लॉकडाउन: जनता और सरकार के बीच भरोसे की खाई हुई चौड़ी, अब मौजूदा संकट से निपटने की सरकार की क्षमता पर संदेह!

सरकार लोगों को जागरूक करने में विफल रही, उन्हें भरोसा दिलाने में विफल रही। विज्ञापन, टीवी पर लाइव प्रसारण, संपर्क खोजने वाले ऐप और मोबाइल फोन पर आने वाले मैसेज लोगों के मन से वायरस को लेकर भय और संक्रमित लोगों के प्रति तिरस्कार की भावना का शमन नहीं हो सका।

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उत्तम सेनगुप्ता

हम चिंतित हैं क्योंकि हमारे और सरकार के बीच भरोसे की खाई चौड़ी होती जा रही है। इसकी बड़ी वजह यह है कि मौजूदा संकट से निपटने की सरकार की क्षमता पर हमारे मन में संदेह गहरा गया है। इसकी वजह भी है। लोगों ने तो सरकार पर भरोसा किया लेकिन सरकार ने लोगों पर भरोसा नहीं किया। हमने वो सब किया जो कहा गया। बर्तन पीटे, दीये जलाए, ताली बजाई और घर में बंद रहे। सरकार ने पैसे से मदद की अपील की, हमसे जो बन पाया, दिया। हमने अपने आसपास के लोगों की जहां तक संभव हुआ, मदद की। आरोग्य सेतु ऐप डाउनलोड करने को कहा गया, तमाम शंकाओं के बाद भी मध्य वर्ग की बड़ी आबादी ने आपकी बात मानी। लेकिन अब हमारी चिंता की बड़ी वजह यह है कि सरकार जो कह रही है, उस पर भरोसा करना हमारे लिए कठिन है।

21 दिनों के पहले लॉकडाउन के बाद प्रधानमंत्री ने वायरस को हराने के लिए हमारी तारीफ की, वैसे सच तो यह है कि ऐसा करते समय भी वह खुद की ही तारीफ कर रहे थे। भारत के सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि सड़क पर कोई प्रवासी मजदूर नहीं जबकि हकीकत इसके उलट थी। मुख्य आर्थिक सलाहकार ने टीवी पर जोर देकर कहा कि गांवों के लोगों में किसी तरह की हताशा-निराशा का कोई भाव नहीं क्योंकि उन लोगों ने जनधनखातों से पैसे निकाले ही नहीं। सरकार ने पूरे भरोसे के साथ घोषणा की थी कि 3 मई को दूसरे लॉकडाउन खत्म होने के बाद नए मामले कम होना शुरू हो जाएंगे और 16 मई के बाद शायद ही कोई नया मामला आए। लेकिन हुआ क्या? तीसरे लॉकडाउन का समय17 मई को खत्म हो गया और नए मामले के थमने की कोई सूरत नहीं दिख रही। और तो और, स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारी भी यह बात मानने को मजबूर हैं कि जून या जुलाई में मामले संभवतः अपने उच्चतम स्तर पर होंगे और अब हमें कोरोना वायरस कोविड-19 के साथ जीना सीखना होगा।


25 मार्च को जब लॉकडाउन शुरू हुआ तो देश में 87 नए मामले सामने आए। अब लॉकडाउन के 49वें दिन12 मई को 4213 मामले आए। लॉकडाउन के शुरू में कुल मामले करीब 500 थे और 12 मई को 70 हजार को पार कर चुके हैं। वह भी तब जब इन आंकड़ों की सचाई को लेकर तमाम संदेह हैं और माना जा रहा है कि वास्तव में इनसे कहीं ज्यादा मामले होंगे। इस बात का कोई जवाब नहीं कि 21 दिन के पहले लॉकडाउन के 15 अप्रैल को समाप्त होने के बाद जब कुल मामले सिर्फ 11 हजार थे, अब बढ़कर इतने अधिक क्यों हो गए।

सवाल कई हैं

इस बीच, एक के बाद एक तमाम परेशान करने वाली खबरें आती रहीं। एम्स की एक बैठक की लीक जानकारी के मुताबिक वैज्ञानिकों ने चीन की तरह के लॉकडाउन का विरोध किया था। उनके सुझावों को परे खिसका दिया गया। उसके बाद यह खुलासा हुआ कि निजी अस्पतालों को प्रति टेस्ट 4,400 रूपये लेकर कोविड-19 का टेस्ट करने की अनुमति दे दी गई है। उसके कुछ ही दिन बाद खबर आई कि चीन से आयातित टेस्ट किट पर 245 रुपये की लागत आई लेकिन उसे आईसीएमआर को 6,00 रुपये में बेचा जा रहा है। फिर उसके बाद आईसीएमआर कहता है कि ये टेस्ट किट खराब पाए गए हैं और राज्य सरकारों को सलाह देता है कि इनका इस्तेमाल न करें जबकि तमाम राज्यों के पास ये किट तब तक पहुंच भी चुके थे।


यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता। अब हम यह जान चुके हैं कि महामारी और बीमारी पर साप्ताहिक चेतावनी जारी करने वाले इंटिग्रेटेड डिसीज सर्विलांस प्रोग्राम (आईडीएसपी) को फरवरी में निर्देश दिया गया कि वह इस तरह की चेतावनी जारी न करे। आईडीएसपी की स्थापना 2004 में हुई थी और कई सालों से वह साप्ताहिक चेतावनी जारी कर रहा था। इस बात का कोई जवाब नहीं दिया गया कि जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 30 जनवरी को ही कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित कर दिया था तो उसके बाद ऐसी रोक क्यों लगाई गई। इस खबर ने तो रही-सही उम्मीद भी खत्म कर दी कि इस दौरान सरकार ने महामारी से सफलतापूर्वक लड़ चुके वैज्ञानिकों, डॉक्टरों और प्रशासकों से सलाह-मशविरा करने की कोई जरूरत नहीं समझी। इन अनुभवी विशेषज्ञोंको सलाहकार भूमिका में भी नहीं रखना बताता है कि सरकार की तैयारी कितनी लचर है।

दूसरों पर ठीकरा फोड़ने में माहिर

इसके अलावा यह भी चिंतित करने वाली है कि केंद्र सरकार हर किसी पर दोष मढ़ने का प्रयास कर रही है। वह कहती है कि प्रवासी मजदूरों ने लॉकडाउन का उल्लंघन किया, उन्होंने प्रधानमंत्री की उस अपील पर अमल नहीं किया कि जो जहां है, वहीं रहे। मोदी सरकार यह स्वीकार ही नहीं करती कि चार घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन अमल में लाना एक भूल थी। वह वायरस फैलाने के लिए तब्लीगी जमात को दोषी ठहराती है लेकिन इन संभावनाओं को नजरअंदाज कर देती है कि ‘नमस्ते ट्रंप’ जैसे कहीं बड़े जमावड़े वाले तमाम कार्यक्रम हुए और संभवतः उनसे भी वायरस फैला हो। वह कहती है कि वायरस को रोकने और लॉकडाउन पर अमल में राज्य सरकारें विफल रहीं लेकिन वह बीजेपी शासित प्रदेशों और विपक्ष शासित प्रदेशों को अलग-अलग नजरिये से देखती है। केंद्रीय गृहमंत्री पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र को चेतावनी देते हैं और यह बात मीडिया को भी बता दी जाती है। वहीं, जब गुजरात की बात आती है तो गृहमंत्री एम्स के निदेशक को निर्देश देते हैं कि वायुसेना के विशेष विमान से अहमदाबाद जाकर वहां का जायजा लेकर डॉक्टरों को जरूरी सलाह दे आएं। मोदी सरकार यह भी नहीं मानती कि राज्य सरकारों की आर्थिक हालत खस्ताहै वह उनके हिस्से के पैसे नहीं दे रही। मोदी सरकार विपक्ष पर यह आरोप तो लगा देती है कि वह इस संकट का सामना करने में सरकार से सहयोग नहीं कर रहा लेकिन यह स्वीकार नहीं करती कि उसने कभी इस मामले पर विपक्ष से संपर्क नहीं किया और नही नियमित रूप से सर्वदलीय बैठक बुलाई। यही वजह है कि ऐसी सरकार जो अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़कर दूसरों पर ठीकरा फोड़ने की कला में माहिर हो, वह लोगों में भरोसा नहीं जगाती।


लोगों में जागरुकता लाने में विफल

यह चिंताजनक बात है कि सरकार लोगों को जागरूक करने में विफल रही, उन्हें भरोसा दिलाने में विफल रही। विज्ञापन, टीवी पर लाइव प्रसारण, संपर्क खोजने वाले ऐप और मोबाइल फोन पर आने वाले मैसेज लोगों के मन से वायरस को लेकर भय और संक्रमित लोगों के प्रति तिरस्कार की भावना का शमन नहीं हो सका। यही वजह है कि मई के शुरू में जब दिल्ली में एक डॉक्टर और उनकी स्कूल टीचर पत्नी की कोविड-19 से मृत्यु हो जाती है तो उनके कम उम्र बच्चों को हाउसिंग सोसाइटी के लोगों से तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। उन्हें इस बात का दोषी ठहराया जाता है कि उन्होंने सोसाइटी को जानकारी नहीं दी कि उनके मां-बाप बीमार हैं। अब तक यह बात साबित नहीं हुई है कि संक्रमण हवा से फैलता है लेकिन यह आशंका कि कोरोना पॉजिटिव रोगी ने सोसाइटी के दूसरे लोगों की जान को खतरे में डाल दिया होगा, निहायत अतार्किक है लेकिन आज भी ज्यादातर लोग ऐसा ही मानते हैं। बाहर से आ रहे लोगों को प्रदेश में घुसने देना है या नहीं, इस बात पर उत्तर प्रदेश पुलिस के जवानों की राजस्थान पुलिस के लोगों से भिड़ंत हो जाती है। हरियाणा की ओर से गुड़गांव में सीमा सील कर दी जाती है कि दिल्ली से आने वाले अपने साथ वायरस भी ले आएंगे। दिल्ली के अस्पतालों में काम करने वाले डॉक्टरों को गाजियाबाद में फरमान सुनाया जाता है कि वे अपने रहने की व्यवस्था दिल्ली में ही कर लें।

ऐसी अव्यवस्था के बीच एक कार्यकारी आदेश के जरिये सरकार आरोग्य सेतु ऐप का इस्तेमाल करना अनिवार्य कर देती है। भ्रम बढ़ जाता है क्योंकि कई राज्य इसी तरह का अपना अलग ऐप तैयार कर लेते हैं जबकि उन्हें अनिवार्य नहीं किया जाता है। खैर, आरोग्य ऐप की वैधानिकता को लेकर तमाम सवाल तो हैं ही, यह भी सोचने वाली बात है कि अगर कोई आदमी सामाजिक बहिष्कार, क्वारंटाइन केंद्रों की बदहाली को देखते हुए अपनी स्वास्थ्य की सही जानकारी नहीं दे तो ऐप क्या कर लेगा और किसी के स्वास्थ्य की सही स्थिति जान लेने का इसमें कोई और उपाय तो है नहीं। और मान लीजिए कि सभी लोगों ने सही-सही जानकारी ही दे दी, तो उससे क्या हो जाएगा? इससे केंद्र सरकार को केवल इतनी मदद मिलेगी कि किसी क्षेत्र को स्थिति के मुताबिक रेड, ऑरेंज और ग्रीन में से कोई टैग लगा दे। लेकिन इस तरह जोन के वर्गीकरण से इलाज और देखभाल या निगरानी सुविधा को भी जोड़ा गया है क्या? जब नहीं तो किसी संक्रमित व्यक्ति को मिलने वाली सुविधा पर इसका क्या असर पड़ जाएगा?


फिर आती है कोविड-19 के टेस्ट की बात। हमारे यहां टेस्ट का गलत निकल जाना एक आम बात है और ऐसे में जब कोविड-19 के टेस्टको लेकर लोगों को ज्यादा अनुभव नहीं तो इनके भी तो गलत हो जाने की आशंका पैदा होती है और ऐसे तमाम उदाहरण देखने को मिल भी रहे हैं। मार्च में देश में 62 ऐसे केंद्र थे जहां कोविड-19 का टेस्ट हो सकता था और अब सरकार का दावा है कि ऐसे केंद्रों की संख्या बढ़कर 162 हो गई है। लेकिन ये तो बड़े शहरों में ही हैं और ज्यादातर जिलों में टेस्ट की सुविधा नहीं है। तो भला गांवों, कस्बों और छोटे शहरों में रहने वाले लोग टेस्ट कहां और कैसे कराएंगे?

बौद्ध, जैन और हिंदू साहित्य में एक दृष्टांत मिलता है जो बताता है कि दिखने वाले सत्य और वास्तविक सत्य में अंतर होता है। यह सत्य पूर्णया आंशिक, कुछ भी हो सकता है। यह दृष्टांतयूं है कि कुछ अंधे लोगों को एकहाथी के पास ले जाया जाता है और स्पर्श करके इसके बारे में अनुमान लगाने को कहा जाता है। किसी को वह हाथी, पेड़ का तना तो किसी को दीवार तो किसी को बड़े पंखे जैसा कुछ समझ आता है। अपनी-अपनी जगह पर वे सभी सही थे, फिर भी वे सभी गलत थे। वैसे ही, हमारे कमरे में एक हाथी है लेकिन हम यह मानने को तैयार नहीं।

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Published: 15 May 2020, 4:57 PM