पहले आम चुनावों में क्या थीं पंडित जवाहर लाल नेहरू की चिंताएं...

आज पंडित जवाहर लाल नेहरू की 55वीं पुण्य तिथि है। ऐसे में हमारा ध्यान हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव से हटकर 1951-52 में हुए देश के पहले आम चुनाव की तरफ जाता है।

फोटो : सोशल मीडिया
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मृदुला मुखर्जी

नेहरू के विचार में भारत को एक एकजुट राष्ट्र के तौर पर मजबूत बनाए रखने के लिए लोकतंत्र बेहद जरूरी है। देश की विविधता के मद्देनजर ऐसा सिर्फ अहिंसकर तरीके से एकसाथ जुड़कर, जीवन के लोकतांत्रिक तौर-तरीकों, न कि जबरदस्ती थोपे गए नियमों के आधार पर हो सकता है। देश के एकजुट रखने के लिए विभिन्न सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक रिवाजों को जगह देने वाले लोकतांत्रिक ढांचे में ही संभव है।

“यह देश इतना बड़ा है, इसमें इतनी विविधता है कि कोई भी ‘शक्तिशाली व्यक्ति’ लोगों और उनके विचारों को नहीं कुचल सकता।”

1951-52 में हुए पहले आम चुनावों में पंडित नेहरू ने करीब 25,000 मील के दौरे किए, और करीब 3.5 करोड़ भारतीयों को संबोधित किया।

इस पूरी कवायद में करीब 10 लाख अधिकारी और कर्मचारी शामिल हुए थे। घर-घर किए गए सर्वे के आधार पर करीब 17.3 करोड़ वोटर पंजीकृत किए गए। इनमें से तीन चौथाई लोग बगैर पढ़े-लिखे थे। चुनाव अक्टूबर 1951 से मार्च 1952 तक 6 माह से ज्यादा समय तक चले। इन चुनावों में 77 राजनीतिक दलों और निर्दलीयों ने कुल 3,772 निर्वाचन क्षेत्रों में हिस्सा लिया। इन चुनावों को लेकर सभी पर्यवेक्षक (भारतीय और विदेशी दोनों) इस बात पर सहमत थे कि यह एक निष्पक्ष चुनाव था।


2 फरवरी 1952 को द मंचेस्टर गार्डियन ने लिखा, “कांग्रेस की कार्यसमिति इस बात से संतोष कर सकती है कि देश ने असाधारण रूप से उस पर विश्वास जताया। अगर अंधेरे से लोकतंत्र की तरफ कोई देश कभी अग्रसर होगा तो वह सिर्फ भारत ही होगा”

चुनाव जिस गंभीरता से संपन्न कराए गए उससे जवाहर लाल नेहरू का संसदीय लोकतंत्र में विश्वास और संकल्प झलकता है। उन्होंने इन चुनावों के दौरान न तो देश विभाजन और न ही इसके बाद हुए सांप्रदायिक हिंसा या फिर देश में आने वाले शरणार्थियों को मुद्दा बनाया और न ही इस आधार पर चुनाव टालने का कोई प्रयास किया।

इसके विपरीत वे तो लोगों के बीच जाने को लेकर अधीर थे और इस बात से खिन्न थे कि आखिर चुनाव पहले क्यों नहीं कराया जा सका। उन्होंने चुनाव को भारत के विचार पर जनादेश में बदल दिया। उन्होंने चुनावों के माध्यम से उन सांप्रदायिक ताकतों को खुली चुनौती दी जिन्होंने महात्मा गांधी की हत्या की थी और जो हिंदू राष्ट्र की मांग कर रहे थे।

लोगों ने समझदारी से सांप्रदायिक ताकतों को हराया, और इन चुनावों में उन्हें सिर्फ 6 फीसदी वोटों के साथ 489 में से मात्र 10 सीटें ही मिल पाईं, जबकि कांग्रेस ने 364 सीटें जीतीं।


चुनावों के दौरान पंडित नेहरू के भाषणों में उनकी चिंता सामने आती है। उन्हें हिंदू महासभा, आरएसएस, अकाली दल, राम राज्य परिषद जैसे सांप्रदायिक दलों और संगठनों से देश को आसन्न खतरे को लेकर चिंता थी। उन्हें इस बात की गहरी चिंता थी कि मुस्लिम लीग की सांप्रदायिक राजनीति के कारण देश पर विभाजन की त्रासदी के बावजूद कुछ लोग सांप्रदायिक विचारधारा के खतरे को नहीं समझ पा रहे थे और हिंदू और सिखों के बीच मतभेद कर रहे थे।

उन्होंने कांग्रेस की कमजोरियों को मानते हुए इसका जबरदस्त बचाव किया क्योंकि देश के लोगों का विश्वास कांग्रेस के साथ था और उन्हें लगता था कि कांग्रेस को देश निर्माण में ऐतिहासिक भूमिक निभानी है।

पहले चुनावों की एक खास बात और थी कि इसमें कहीं भी अपने विरोधियों को लेकर किसी किस्म की दुश्मनी का प्रदर्शन नहीं था, बल्कि कश्मीर, विदेश नीति, शरणार्थी और पूर्वी बंगाल जैसे जटिल मुद्दों को समझाने की कोशिश थी, ताकि देश के आम महिला-पुरुषों को यह समझ आ सकें।

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