CAA से मंदी और मंहगाई से ध्यान हटाने में मोदी सरकार सफल, लेकिन एनआरसी लाई तो तबाही ही आ जाएगी

असम में एनआरसी पर करीब 1600 करोड़ रुपये का सरकारी खर्च आया था और लोगों के लगभग 8 हजार करोड़ इसमें खाक हो गए थे। अगर अब यह राष्ट्रीय स्तर पर लागू हुई तो पूरा का पूरा देश सरकारी दफ्तरों के चक्कर काट रहा होगा, जिसका सीधा असर जीडीपी और विकास दर पर पड़ेगा।

फोटोः सोशल मीडिया
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राजेश रपरिया

संशोधित नागरिकता कानून से उठे देशव्यापी बवाल से नरेंद्र मोदी सरकार गहराते आर्थिक मुद्दों से ध्यान भटकाने में सफल रही है। इस नए कानून और एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) कराने की बात से देश में अशांति का माहौल है जिसकी एक बड़ी आर्थिक कीमत चुकाने के लिए अर्थव्यवस्था मजबूर है जिसकी पहले से ही सांस उखड़ी हुई है।

देश की विकास दर पिछली छह तिमाहियों से लगातार घट कर 4.5 फीसदी रह गई है। औद्योगिक उत्पादन दर पिछले तीन महीनों से नकारात्मक है और महंगाई दर पिछले तीन सालों के चरम पर है, खाद्य महंगाई तो बेकाबू हो ही गई है। उपभोक्ता मांग में कोई कारगर सुधार नहीं है और खुदरा कर्ज भी सरकार को मुंह चिढ़ा रहा है। 12 दिसंबर को जारी आंकड़ों के मुताबिक, अक्टूबर में औद्योगिक उत्पादन 3.8 फीसदी गिर गया है। यह गिरावट बिजली, खनन और मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में ज्यादा तेज है।

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अनुसार, सितंबर में औद्योगिक उत्पादन 4.3 फीसदी गिरा जो पिछले आठ सालों में सबसे बड़ी गिरावट थी। अगस्त में यह गिरावट 1.4 फीसदी थी। चालू वित्त वर्ष 2019-20 के अप्रैल-अक्टूबर के दौरान औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि न के बराबर- 0.5 फीसदी रही है। एक साल पहले की समान अवधि में यह वृद्धि दर 5.7 फीसदी थी। बीते अक्टूबर में बिजली उत्पादन में 12.2 फीसदी और खनन में 8 फीसदी तेज गिरावट दर्ज हुई। मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में यह गिरावट 2.1 फीसदी रही।

इससे भी बुरी खबर यह है कि नवंबर महीने में खुदरा महंगाई 5.54 फीसदी पर पहुंच गई जो पिछले तीन सालों की सर्वोच्च है। इसमें सबसे ज्यादा महंगाई खाने-पीने की वस्तुओं में आई है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के ताजा आंकड़ों के अनुसार, नवंबर में खाद्य पदार्थों की महंगाई दर 10.01 फीसदी की रही। इस महीने में सब्जियों की कीमतों में 35.99 फीसदी वृद्धि हुई है। दालों की कीमतों में भी 13.94 फीसदी की वृद्धि हुई है। अफगानिस्तान से प्याज आयात होने के बावजूद देश के तमाम शहरों में प्याज की कीमतें 120-150 रुपये प्रति किलोग्राम बनी हुई हैं।

देश की ख्यात रेटिंग एजेंसी इकरा के अनुसार, दिसंबर में महंगाई दर बढ़कर 5.8 से 6 फीसदी तक पहुंच सकती है। इस एजेंसी का मानना है कि टेलीकॉम टैरिफ में हाल में हुई बढ़ोतरी के कारण दिसंबर में महंगाई दर और बढ़ सकती है। इसके अलावा दिसंबर में आपूर्ति बाधित होने से आलू की कीमतों में भी 10-15 रुपये प्रति किलो ग्राम का इजाफा हुआ है। दूध की कीमतों में भी मदर डेयरी और अमूल ने चालू महीने में 2-3 रुपये प्रति लीटर की वृद्धि कर दी है। इन कंपनियों का कहना है कि दूध की आपूर्ति कम होने और भंडारण-लागत बढ़ जाने के कारण कीमत में वृद्धि की गई है। इस दौरान शक्कर और खाद्य तेलों के दाम भी बढ़े हैं। इन सब कारणों से खाद्य महंगाई और भड़कने की आशंका प्रबल हुई है।


रिजर्व बैंक के गर्वनर शक्तिकांत दास ने भी कहा कि आर्थिक हालात कुछ चुनौतियां खड़ी कर सकते हैं। इसके लिए उन्होंने बैंकों से मुस्तैद रहने और दबावग्रस्त परिसंपत्तियों के निपटाने में समन्वित तरीके से काम करने को कहा है। मांग बढ़ाने के लिए गर्वनर शक्तिकांत दास ने सभी बैंक प्रमुखों से रेपो रेट में की गई कटौती का लाभ आखिरी लाभार्थी तक पहुंचाने के लिए भी कहा है। रिजर्व बैंक आर्थिक सुस्ती को खत्म करने के लिए इस साल 5 बार रेपो रेट में कटौती कर चुका है। लेकिन इसका कोई असर देखने में नहीं आया है। महंगाई बढ़ने की आशंका रिजर्व बैंक को भी है। इसलिए रिजर्व बैंक ने महंगाई के अनुमान बढ़ा दिए हैं। जाहिर है, अगले मार्च तक आम लोगों को महंगाई से राहत नहीं मिलेगी।

महंगाई और आर्थिक सुस्ती के चलते कई ख्यात वित्तीय संस्थानों ने भारत की विकास दर को ले कर अपने अनुमान घटा दिए हैं। इनमें एशियन डेवलपमेंट बैंक, अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों- मूडीज और एस एंड पी प्रमुख हैं। देश की प्रतिष्ठित संस्था नेशनल कौंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) ने वित्त वर्ष 2019-20 के लिए विकास दर का अनुमान घटा कर 4.9 फीसदी कर दिया है जो अब तक आए विकास दर के सभी संशोधित अनुमानों में सबसे कम है। इसने कहा है कि मौजूदा मौद्रिक नीति के उपायों से विकास दर में जान फूंकना मुश्किल है। इसके लिए सरकारी प्रोत्साहनों की जरूरत है। इसके लिए सरकारी घाटे को बिना बढ़ाए खर्च बढ़ाने की दरकार है।

मोदी सरकार के लिए सरकारी व्यय बढ़ाना चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के बार-बार आग्रह के बावजूद सरकारी विभागों ने हजारों करोड़ रुपये के भुगतान अटका रखे हैं। लगातार आर्थिक सुस्ती से मोदी सरकार का राजस्व संग्रह लक्ष्य से पीछे चल रहा है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर संग्रह की वृद्धि पिछले साल के मुकाबले कम है। रिजर्व बैंक द्वारा 55 हजार करोड़ की अतिरिक्त राशि देने के बाद भी सरकार के आय-व्यय में भारी असंतुलन बना हुआ है। सरकारी खजाने की माली हालत यह है कि मोदी सरकार वस्तु और सेवा कर का वाजिब हिस्सा भी राज्य सरकारों को समय से नहीं दे पा रही है। कई राज्य सरकारों का अगस्त-सितंबर का बकाया मोदी सरकार पर है जो हजारों करोड़ रुपये में है।

अब मोदी सरकार की उम्मीदें सरकारी उपक्रमों के विनिवेश पर टिकी हुई हैं। मोदी सरकार ने मुनाफे में चलने वाली पेट्रोलियम कंपनियों को बेचने का निर्णय लिया है। वित्त मंत्री को उम्मीद है कि मार्च, 20 तक यह विनिवेश पूरा हो जाएगा। इससे सरकारी घाटे को साधने में मोदी सरकार को भारी मदद मिल सकती है। गौरतलब है कि मौजूदा आर्थिक मंदी (वित्त मंत्री के अनुसार, आर्थिक सुस्ती) से उबरने के लिए मोदी सरकार ने कई कदम उठाए हैं। काॅरपोरेट सेक्टर को निगम कर में भारी राहत मोदी सरकार ने दी है। रियल्टी सेक्टर को उबारने के लिए अधिक कर्ज देने के उपाय किए गए हैं। सार्वजनिक बैंकों से लघु और छोटे उदयोगों (एसएमई) को ज्यादा कर्ज मुहैया कराने को सरकार ने कहा है।


वित्त मंत्री के अनुसार, अक्टूबर और नवंबर में सार्वजनिक बैंकों ने कर्ज बांटने के लिए 250 जिलों में कर्ज मेले आयोजित किए जिनमें इस अवधि में कुल 4.91 लाख करोड़ रुपये के कर्ज गैर बैंक कर्ज दाताओं, छोटे और लघु उद्योग और किसानों के बीच वितरित किए गए। अक्टूबर में 2.52 करोड़ और नवंबर महीने में 2.39 लाख करोड़ रुपये के कर्ज इन क्षेत्रों को दिए गए। बिजनेस अखबार मिंट की एक रिपोर्ट के अनुसार, रिजर्व बैंक द्वारा 6 दिसंबर को जारी पाक्षिक क्रेडिट ग्रोथ (कर्ज बढ़ोतरी) के आंकड़े वित्त मंत्रालय के दावों में भारी अंतर को दर्शाते हैं। रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, 27 सितंबर से 22 नवंबर तक क्रेडिट ग्रोथ में खाद्य कर्जों समेत 89,605 करोड़ रुपये की इंक्रीमेंटल क्रेडिट ग्रोथ हुई। इसमें गैर खाद्य कर्ज की मात्रा 58,386 करोड़ रुपये है। इसका अर्थ यह है कि नवंबर के आखिरी 8 दिनों में भारतीय सार्वजनिक बैंकों ने 4.31 लाख करोड़ रुपये के कर्ज बांटे। इस बाबत अखबार ने वित्त मंत्रालय से जानकारी मांगी लेकिन मंत्रालय ने इसके कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं कराए। ये कर्ज मेले भी आर्थिक सुस्ती को खत्म करने के लिए सरकारी उपायों में शामिल हैं।

देश के अनेक अर्थ विशेषज्ञों का कहना है कि अर्थव्यवस्था की डगर अब भी चुनौतीपूर्ण बनी रहेगी। मोदी सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने ताजा आलेख में कहा है कि यह कोई साधारण स्थिति नहीं है। यह ग्रेट स्लोडाउन है और भारतीय अर्थव्यवस्था आईसीयू (गहन चिकित्सा केंद्र) की तरफ जाती दिख रही है। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी- स्टैंडर्ड एंड पूअर्स ने चेतावनी दी है कि देश आर्थिक सुस्ती से नहीं उबरता है, तो वह देश की संप्रभु रेटिंग कम कर देगी।

अब हाल ही में पारित नागरिक संशोधन अधिनियम से देश के कई हिस्सों में उबाल आया हुआ है और जनजीवन ठप है। इसकी एक बड़ी आर्थिक कीमतअर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ेगी। गृह मंत्री बार-बार देश में एनआरसी करने की बात कर रहे हैं। अभी इसकी कोई तारीख और प्रक्रिया तय नहीं है, पर असम में हुई एनआरसी के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय स्तर पर इस गणना से काफी समय, धन और ऊर्जा इसमें बिना वजह खप जाएगा।

असम में एनआरसी पर करीब 1600 करोड़ रुपये का सरकारी खर्च आया था और नागरिकों के लगभग 8 हजार करोड़ रुपये इसमें खाक हो गए थे। जब यह राष्ट्रीय स्तर पर लागू होगी, तब नागरिकता सिद्ध करने के लिए पूरा देश सरकारी दफ्तरों के चक्कर काट रहा होगा। मोटा अनुमान है कि पूरे देश में एनआरसी कराने में तकरीबन 4 लाख करोड़ का बोझ जनता पर पड़ेगा और लंबे समय के लिए आर्थिक गतिविधियां सुस्त हो जाएंगी। इसका सीधा असर सकल घरेलू उत्पाद और विकास दर पर पड़ना लाजमी है। अरसे से मोदी सरकार के लिए राजनीतिक हित प्राथमिक बने हुए हैं जिससे आर्थिक मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं। देश में बेरोजगारी पिछले 45 सालों के सर्वोच्च स्तर पर है और अधिसंख्य आबादी की आय वृद्धि न्यूनतम पर।

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