीमा नहीं थी। 1920 के दशक से ही महात्मा गांधी इस बात को लेकर एकदम स्पष्ट थे कि गुजरात विद्यापीठ आजादी के लिए लड़ने वाले युवाओं को तैयार करेगा और साबरमती आश्रम सत्य और अहिंसा के प्रति समर्पित लोगों को विकसित करने की जगह रहेगा।


भारत को आजादी के रास्ते पर आगे बढ़ाने वाले ये महान विचारक जानते थे कि अगर राष्ट्रवाद को ज्यादा तूल दिया गया तो एक सीमा के बाद यह स्वतंत्रता के विचार के लिए नुकसानदायक हो सकता है। उन्होंने देखा था कि यूरोप में कैसे अति-राष्ट्रवाद के रास्ते पर चलने वाले इटली और जर्मनी में आखिरकार क्रूर फासीवाद ने जगह बना ली थी। दूसरे विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद लोगों को उम्मीद थी कि राष्ट्रवाद और राष्ट्र निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाली स्वतंत्रता की भावना के बीच का टकराव खत्म हो जाएगा। लेकिन हाल के समय में दुनिया ने राष्ट्रवाद का उदय और लोकतंत्र के पतन को देखा है।

कई स्थापित लोकतांत्रिक देशों में ऐसी बहुसंख्यवादी सरकारों का उदय हुआ है जो लोकतंत्र के इस बुनियादी सिद्धांत का पालन करने के प्रति उदासीन रही हैं कि जातीय, धार्मिक और भाषाई विभिन्नताओं के बावजूद सभी नागरिक समान हैं। बीसवीं सदी में दुनिया के बारे में जो कल्पना की गई थी, उसे देखते हुए राजनीतिक विज्ञानी लोकतंत्र के भविष्य को लेकर खासे चिंतित हैं।

पारंपरिक रूप से निरक्षरता, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और कट्टरता को लोकतंत्र के लिए खतरा माना जाता रहा है लेकिन अब तो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, जनता को मशीन से नियंत्रित करने, जासूसी के लिए स्पाईवेयर का इस्तेमाल और लोगों की निजता पर हमला ऐसे विषय हैं जो लोकतंत्र के लिए कहीं बड़े खतरे के तौर पर हमारे सामने हैं। यह नई सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था है जिसका एक रहस्यमय अतीत के साथ असहज संबंध होना तय है। सत्ता व्यवस्था के रूप में लोकतंत्र के आगमन के साथ ही विज्ञान और आधुनिकता की बुनियाद बन जाती है तर्कसंगतता। यह संयोग स्मृति और लोकतंत्र के असहज संबंधों को और बढ़ाता है।

अतीत में कई शताब्दियों तक ‘यूटोपिया’ को मिथकीय भविष्य के रूप में देखा जाता था। लोकतंत्र के युग में भविष्य केवल एक मिथक नहीं रह जाता। यह शक्ति का स्रोत बनना शुरू हो जाता है, ठीक उसी तरह जैसे पूर्व-लोकतांत्रिक युगों में होता था। लोकतंत्र, आधुनिकता की मानसिक पारिस्थितिकी और अतीत के विचार के साथ असहज संबंधों के कारण यह आसानी से समझ में नहीं आता कि कृत्रिम स्मृति से कैसे निपटा जाए। मौजूदा समय में भारत समेत दुनिया के विभिन्न देशों की सरकारें अपने लोगों को अनुशासित, व्यवस्थित और नियंत्रित करने के लिए मशीनी स्मृति का उपयोग कर रही हैं। उस नजरिये से एक नियंत्रित लोकतंत्र में एक नागरिक तब तक नागरिक नहीं है जब तक वह डिजिटल इकाइयों के वर्चुअल टाइम और स्पेस में मुक्त होकर तैरता-विचरता न हो।


इक्कीसवीं सदी में अपनी ‘आंतरिक शक्ति’ को मजबूत करने और अप्रासंगिक हो चुकी ऐतिहासिक पहेलियों की बात करके लोकतंत्र को ताकतवर नहीं बनाया जा सकता। जो राजनीति अपनी वैधता के लिए काल्पनिक गौरवशाली अतीत को आधार बनाती है, वह ऐतिहासिक बदलाव के साथ तालमेल नहीं बैठा पाती। इसी तरह, राजनीति जो पूरी तरह से तकनीक से संचालित होती है, उसमें भविष्य के बारे में एक खास नजरिया होता है और इससे लोकतंत्र का पतन ही तेज होता है। 21वीं सदी में लोकतंत्र समर्थक राजनीति को देवताओं और रोबोटों को आमने- सामने लाना होगा। भविष्य को एक मिथक के रूप में फिर से स्थापित करने के लिए इनका एक-दूसरे से सामना कराना होगा।

2047 में भारत कहां होगा और कैसा होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम मानव-मशीन की परस्पर उलझनों को कितनी कुशलता से सुलझाते हैं। नई जटिलताओं को देखते हुए हम अधिकारों, गरिमा और निजता को किस तरह रेखांकित करते हैं ताकि हमें एक ऐसा नया संविधान न बनाना पड़े जो इस वाक्य के साथ शुरू हो कि: ‘हम, डिजिटल रूप से गिने जाने वाले और भारत के रोबोट, एतद् द्वारा इसे (संविधान को) अपनाते हैं, अधिनियमित करते हैं और खुद को देते हैं, ...।’ आइए, प्रार्थना करें कि ग्रीक पौराणिक कथाओं का पंखों वाला गुस्सैल समुद्री घोड़ा- पेगासस, वास्तविक दुनिया में वास्तविक परिश्रम और बलिदानों से अर्जित हमारे लोकतंत्र को झुलसा न पाए।

तकनीक संचालित ताकत का यह दौर जिस भविष्य की मुनादी कर रहा है, उसमें आगे बढ़ने का एकमात्र तरीका नागरिकों के मामले में राष्ट्र के विचार का समर्पण करना है। विडंबना है कि उस ऐतिहासिक समय बिंदु पर राष्ट्र का यह विचार राजनीतिक रूप से खत्म हो गया होगा। ऐसी ताकतों के सामने दूसरा विकल्प यह है कि प्रति-कथा को स्थापित करते हुए राष्ट्र के विचार को ही खंडित करने की दिशा में आगे बढ़ें। दुनिया भर के लोगों का भविष्य जिस पर निर्भर हो सकता है, वह है ‘राष्ट्र के रूप में लोगों’ और ‘लोगों के रूप में राष्ट्र’ के विचार को बहाल करना। जो लोग अक्सर इस्तेमाल की जाने वाली अप्रासंगिक राजनीतिक जुमलेबाजी से बंधे नहीं रहना चाहते, उन्हें इन्हीं विरोधाभासी संभावनाओं के भीतर संघर्ष की नई रेखाएं खींचनी होंगी।

(लेखक साहित्यिक आलोचक हैं। वह मराठी, गुजराती और अंग्रेजी में लिखते हैं)

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