खरी-खरीः अयोध्या से भले अपने ‘न्यू इंडिया’ में कदम रख लें मोदी, लेकिन भविष्य गांधी-नेहरू के भारत का ही है

5 अगस्त, 2020 को भले ही मोदी के सपनों के भारत की दिशा में बड़ा कदम उठने जा रहा हो, पर आज नहीं तो कल देश गांधी और नेहरू के आधुनिक विचारों और ‘सर्वधर्म समभाव’ की हिंदू प्रथा पर लौटेगा ही। क्योंकि इतिहास को केवल पुरानी घृणाओं में बांध कर नहीं रखा जा सकता है।

फोटोः सोशल मीडिया
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ज़फ़र आग़ा

पांच अगस्त, 2020 भारतीय राजनीति ही नहीं, अपितु भारतीय समाज का एक अविस्मरणीय दिवस माना जाएगा। यह वह ऐतिहासिक दिवस है, जिस रोज राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन तो होगा ही, साथ ही नरेंद्र मोदी जिस ‘न्यू इंडिया’ की बात कहते रहे हैं, उसमें इस तारीख को मील का पत्थर माना जाएगा। यह ‘न्यू इंडिया’ विशुद्ध रूप से ‘हिंदू राष्ट्र’ है। भले ही भारतीय संविधान में अभी भी ‘सेक्युलर’ शब्द हो परंतु भारतीय गणतंत्र अब संपूर्ण रूप से एक हिंदू राष्ट्र का स्वरूप ले चुका है।

वैसे भी, आंबेडकर के संविधान का कोई अर्थ नहीं बचा है। और नागरिकता संशोधन कानून द्वारा नागरिकता को धर्म से जोड़कर संविधान को भी हिंदू स्वरूप दे दिया गया। आखिर, जब संविधान यह कहे कि मुस्लिम वर्ग के अतिरिक्त पड़ोसी देशों से आए सभी धर्मों के लोगों को भारतीय नागरिकता मिल सकती है, तो फिर यह स्पष्ट है कि मुस्लिम नागरिक अब इस देश में संवैधानिक रूप से दूसरी श्रेणी का नागरिक हो गया। यही तो था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सपना जो नरेंद्र मोदी के हाथों साकार हुआ।

नरेंद्र मोदी की भारतीय इतिहास में उन हिंदू नेताओं में गणना होगी, जिन्होंने हिंदू समाज के एक बड़े वर्ग के वे सारे सपने साकार कर दिए, जिसकी कामना भारतीय समाज में साल 1857 में मुगल शासन के अंत के तुरंत पश्चात जाग उठी थी। अंग्रेजों के उदय के पश्चात और मुगलों के अंत के बाद भारतीय समाज में यह चर्चा आरंभ हो गई थी कि अंग्रेजों के बाद सत्ता का अधिकार हिंदुओं को होगा। भारत आर्यावर्त था जिस पर पहले मुसलमानों ने कब्जा किया, फिर अंग्रेज आ गए। अतः अंग्रेजों के जाने के बाद भारतीय सत्ता पर हिंदुओं का पहला अधिकार होना चाहिए।

‘आनंदमठ’ से लेकर आर्य समाज, हिंदू महासभा और अंततः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक सभी इस विचारधारा के स्रोत रहे। स्वयं कांग्रेस में बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और मदन मोहन मालवीय- जैसे नेता भी लगभग इस देश पर हिंदू छाप के हक में थे। मोहम्मद अली जिन्ना तो गांधी जी पर भी हिंदू नेता होने का आरोप लगाते थे, जो बंटवारे के तुरंत बाद गलत साबित हुआ।

यदि अब आप आधुनिक भारतीय इतिहास पर एक निगाह डालें तो कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि यदि गांधी जी और जवाहरलाल नेहरू न होते तो नरेंद्र मोदी के हाथों जिस हिंदू राष्ट्र की स्थापना अब हुई है, उसकी नींव सन 1947 में ही रख दी गई होती। परंतु गांधी, नेहरू और स्वयं हिंदू समाज के एक बड़े उदारवादी समूह ने उस समय भारत को एक उदारवादी और आधुनिक देश का स्वरूप दिया।

परंतु स्वतंत्रता के केवल 73 वर्षों बाद आज भारत का जो स्वरूप है, उसमें इस देश के मुसलमान के तमाम संवैधानिक अधिकार लगभग समाप्त हो चुके हैं। अब उसका ‘पर्सनल लॉ’ भी महत्वहीन हो चुका है। उसकी मस्जिद, मंदिर के आगे सिर नहीं उठा सकती है। बाबरी मस्जिद गिराकर ठीक उसी स्थान पर मंदिर बनवाकर यही संदेश तो दिया जा रहा है कि हिंदू आस्था, मुस्लिम आस्था से सर्वोच्च है। मुस्लिम की नागरिकता तो नागरिकता संशोधन कानून पहले ही खतरे में डाल चुका है।

केवल इतना ही नहीं, बीजेपी के कुछ नेता यह भी कह रहे हैं कि भारतीय नागरिकता खोने वाले मुसलमानों की ‘घर वापसी’ करवाकर उनको हिंदू समाज में मिला लिया जाए, अर्थात जो सलूक आदिवासियों के साथ हुआ, वही सलूक इस देश के मुसलमान के साथ किया जाए। असम में यह प्रोजेक्ट आरंभ हो चुका है। बाकी देश में कदापि बहुत समय नहीं लगेगा। फिर कश्मीर में अनुच्छेद 370 समाप्त कर वहां देश भर से आए हिंदुओं को बसने का अधिकार देकर देश के केवल एक मुस्लिम बहसंख्यक प्रांत की मुस्लिम आबादी को अल्पसंख्यक बनाने का भी कार्य प्रारंभ हो चुका है।

भारतीय समाज में मुस्लिम शासन काल के प्रति जो एक ऐतिहासिक स्तर पर घृणा रही है, वह एक कटु सत्य है। भले ही अमेरिकी राजनीतिक विज्ञानी सैमुअल हंटिंगटन की थ्योरी ‘क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन्स’ को मार्क्सवादी न मानें, परंतु संपूर्ण पश्चिमी जगत में फैला ‘इस्लामोफोबिया’ यह सिद्ध करता है कि दो सभ्यताओं का टकराव सदियों की शत्रुता उत्पन्न करता है। और उस शत्रुता को मोदी, एर्दोगन और बुश तथा ट्रंप- जैसे नेता इस आधुनिक दौर में भी भुना सकते हैं।

अतः इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मुस्लिम शासन काल से आर्यवंशी हिंदू सभ्यता को जो क्षति पहुंची, उसने मनोवैज्ञानिक रूप से इस देश में भी मुस्लिम घृणा के बीज बो दिए जो अब एक पीपल के समान घने वृक्ष के रूप में नरेंद्र मोदी के रूप में देश पर छाया हुआ है। आज देश के उदारवादी वर्ग को इस बात पर बहुत आश्चर्य होता है कि नोटबंदी हुई और अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई, परंतु नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में कोई अंतर नहीं पड़ा। लॉकडाउन ने करोड़ों के काम छीन लिए और देश की बड़ी आबादी भूखमरी की कगार पर पहुंच गई, पर मोदी आज भी देश के सर्वोच्च नेता बने हुए हैं।

आखिर यह क्या रहस्य है! इसका कारण यही है कि हिंदू-मुस्लिम सभ्यताओं के घमासान से हिंदू मन में जो मुस्लिम समाज के प्रति घृणा उत्पन्न हुई थी, मोदी जी उसका बदला चुकाकर आज उस सदियों पुरानी पीड़ा का हिसाब बराबर कर रहे हैं और भारत को पुनः आर्यावर्त का स्वरूप दे रहे हैं। नोटबंदी और लॉकडाउन के बावजूद मोदी को पड़ने वाला लगभग हर वोट उसी ऐतिहासिक बदले का ‘थैंक्यू’ होता है।

परंतु इतिहास एक अद्भुत रचना है जो किसी एक समय से बंधी अथवा थमी नहीं रह सकती है। इतिहास केवल भूतकाल ही नहीं, जिसमें कोई समाज केवल अपनी सदियों पुरानी पराजय का बदला लेकर संतुष्ट रहे। इतिहास न रुकने वाला आधुनिक काल भी है, जिसके अपने तकाजे होते हैं। भारतीय इतिहास को भी केवल भूतकाल के चश्मे और बाबरी मस्जिद की पीड़ा से सदैव नहीं देखा और महसूस किया जा सकता है। भले ही जब मुसलमान इस देश में आए तो उनका हिंदू सभ्यता के साथ एक घमासान हुआ। परंतु उनके सदियों के शासनकाल और उनके हिंदू समाज के साथ रोजमर्रा के उठने-बैठने ने उनको इस देश और समाज का अटूट अंग बना दिया।

यदि अब आप बाबरी मस्जिद की सजा उस अंग को काट कर देंगे तो स्वयं भारतवर्ष को उसकी पीड़ा उठानी पड़ेगी। आज संपूर्ण भारतवर्ष उस पीड़ा को झेल रहा है। हिंदुओं के मन में सदियों पुरानी पीड़ा को राम मंदिर आंदोलन के रूप में जगाकर संघ भले ही हिंदू राष्ट्र का सपना साकार करने में सफल हो गया हो परंतु आज भारत का संसार में वह रूप नहीं बचा जिस पर हमको गर्व था या जिसकी संसार में मिसाल दी जाती थी। आज भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली पर उंगली उठ रही है। आज हमारे पड़ोसी हमसे दूर जा रहे हैं। आज चीन भारतीय जमीन पर बैठा है और हम उसका अभी तक कुछ बिगाड़ नहीं पा रहे हैं।

भले ही नरेंद्र मोदी ने गांधी और नेहरू के भारत की नींव तोड़कर एक ‘नवीन भारत’ के निर्माण की नींव रख दी हो, परंतु ऐतिहासिक घृणा के निर्माण पर बना मोदी का ‘नवीन भारत’ समृद्ध भारत कभी नहीं हो सकता है। जैसा अभी उल्लेख हुआ कि इतिहास केवल भूतकाल ही नहीं हो सकता है। वैसे ही मोदी का सदियों पहले की घृणाओं पर आधारित भारत भी सदा टिका रहने वाला भारत नहीं हो सकता है। भारतीय समाज को सऊदी समाज के स्तर पर नहीं लाया जा सकता।

केवल भारतीय इतिहास ही नहीं अपितु स्वयं हिंदू समाज भी ‘सर्वधर्म समभाव’ की रीति में आस्था रखता है। फिर भारतीय समाज की सत्तर वर्ष पुरानी लोकतंत्र और आधुनिकता की एक परंपरा है जिसकी धारा को नरेंद्र मोदी जैसे कुछ समय के लिए भले ही मोड़ सकते हों, परंतु उस प्रवाह को सदैव के लिए रोका नहीं जा सकता है। पांच अगस्त, 2020 को भले ही मोदी के सपनों के भारत की दिशा में बड़ा कदम उठने जा रहा हो, आज नहीं तो कल भारत गांधी और नेहरू के आधुनिक विचारों और ‘सर्वधर्म समभाव’ की हिंदू प्रथा पर लौटेगा ही। क्योंकि इतिहास को केवल पुरानी घृणाओं में बांध कर नहीं रखा जा सकता है।

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