स्वतंत्रता दिवस विशेष: हम अब भी आज़ाद क्यों है!

नागरिक स्वतंत्रता पर हाल के हमलों के बाद भी अपने भविष्य को फिर आकार देने की जगह बची हुई है। ‘हमारा भविष्य पूर्व निर्धारित नहीं है, और हमारा भाग्य अभी तक लिखा नहीं गया है।'

नवजीवन
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आकार पटेल

आजादी की 75वीं सालगिरह पर हमने कुछ जाने-माने भारतीयों से इस सवाल का जवाब जानने की कोशिश की है कि ‘आज हम कितने आजाद हैं?’ उनके विचार देश में एक नई शुरुआत की पृष्ठभूमि तैयार करते दिख रहे हैं। इन विचारों को एक श्रृंखला के तौर पर हम आपके सामने लेकर आ रहे हैं। हम आपको इन विचारों से लेखों के माध्यम से रूबरू करा रहे हैं।

पहली कड़ी में आपने पढ़ा वरिष्ठ लेखक गणेश देवी का लेख- सिर उठाता राष्ट्रवाद और कमजोर होता लोकतंत्र

इसके बाद दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा पुरुषोत्तम अग्रवाल का लेख - ज़िंदा लाशों को आज़ादी की क्या जरूरत?-

तीसरी कड़ी में आपने पढ़ा नदीम हसनैन का लेख - लोकतंत्र और बहुसंख्यकवाद का भेद

चौथी कड़ी में आपने पढ़ा सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े का लेख सिर्फ वोट देने का अधिकार ही नहीं है आजादी, जूझना होगा लोकतंत्र की रक्षा के लिए

अगली कड़ी में आपने पढ़ा कांग्रेस नेता और जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार का लेख जो आज़ादी हासिल है उसे कैसे रखें महफूज़

अब पढ़िए पत्रकार, लेखक और मानवाधिकार कार्यकर्ता आकार पटेल का लेख

इस सवाल पर कि ‘हम कितने आजाद हैं?’ तो इसके दो जवाब हैं। एक नकारात्मक है और दूसरा सकारात्मक। पिछले कुछ वर्षों का सर्वेक्षण करते हुए इस भाव से बच निकलना आसान नहीं है कि हम लोग खास तरीके से आजाद नहीं हैं। 2014 बल्कि खास तौर से 2019 से भारत उस मार्ग पर तेजी से चलने लगना है जिसे भारतीय जनता पार्टी ने चुना है। सरकार और उसकी तरफ से शक्तिशाली बनाए गए उपद्रवियों ने हमारे अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के नए और मौलिक तरीके खोज निकाले हैं।

भारत के अपने नागरिकों को आंतरिक तौर पर लक्ष्य कर बनाया गया प्रखर हिन्दू राष्ट्रवाद अधिक उन्मादी और अधिक प्रतिशोधी बन गया है। सोशल मीडिया पर अल्पसंख्यक भारतीयों ने जो कटु अनुभव और घोर पीड़ा की अभिव्यक्ति की है, वह उन लोगों के लिए धक्का है जो उस गंभीरता के बारे में नहीं जानते जो कुछ हो रहा है। यह बात भय पैदा करने वाली है कि उनके दर्द को लेकर बहुसंख्यक बेपरवाह हैं और इस उत्पीड़न पर कई हिन्दुओं को खुशी तो नहीं लेकिन वस्तुतः उनकी संतुष्टि की अभिव्यक्ति देखी जा रही है। सोशल मीडिया ने इस तरीके से भारतीयों को पूरी तरह बेपर्दा कर दिया है जो पिछले दशकों में ध्यान देने वाली नहीं रही थीं।

ध्यान देने वाला दूसरा घटनाक्रम हिन्दू उपद्रवियों को यथेष्ट अधिकार देने का सरकारी हस्ताांतरण है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सरकार ने खुले में जुमे की नमाज के लिए जगहें निर्धारित कर रखी थीं। ऐसा इसलिए कि लाखों प्रवासी दिल्ली क्षेत्र में काम कर रहे हैं और नमाज के लिए स्थानीय मस्जिद पास में नहीं मिलती। कई हफ्तों तक जब उपद्रवियों ने उनकी नमाज में बाधा पहुंचाई, तो हरियाणा सरकार ने इसके लिए दी गई अनुमति दिसंबर, 2021 में वापस ले ली।

पिछले महीने गुजरात के चार शहरों- अहमदाबाद, वड़ोदरा, भावनगर और जूनागढ़ में बीजेपी नियंत्रित स्थानीय निकायों ने मीट और अंडे बेचने वालों को सड़कों से भगा दिया और इनमें निश्चित ही अधिकतर मुसलमान थे। ऐसा बिना किसी लिखित आदेश के किया गया और जब वेन्डर के साथ नृशंस व्यवहार किया गया, तो सरकार की मिलीभगत थी या वह दूसरी तरफ देख रही थी।

अभी हाल में कर्नाटक ने वयस्कों समेत छात्राओं के हिजाब पहनकर कॉलेज आने पर रोक के लिए कानून पारित किया। उपद्रवी भीड़ ने तुरंत मोर्चा संभाल लिया, वे युवतियों को सवालों से तंग करने लगे और जल्द ही उन परिसरों में शिक्षिकाओं और प्रोफेसरों तक को हिजाब उतारने को बाध्य किया गया, कई को जिन जगहों पर वे काम करती थीं, वहां प्रवेश से पहले हिजाब उतार देने को कहा गया। कोर्ट ने व्यक्तिगत आजादी और अल्पसंख्यक अधिकारों के खिलाफ आदेश दिया।


मार्च, 2022 में कर्नाटक में मंदिरों के पास और मंदिर मेलों में सामान बेचने वाले मुस्लिम व्यापारियोों पर रोक का आह्वान किया गया। अप्रैल, 2022 में शहरों ने नवरात्रि के हिन्दू त्योहार के लिए मीट की बिक्री पर रोक लगाना आरंभ कर दिया। अप्रैल में ही उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और फिर, दिल्ली में मुसलमानों के घरों और व्यावसायिक जगहों पर बुलडोजर दौड़ा दिए गए। सुप्रीम कोर्ट ने ‘यथास्थिति बनाए रखने’ का आदेश दिया, पर डेढ़ घंटे तक उसकी अनदेखी कर सरकार ने दहशत जारी रखी।

मुसलमानों के सामने मस्जिदों के बाहर उपद्रवियों ने तांडव किया और अपमानजनक भाषा का उपयोग किया। कई कथित ‘धर्म संसदों’- जबकि वे उस किस्म के नहीं थे- ने मुसलमानों के खिलाफ नरसंहार का खुला आह्वान किया। सरकार ने उन लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं की और न्यायपालिका ने उसे देखा नहीं। नफरत फैलाने और अपमानजनक भाषा का उपयोग करने वालों को उजागर करने वालों को ही जेल भेज दिया गया, जैसा कि फैक्टचेकर मोहम्मद जुबेर के साथ हुआ।

2018 से शुरू होकर सात बीजेपी-शासित राज्यों- उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा और गुजरात ने अंतरधार्मिक विवाह को अपराध बना दिया। संसद में बताया गया है कि ‘लव जिहाद’ का अस्तित्व नहीं है लेकिन इस मृग मरीचिका के मुद्दे पर सतर्कता काफी फैली हुई और सामान्य बात है।

ईसाइयों के खिलाफ हमले के आंकड़े दर्ज हैं- 2014 में इनकी संख्या 127 थी, अगले साल 142, फिर 226, फिर 248, 2018 में 292, 2019 में 328, 2020 के महामारी वाले वर्ष में 279 और 2021 में 486 हो गई। कर्नाटक में ईसाइयोों के खिलाफ हमलों पर पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की रिपोर्ट में बताया गया कि चर्चों और गिरजाघरों पर उपद्रवियों की हिंसा में पुलिस की मिलीभगत थी और इस वजह से कई जगह संडे मास रोक देने पड़े। धर्म प्रचार पर सतर्क हमले (यह विडंबनापूर्ण ही है कि ये दंडनीय और भारत में मूलभूत अधिकार के खिलाफ अपराध हैं) जारी हैं और ये उत्साही सरकार द्वारा सक्षम बनाए जा रहे हैं।

इन सबकी ओर दुनिया ने ध्यान दिया। अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग में तीन साल तक- 2020, 2021 और 2022 में भारत ‘चिंताजनक स्थिति वाला देश’ रहा। इस द्विदलीय और अमेरिकी संघीय सरकार के स्वतंत्र हिस्से ने 2022 में भारतीय अधिकारियों और सरकारी एजेंसियों पर प्रतिबंधों की सिफारिश की है, हालांकि अब तक ऐसा नहीं हुआ है।

भारत कब तक दुनिया की अनदेखी कर सकता है और दुनिया उनकी कब तक अनदेखी कर सकती है जो भारत में हो रहा है- यह सवाल ऐसा है जिसका जवाब जल्द ही देना होगा। भारत वैश्विक रंगमंच पर बेहतर भूमिका की महत्वाकांक्षा रखे हुए है लेकिन उसका वर्तमान व्यवहार उस महत्वाकांक्षा के खयाल से बेमेल है। आधुनिकता उन देशों के लिए झटका होगा जो समय के अनुरूप सभ्यता को लेकर अपनी मध्यकालीन मानसिकता छोड़ने में हिचकिचाते हैं। अनिच्छुक देशों को आधुनिकता में घसीटकर लाया जाएगा- इसे लेकर कोई संदेह नहीं है।


इस अंधकारमय वक्त में भारत के अंदर भी आशा बनी हुई है। बहुलतावादी मूल्यों के संदर्भ में 2021-22 की अवधि हमारे सबसे बुरे में से एक है। फिर भी, यह एक ऐसा साल है जिसमें बेहतर नागरिक अधिकार संघर्ष लड़ा गया और सरकार के खिलाफ प्रतिरोधियों ने जीत हासिल की। भारत के किसानों ने बिना सलाह-मशविरा किए पारित कानूनों को न सिर्फ वापस लेने को सरकार को बाध्य किया बल्कि उन्होंने प्रधानमंत्री से माफी मांगने को कहा और उन्होंने ऐसा किया भी।

हमारा भविष्य पूर्व निर्धारित नहीं है और हमारा भाग्य अब तक नहीं लिखा गया है। हममें कई तरीकों से इसे प्रभावित करने की क्षमता बचा रखी है। हिन्दुत्व का राजनीतिक विरोध कमजोर है, पर यह अब भी है। कई राज्यों में कट्टरता पर चुनाव हावी रहा है। न्यायपालिका में बहुसंख्यक मामलों पर सरकार को रोकने को लेकर हिचकिचाहट है (और निस्संदेह कई बार मिलीभगत तक भी देखी जा सकती है) लेकिन यह तकनीकी और संविधानिक तौर पर स्वतंत्र है। मीडिया ने सरकार का काम स्वेच्छा से सरकारी प्रोपेगैंडा से ज्यादा ही उत्साह के साथ और अधिक प्रभावी ढंग से किया है और फिर भी वह आजाद है। सिविल सोसाइटी पर लगातार हमले हो रहे हैं, पर यह अब भी उत्साहित प्रतिरोध कर रहा है। संविधान अक्षुण्ण है।

इसलिए जगह है। इसका उपयोग किया ही जाना चाहिए।

(लेखक पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता और लेखक हैं।)

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