विष्णु नागर का व्यंग्यः झूठ की लीला

उनके झूठ के इतने सारे कारखाने आजकल चल रहे हैं कि उनकी गिनती तक वे भूल चुके हैं। उनके कारखानों में तब भी 110 प्रतिशत उत्पादन हो रहा था, जब नोटबंदी और जीएसटी के असर से देश के लोग कराह रहे थे।

फोटोः सोशल मीडिया
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विष्णु नागर

उन्हें सादर नमन, जो दिनरात झूठ ही निगलते हैं, झूठ ही उगलते हैं। जो झूठ ही बोलते हैं, झूठ ही देखते हैं, झूठ ही सुनते हैं, झूठ ही गुनते हैं, धुनते हैं, बुनते हैं। जिनका अपने अस्तित्व के अलावा सब कुछ झूठ ही है - उनकी विनम्रता, उनकी मुस्कुराहट, उनका गुस्सा, उनकी लरज-गरज, उनकी निंदा-स्तुति, उनके आश्वासन-भाषण, उनका नमन-वमन। वे झूठ की ऑक्सीजन में सांस लेते हैं, झूठ की कार्बन डाई ऑक्साइड ही छोड़ते हैं। वे झूठ की आंखों से देखते हैं, वही दिखाते भी हैं। वे रेगिस्तान को हरा, हरे को रेगिस्तान बताते हैं। जहां जमीन नहीं है, वहां हवा के महल खड़े हैं, वे यह बताते हैं। वे कागजी वीरता का महाभारत रचते हैं और उसमें खुद को कभी युद्धिष्ठिर, कभी अर्जुन, कभी कृष्ण बताते हैं।

ऐसे लोग प्रणम्य हैं, प्रातःस्मरणीय हैं, रात्रिवंदनीय, चंदनीय हैं, अतुलनीय हैं, निंदनीय हैं, दंडनीय हैं।मैं उन्हें दंडवत करता हूं। ऐसे नेता 'आदर्शों' के 'आदर्श' हैं, अवसरवादियों के अवसर हैं। वे सबका तो क्या, सबकी सेल्फी का विकास जरूर करेंगे और जी जान से कर भी रहे हैं। उनके झूठ के इतने सारे कारखाने आजकल चल रहे हैं कि उनकी गिनती तक वे भूल चुके हैं। उनके कारखानों में तब भी 110 प्रतिशत उत्पादन हो रहा था, जब नोटबंदी और जीएसटी के असर से देश के लोग कराह रहे थे। उनके लोग तब ओवर टाइम कर रहे थे। उनके कारखाने का एक भी आदमी बेरोजगार नहीं हुआ था। झूठ उत्पादन के मामले में वे देश का नाम शिखर देशों के भी शिखर पर ले जा चुके हैं। वे बेझिझक होकर गर्व से इसका श्रेय लेते हुए दावा करते हैं कि अपने देश को यह गौरवपूर्ण स्थान सिर्फ वही दिला सकते थे और उन्होंने ही आज तक दिलाया है। उनका दावा है- हमने देश को इस मामले में विश्वगुरू बना दिया है,आत्मनिर्भर बना दिया है। हम यह गौरव आगे भी प्रदान करते रहेंगे। हम कल तक जरूर दुर्गंधनीय थे,अब हम सुगंधनीय, अभिनंदनीय, चिरस्मरणीय और वंदनीय हैं। बच्चे-बूढ़े सब मिलकर हमारे चरणस्पर्श करें क्योंकि हमारे पैर अब पैर नहीं रहे, चरण हो गए हैं, वरणयोग्य हो गए हैं।

हमारे हाथ भी अब हाथ नहीं रहे, करकमल हो गए हैं। हमारा पेट भी अब पेट नहीं रहा, कोषागार हो गया है। हमारा घटियापन-ओछापन सब कुछ अब आदरणीय-सम्माननीय है। बहुत दिन यह चला, चलता रहा, होता रहा, पनपता रहा, फलता रहा, फूलता रहा, लेकिन झूठ से मजदूर का, किसान का पेट नहीं भर सकता था, उनका घर नहीं बन सकता था, कपड़े नहीं मिल सकते थे, बच्चों को दूध नहीं मिल सकता था। इस सबके लिए मेहनत-मजदूरी के भी अवसर जब खत्म हो गए तो फिर 'उनके' यानी 'उनके' ही'अच्छे दिन' चले गए। कहां चले गए, आज तक किसी को नहीं मालूम। कोई मालूम करना भी नहीं चाहता, यह कितने दुख की बात है! बोलो है कि नहीं?

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Published: 31 Dec 2017, 8:58 AM
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