भारतीय समाज में मचल रही है मुलायम सिंह यादव की छेड़ी क्रांति, जब भी ये फूटेगी, वही होंगे उसके नायक

मुलायम सिंह यादव नहीं रहे और उनके साथ ही उत्तर प्रदेश की राजनीति का एक युग भी समाप्त हो गया। वह कोई मामूली युग नहीं था। उस युग ने भारतीय राजनीति को ही बदल दिया।

फोटो: सोशल मीडिया
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ज़फ़र आग़ा

मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव ने जिस राजनीतिक एवं सामाजिक क्रांति की नींव रखी, वे उसके दूरगामी प्रभाव समझ ही नहीं सके। दोनों ही यादव क्षत्रपों ने इस परिवर्तन को केवल सत्ता प्राप्ति का माध्यम समझा जबकि उन्होंने जिस राजनीति की नींव रखी थी, वह सत्ता परिवर्तन ही नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन का भी मार्ग था। इस समझ के अभाव के कारण वीपी सिंह का सामाजिक न्याय का सपना धीरे-धीरे संकीर्ण जातीय समीकरण एवं एमवाई-जैसे चुनावी प्रोग्राम तक सीमित होता चला गया।

मुलायम सिंह यादव नहीं रहे और उनके साथ ही उत्तर प्रदेश की राजनीति का एक युग भी समाप्त हो गया। वह कोई मामूली युग नहीं था। उस युग ने भारतीय राजनीति को ही बदल दिया। सन 1989 में वीपी सिंह के हाथों केन्द्र, उत्तर प्रदेश और बिहार-जैसे प्रदेशों में कांग्रेस के पतन के साथ मंडल की जो राजनीति पैदा हुई, उसने देश की राजनीति की दिशा एवं दशा ही बदल दी। सब जानते हैं कि सन 1991 में वीपी सिंह का भी लगभग राजनीतिक पतन हो गया। लेकिन उन्होंने पिछड़ों के आरक्षण के साथ जो राजनीति शुरू की, उससे क्षेत्रीय स्तर पर दो बड़े नेता उभरे। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू प्रसाद यादव। दोनों यादव क्षत्रपों ने केवल अपने-अपने प्रदेशों ही नहीं बल्कि देश की भी राजनीति ऐसी प्रभावित की कि उसका प्रभाव आज तक देखा जा सकता है। मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश और लालू यादव ने बिहार में उत्तरी भारत में पहली बार पिछड़ों के हाथों तक सत्ता पहुंचा दी। यह राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक और किसी हद तक मनुवादी व्यवस्था पर भी गहरा प्रहार था। इस राजनीति का पहला प्रभाव तो यह हुआ कि देश में आजादी के बाद जो कांग्रेस के नेतृत्व में केन्द्रीकृत राजनीति का एक युग शुरू हुआ था, उसमें दरार पड़ गई। जमीनी स्तर पर इसका प्रभाव यह पड़ा कि उत्तर प्रदेश एवं बिहार-जैसे सबसे अहम राजनीतिक प्रदेशों से कांग्रेस के पैर ऐसे उखड़े कि अब तक नहीं जम सके। केन्द्र में इस परिवर्तन के कारण गठबंधन की राजनीति का युग जल्द ही शुरू हो गया। उत्तर प्रदेश एवं बिहार में राजनीति का केन्द्र मुद्दों से हटकर जातीय हो गया। इस परिवर्तन ने केवल सामाजिक परिवर्तन ही नहीं उत्पन्न किए बल्कि मनुवाद पर आधारित धार्मिक परंपराओं को भी गंभीर खतरे में डाल दिया। 

आजादी के बाद यह हिन्दू समाज एवं धर्म का सबसे बड़ा संकट था। मुलायम सिंह यादव एवं लालू प्रसाद यादव इस संकट एवं परिवर्तन के मुख्य सूत्रधार थे। इन दोनों नेताओं ने हिन्दू सभ्यता की मुख्य गंगा-यमुना बेल्ट में ही लगभग तीन दशकों के लिए मनुवादी व्यवस्था को हिलाए रखा। स्पष्ट है कि सदियों पुरानी जमी सामाजिक व्यवस्था को इस संकट से निपटने का प्रयास स्वाभाविक था। यह कार्य कांग्रेस पार्टी-जैसी उदार, प्रगतिशील, नवीन एवं आधुनिक मूल्यों पर आधारित तथा मध्यवर्गीय संस्था के हाथों संभव नहीं था। यही कारण है कि मुलायम एवं लालू के उदय के साथ कांग्रेस भी कमजोर पड़ने लगी। लेकिन इसी के साथ-साथ अब एक घोर हिन्दूवादी संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में कमंडल राजनीति का भी उदय हुआ जिसकी राजनीतिक कमान भारतीय जनता पार्टी के हाथों में थी। इसको पहले लालकृष्ण आडवाणी ने गति दी और अंततः नरेन्द्र मोदी ने हिन्दुत्व का खुला डंका पीटकर अपनी चरम सीमा पर पहुंचा दिया है।


पिछले सप्ताह मुलायम सिंह यादव का देहांत हो गया एवं लालू प्रसाद यादव अपने स्वास्थ्य की आखिरी लड़ाई लड़ने विदेश चले गए। इसी के साथ-साथ उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का पिछले दो चुनावों में वर्चस्व टूट गया। बिहार में सत्ता की डोर अभी भी पिछड़ों के हाथ में है। लेकिन यह सब देख एवं समझ रहे हैं कि हिन्दुत्व के सैलाब से निपट पाना आखिलेश एवं तेजस्वी-जैसे मुलायम एवं लालू के बेटों के वश की बात नहीं है। कमजोरी अखिलेश और तेजस्वी यादव की नहीं है। मुलायम एवं लालू प्रसाद यादव ने जिस राजनीतिक एवं सामाजिक क्रांति की नींव रखी, वे उसके दूरगामी प्रभाव समझ ही नहीं सके। दोनों ही यादव क्षत्रपों ने इस परिवर्तन को केवल सत्ता प्राप्ति का माध्यम समझा जबकि उन्होंने जिस राजनीति की नींव रखी थी, वह सत्ता परिवर्तन ही नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन का भी मार्ग था। इस समझ के अभाव के कारण वीपी सिंह का सामाजिक न्याय का सपना धीरे-धीरे संकीर्ण जातीय समीकरण एवं एमवाई-जैसे चुनावी प्रोग्राम तक सीमित होता चला गया। धीरे-धीरे मुलायम एवं लालू की राजनीति भी केवल यादववाद-जैसे संकीर्ण जातीय एजेंडा तक सीमित रह गई। अंततः एक जातीय हित परिवार हित में बदल गया। 

उधर, भगवान राम के कवच के साथ भारतीय मुसलमान को बाबरी मस्जिद की आड़ में हिन्दू शत्रु की छवि देकर संघ एवं बीजेपी ने लगभग पूरी व्यवस्था के सहयोग से सामाजिक परिवर्तन को रोकने का जो प्रयास किया, वह बहुत ही प्रभावशाली था। मुलायम एवं लालू की तीन दशकों में जातीय व्यवस्था में फंसती क्रांति संघ की हिन्दुत्व की प्रतिक्रांति (काउंटर रिवोल्यूशन) के आगे शिथिल पड़ने लगी। अब इस समय हिन्दुत्व का डंका बज रहा है। इसका प्रभाव यह है कि एक बार फिर सत्ता एवं समाज दोनों में उच्च जातीय वर्चस्व है। नरेन्द्र मोदी स्वयं पिछड़ी जाति से हैं लेकिन संघ की छत्रछाया में प्राचीन जातीय व्यवस्था एवं उसके हितों के संरक्षक हैं। इधर, उत्तर प्रदेश पूरी तौर पर योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में उच्च जातीय हाथों में है। पिछड़ों का राज समाप्त हो चुका है। उनके हाथों से सत्ता ही नहीं गई बल्कि अब आरक्षण भी धीरे-धीरे कमजोर हो रहा है। मुलायम की राजनीति एवं क्रांति का असर उत्तर प्रदेश में लगभग समाप्ति की ओर है। बिहार अभी भी लड़ रहा है। लेकिन कब वहां भी पिछड़ों को पीछे धकेल दिया जाए, कहना कठिन है।

लेकिन मुलायम एवं लालू ने जो क्रांति छेड़ी थी, वह भले ही अभी हिन्दुत्व के हाथों धकेल दी गई हो लेकिन भारतीय समाज में वह क्रांति मचल रही है और कभी भी फूट सकती है। इस क्रांति में कब एवं कितना समय लगेगा, यह इतिहास ही तय करेगा। लेकिन जब भी फिर से यह क्रांति फूटेगी, मुलायम उसके फिर एक हीरो होंगे। 

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