सरकार भले ही झुठलाती रहे, लेकिन हंगर इंडेक्स के आंकड़े तो सरकारी एजेंसियों के ही हैं

हंगर इंडेक्स का सर्वे करने वाली एजेंसियों का कहना है कि जिस डेटा का इस्तेमाल किया गया है, वह अलग-अलग एजेंसियों से प्राप्त है जो प्रकारांतर से भारत सरकार का ही डेटा है। यह बताने की जिम्मेदारी अब भारत सरकार की है कि सर्वेक्षण का कौन-सा डेटा गलत है।

सोशल मीडिया
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प्रमोद जोशी

हाल में स्वास्थ्य और कुपोषण को लेकर जारी हुए हंगर इंडेक्स को लेकर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और भारत सरकार के बीच जो मतभेद उभरे हैं, वे गंभीर प्रकृति के हैं। गिरावट पिछले चार-पांच वर्षों से देखी जा रही है। इस वर्ष के वैश्विक क्षुधा (भूख) सूचकांक (जीएचआई-2021) के अनुसार, भारत की रैंक 94 से गिरकर 101 हो गई है। भारत के लिए इसमें अपमानजनक दो बातें हैं। एक, यह सूचकांक 116 देशों का है जिसका मतलब यह हुआ कि भारत दुनिया के निम्नतम स्तर पर है। दूसरे हमारे पड़ोसी देश, खासतौर से पाकिस्तान और बांग्लादेश भी इसमें हमसे ऊपर हैं। पिछले साल यह रैंक 94 जरूर थी, पर 2017 के बाद से यह रैंक 100 से 103 के बीच रही है।

वैश्विक भुखमरी सूचकांक भुखमरी की समीक्षा करने वाली वार्षिक रिपोर्ट को आयरलैंड स्थित एक एजेंसी-कंसर्न वर्ल्डवाइड और जर्मनी के एक संगठन- वेल्ट हंगर हिल्फे द्वारा संयुक्त रूप से तैयार किया जाता है। इसका उद्देश्य वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तरों पर भुखमरी की समीक्षा करना है। जीएचआई स्कोर चार संकेतकों के आधार पर निकाला जाता है: 1.अल्पपोषण, 2.चाइल्ड वेस्टिंग, 3.चाइल्ड स्टंटिंग और 4.बाल मृत्युदर।

इन चार संकेतकों का मान 0 से 100 तक के पैमाने पर भुखमरी को निर्धारित करता है। जहां ‘0’ सबसे अच्छा स्कोर (भुखमरी नहीं) है और ‘100’ सबसे खराब। इन संकेतकों से संबंधित आंकड़ों के लिए विश्व खाद्य संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र से प्राप्त सूचनाओं का उपयोग किया गया है। ये अंतरराष्ट्रीय संगठन राष्ट्रीय डेटा का उपयोग करते हैं। भारत के संदर्भ में, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के डेटा का उपयोग किया जाता है।

भारत का विरोध

भारत के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने कहा है कि भारत की रैंक को कम करना जमीनी वास्तविकता और तथ्यों से रहित है। रिपोर्ट का प्रकाशन करने वाली एजेंसियों ने उचित अध्ययन नहीं किया और रैंकिंग के लिए इस्तेमाल की गई पद्धति ‘अवैज्ञानिक’ है। सरकार के अनुसार, उन्होंने ‘चार प्रश्न’ के एक जनमत सर्वेक्षण के परिणामों पर अपना मूल्यांकन किया है जो गैलप द्वारा टेलीफोन पर किया गया था।

भूख की परिभाषा जटिल है। वह केवल अन्न की उपलब्धता या अनुपलब्धता तक सीमित नहीं है बल्कि कुपोषण के उन कारकों पर आधारित है जो सामने से नजर नहीं आते। इनमें माइक्रो-न्यूट्रिएंट, कैलोरी-स्तर शामिल हैं। मूलतः यह कुपोषण- केन्द्रित सर्वेक्षण है। सर्वेक्षण से जुड़ी एजेंसियों का कहना है कि यह ‘चार प्रश्न’ आधारित गैलप सर्वे पर आधारित नहीं है जिसका आरोप भारत सरकार ने लगाया है। जिस डेटा का इस्तेमाल किया गया है, वह अलग-अलग एजेंसियों से प्राप्त है जो प्रकारांतर से भारत सरकार का ही डेटा है। यह बताने की जिम्मेदारी अब भारत सरकार की है कि सर्वेक्षण का कौन-सा डेटा गलत है।


पिछले साल दिसंबर में केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की पांचवीं रिपोर्ट का पहला भाग जारी किया था। सर्वे में वर्ष 2019-20 के आंकड़े शामिल किए गए थे। सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, देश के आधे से ज्यादा राज्यों के पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में बौनेपन और लंबाई के साथ वजन में कमी-जैसी समस्याओं में वृद्धि हुई है। मतलब यह कि बच्चे पोषण-युक्त आहार से अभी वंचित हैं। इससे पहले 2015-16 में आई रिपोर्ट में बच्चों में कुपोषण घटा था लेकिन पिछली रिपोर्ट में मामले बढ़ गए थे।

कुपोषण के दुष्परिणाम

नोबेल से सम्मानित एमआईटी-अर्थशास्त्रियों अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो ने अपनी किताब ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ में गरीबी की विवेचना की है। उन्होंने जानने की कोशिश की है कि भारत के ही नहीं बल्कि दक्षिण एशिया के लोगों की काठी छोटी क्यों हैं? क्या यह दक्षिण एशिया की जेनेटिक विशेषता है? इंग्लैंड और अमेरिका में दक्षिण एशियाई प्रवासियों के बच्चे कॉकेशियन और ब्लैक बच्चों की तुलना में छोटे होते हैं। पश्चिमी देशों में दो पीढ़ियों के निवास के बाद और अन्य समुदायों के साथ वैवाहिक संपर्कों के बगैर भी दक्षिण एशियाई लोगों के नाती-पोते उसी कद के हो जाते हैं जैसे दूसरे समुदायों के बच्चे। यानी मामला जेनेटिक्स का नहीं कुपोषण का है।

इस पैमाने पर भारत के राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वे के आंकड़े भयावह हैं। ये तथ्य तब और भयावह होते हैं जब पता लगता है कि दुनिया के सबसे गरीब इलाके सब-सहारा अफ्रीका में भी यह स्टंटिंग और वेस्टिंग भारत के मुकाबले कम है या तकरीबन बराबर है।


जीएचआई का ज्यादा जोर अल्प-पोषण पर है, केवल भूख पर नहीं। कम कैलोरी की प्राप्ति का अर्थ केवल अल्प-पोषण नहीं होता। यदि बच्चों के भौतिक क्रिया-कलाप यानी खेल-कूद जैसी व्यवस्थाएं कम हों, या सड़क, परिवहन और स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर हों और शारीरिक श्रम के अवसर कम हों, तब भी वे कम कैलोरी ग्रहण करते हैं। दूसरे, भारत जैसे देश में जहां भौगोलिक और सांस्कृतिक स्तर पर विविधता बहुत ज्यादा है, कैलोरी की अलग-अलग आवश्यकताएं हैं।

भारत में बच्चों के वेस्टिंग (17.3 प्रतिशत) का स्तर पिछले दो दशक से तकरीबन स्थिर है जबकि विकास-रुद्धता (स्टंटिंग) 1998-2002 के दौरान 54.2 फीसदी से कम होकर 2016-17 में 34.7 पर आ गई थी। विकास-रुद्धता ज्यादा बड़ी समस्या है। ज्यादा बड़ी समस्या का समाधान हम कर सकते हैं, तो अल्पकालिक समस्या के समाधान में दिक्कतें क्या हैं? बाल-मृत्यु के मामलों में भी भारत का प्रदर्शन बेहतर हुआ है। बाल-मृत्यु और कुपोषण का भी आपसी रिश्ता है। कुपोषण के अलावा स्वास्थ्य सेवाएं भी बाल-मृत्यु रोकने में बड़ी भूमिका निभाती हैं। ऐसे में आंकड़ों को परिभाषित करने से जुड़े मसले खड़े होते हैं।

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