विष्णु नागर का व्यंग्यः महात्मा तो गोडसे थे, पर पब्लिक कंजम्प्शन के लिए गांधी कहना पड़ता है!

आजकल मैं गोडसे और गांधी में गड़बड़ा जाता हूं। असली महात्मा तो गोडसे ही थे पर दुर्भाग्यवश पब्लिक कंजम्प्शन के लिए गांधी कहना पड़ता है। अभी कुछ समय और यह ड्रामा चलाना पड़ेगा और इस कला में तो मेरे चंपू मैं दिलीप कुमार का भी उस्ताद ठहरा। क्या कहते हो, गलत कहा?

फोटोः सोशल मीडिया
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विष्णु नागर

हां-हां नमस्कार। गोदी मीडिया से हो? आओ-आओ, मेरी प्रतिदिन, प्रतिक्षण सेवा करने, चंपी-मालिश करने के लिए, तुम्हारा स्वागत है, अभिनंदन है, अभिवादन है और भी जितने अभि से शुरू होने वाले हिंदी शब्द हैं या हो सकते हैं, उन सबसे तुम्हारा स्वागत है, मेरे लाल! तुम्हारे लिए तो मेरे दरवाजे, मेरी खिड़कियां, मेरा दिल, मेरी पॉकेट सब खुली है, पुनः-पुनः स्वागत है!

ऐ जितने भी अधिकारी हैं, उन्हें यहां बुलाओ, कहो कि यहां आकर इनके अभिनंदन में जोरदार ताली बजाएं। इसकी गूंज पाकिस्तान तक ही नहीं, वाशिंगटन तक भी पहुंचनी चाहिए। जिस मीडिया को मेरा यार ट्रंप तक इस हद तक गोदी में बैठाकर खेला नहीं सका, उसे मैंने खेलाया और अंगूठा चूसना सिखाया। हा-हा-हा। मेरे सच्चे साथी चंपुओं सब मायामोह है। ये पद, ये कुर्सी, ये ठाठ, ये बाट, ये कार, ये हवाई जहाज, ये विदेश यात्राएं सब!

तुम जैसे चंपू और भक्तगण ही, राष्ट्र के सच्चे सेवक हैं, देशभक्त हैं। पर देशभक्तों, यार हुआ क्या है कि तुम अब ज्यादा इफेक्टिव साबित नहीं हो रहे हो। खैर कोई बात नहीं, तुम भी लगे रहो, हम भी लगे रहते हैं- एनएसए वगैरह लाकर! चलो छोड़ो अभी। अच्छा ये बताओ क्या लोगे- चाय, काफी, जूस या जो भी मन हो, जैसे कोई और मनपसंद चीज। संकोच मत करो, मुफ्त का माल है, भगवान मेहरबान है। खाओ-पीओ, मेरी सेवा करो और मस्त रहो! चलो तो फिर सवाल ही करो, मगर आज मन इतना बाग-बाग है कि सवाल-जवाब का मन नहीं हो रहा। मन हो रहा है असली मन की असली बात करें तुमसे। तुम्हारे चैनल के लिए कभी अलग से बात करेंगे!

ये जो जगह-जगह आंदोलन-फांदोलन चल पड़े हैं, इनके बारे में आपके क्या विचार हैं?

देखो जी, इस बात को रिकॉर्ड कतई मत करना, पर मेरे पास विचार हैं कहां? विचार करने के संस्कार मिलते तो विचार करता। वैसे भी पढ़ा-लिखा हूं नहीं। अब आपसे क्या छुपाना और वैसे सारा देश भी जानने लगा है कि मैं हाईस्कूल पास हूं और मेरी डिग्रियां तो आप जानते ही हो कि कैसी हैं!वैसे संघ का शुरू से कार्यकर्ता रहने का एक बड़ा लाभ यह मिला कि पढ़ने-लिखने से मुक्त रहा, जो बचपन से ही मुझे नापसंद था! रहस्य की बात बताऊं, मैंने तो गुरुजी को भी नहीं पढ़ा है। 'बौद्धिक' में जो सुना, उसी से ज्ञान प्राप्त हो गया! इसलिए यह मत पूछो कि मेरे विचार क्या हैं।

वैसे मेरे चंपू, तुमने मेरे मुंह की बात छीन ली, ये कहकर कि ये आंदोलन नहीं, फांदोलन है। अभी तक सब मेरी बात चुपचाप सुन रहे थे,अब मुझे फांदकर ये आगे बढ़ना चाहते हैं। मैं इन सबको सबक सिखा दूंगा। महात्मा गांधी की कसम खाकर कहता हूं। नहीं सॉरी, गलत बोल गया, महात्मा गोडसे की कसम खाकर कहता हूं। आजकल मैं गोडसे और गांधी में गड़बड़ा जाता हूं। असली महात्मा तो गोडसे ही थे पर दुर्भाग्यवश पब्लिक कंजम्प्शन के लिए गांधी कहना पड़ता है। अभी कुछ समय और यह ड्रामा चलाना पड़ेगा और इस कला में तो मेरे चंपू मैं दिलीप कुमार का भी उस्ताद ठहरा। क्या कहते हो, गलत कहा?


अरे आप और गलत? हो नहीं सकता। जिस दिन आप गलत हो गए, सूरज पश्चिम से निकलने को मजबूर हो जाएगा।

हा-हा-हा, बिल्कुल सही कहा, मेरे प्यारे चंपू।

मगर एक सवाल है, मतलब ऐसे ही, सीरियसली मत लीजिएगा कि गांधीजी तो आपके राज्य की विभूति थे?

विभूति थे? अरे मेरा सत्यानाश करके रख दिया है। लोग कहते हैं कि गांधीजी सत्य के प्रयोग करते थे और उसी राज्य से यह ऐसा निकला, जो जब देखो, तब असत्य के प्रयोग ही करता है। अरे एक मां के दो भाई एक जैसे नहीं होते, तो एक प्रदेश के दो  महात्मा मतलब मैं और गांधी एक जैसे कैसे हो सकते हैं? मैं भी अगर सत्य के प्रयोग करता तो फिर मेरे होने का फायदा देश को क्या मिलता? देश को जाने दो भाड़ में, मुझे क्या मिलता?

आप कश्मीर कब जाएंगें?

क्यों जाएं? काले झंडे देखने जाएं? गो बैक सुनने जाएं? मैं यह सब सहन नहीं कर सकता। और अगर कभी गया तो मीडिया को बताकर जाऊंगा।

और असम?

पर्याप्त संख्या में डिटेंशन सेंटर बन जाने पर और उनमें पर्याप्त संख्या में उनको यानी उनको ठूंसे जाने पर।

वैसे आप कभी सच भी बोलते हैं?

अभी बोल रहा हूं। वैसे सच कहूं, सच कहने की आदत कभी रही नहीं। इसकी जरूरत ही नहीं पड़ी। नागपुर से इतने अच्छे संस्कार मिले हैं कि कभी गलती से किसी से प्राइवेट में सच बोल दिया तो बोल दिया। वैसे अब झूठ की ऐसी लत पड़ चुकी है कि उसे सच की तरह बोल लेता हूं।


ये बौद्धिक आतंकवाद क्या होता है?

अरे ये वामी, ये उदारवादी लोग हमारे अनपढ़ होने की मजबूरी का फायदा उठाना चाहते हैं। हमें अपने ज्ञान से आतंकित करना चाहते हैं। यह है बौद्धिक आतंकवाद। हम इनके झांसे में नहीं आने वाले। हम अनपढ़ों की आबादी का और अधिक विकास करना चाहते हैं, इसके शिखर तक ले जाना चाहते हैं, ताकि हम बने रहें, हिंदू राष्ट्र बनता रहे। जेएनयू वगैरह इसीलिए रोज हमारे निशाने पर रहते हैं। हम समझ गए हैं कि दलित, आदिवासी, मुसलमान भी अब अपने बेटे-बेटियों को पढ़ाना चाहते हैं, नंगे-भूखे नहीं रहना चाहते। मैं मनु महाराज के संविधान की कसम खाकर कहता हूं कि बिना इसकी घोषणा किए,अंबेडकर का संविधान कूड़े में फेंककर ही दम लूंगा। और फेंक दिया तो फिर मैं ही मैं, मैं ही मैं हूंगा। बताओ झूठ कहा या सच?

झूठ।

झूठ कहा?

आप ही ने तो कहा था कि मुझे झूठ कहने की लत पड़ चुकी है!

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