जनता की आवाज दबाने से हिल जाती है निरंकुश सत्ता: तानाशाहों के लिए खतरे की घंटी है नेपाल का जनांदोलन

नेपाल में लोगों का गुस्सा हमें याद दिलाता है कि जो शासन या सरकारें झूठे आख्यान गढ़ते हैं या चुनिंदा व्यवसाइयों के सामने बिक जाते हैं, उन्हें उन्हीं लोगों द्वारा मिटा दिया जाता है जिनका प्रतिनिधित्व करने का वे दावा करते हैं।

Getty Images
i
user

हसनैन नकवी

दुनिया की सबसे ऊंची पर्वतीय चोटी की छाया में बसा नेपाल एक बड़े बदलाव का गवाह बन रहा है। युवाओं के नेतृत्व में शुरु हुए भ्रष्टाचार विरोधी प्रदर्शनों ने प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया। नेपाल फिलहाल अनिश्चितता और अस्थिरता में डूबा नजर आ रहा है।

सितंबर 2025 की शुरुआत में, जेन-ज़ी (यानी जेनरेशन ज़ेड) कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में शुरू हुए इन प्रदर्शनों ने लोकतांत्रिक सिद्धांतों को कुचलने वाली सत्ताओं की कमज़ोरियों को उजागर कर दिया है। आंदोलन को कुचलने की कोशिश में सरकारी सुरक्षा बलों के साथ झड़पों में कम से कम 19 प्रदर्शनकारियों की मौत हुई और सैकड़ों घायल हुए। दो दिन की अफरा-तफरी और अशांति के बाद न सिर्फ एक सरकार गिरी है बल्कि दुनिया भर के निरंकुश नेताओं के लिए एक कठोर संदेश भी निकला है। सरकारी इमारतों से उठती लपटें और धुआं और कर्फ्यू तोड़कर आवाज बुलंद करते प्रदर्शनकारी उस शाश्वत सत्य को रेखांकित कर रहे हैं कि: जब अभिव्यक्ति और असहमति के अधिकार का दमन किया जाता है, तो जनता का आक्रोश सबसे ताकतवर सत्ता को भी मिटा सकता है।

जेन-ज़ी क्रांति की मशाल

नेपाल में जारी इस आंदोलन और जेन-ज़ी के विरोध प्रदर्शनों की चिंगारी दरअसल देश में चल रहे व्यवस्थागत भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और आर्थिक असमानता को लेकर पनपती कुंठाओं में छिपी है। भले ही कुछ लोग इसे 'नेपो किड्स' का आंदोलन कहें, लेकिन आंदोलन के निशाने पर तो वह राजनीतिक अभिजात वर्ग है, जो एक ऐसी व्यवस्था पर राज करता है जहां सारे फायदे सिर्फ ऊंची पहुंच वालों को ही मिलते हैं।

काठमांडू और नेपाल के बाकी शहरों में शांतिपूर्ण सभाओं के साथ शुरू हुए ये प्रदर्शन, सरकार द्वारा फेसबुक, यूट्यूब और व्हाट्सएप सहित 26 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पाबीं लगाए जाने के बाद उग्र हो उठे। सरकार की मंशा यह प्रतिबंध लगाकर लोगों के संगठित गुस्से पर अंकुश लगाने की थी। लेकिन 7 सितंबर, 2025 को लगी इस पाबंदी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सीधा हमला माना गया, जिससे डिजिटल रूप से दक्ष युवाओं में और भी ज़्यादा आक्रोश फैल गया। ये युवा तो अपनी लामबंदी और जानकारी साझा करने के लिए इन माध्यमों का इस्तेमाल कर रहे थे।

8 सितंबर तक आते-आते विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गए। दंगा पुलिस ने संसद परिसर के बाहर भीड़ पर आंसू गैस, रबर की गोलियां दागी और फिर फायरिंग भी की, नतीजतन 19 लोगों की मौत हुई और 300 से ज़्यादा घायल हुए। लेकिन दमन के इस प्रयास के विचलित हुए बिना, प्रदर्शनकारियों ने प्रमुख सरकारी इमारतों पर धावा बोल दिया। प्रदर्शनकारियों ने नेपाली कांग्रेस के पार्टी मुख्यालय, प्रमुख नेताओं के घरों और यहां तक कि सिंह दरबार संसद भवन के कुछ हिस्सों में आग लगा दी। ऐसी खबरें भी आईं कि प्रदर्शनकारियों ने संसद में घुसकर तोड़फोड़ की।


दरअसल यह प्रतीक इस बात का था कि लोकतांत्रिक पर बैठकर कैसे सत्ताधारी आम लोगों के साथ विश्वासघात कर रहे थे। काठमांडू में सरकार द्वारा लगाया गया अनिश्चितकालीन कर्फ्यू भी इन प्रदर्शनों को रोकने में नाकाम साबित हुआ, क्योंकि हज़ारों लोग सड़कों पर थे और सरकार से सामूहिक इस्तीफ़े और व्यवस्था में बदलाव की मांग कर रहे थे।

आखिरकार 9 सितंबर, 2025 को प्रधानमंत्री ओली ने इसी अराजकता के बीच इस्तीफे का ऐलान कर दिया। सोशल मीडिया पर लगी पाबंदी भी हटा ली गई, जो इस युग में इसकी निरर्थकता की मौन स्वीकृति थी जहां सूचनाएं वायरल रूप से फैलती हैं। फिर भी, आंदोलन के नेता, जिनमें से कई किशोरावस्था के आखिरी बरस और बीस के दशक के शुरुआती दौर के छात्र हैं, इस बात पर ज़ोर रहे हैं कि यह तो बस शुरुआत है।

नेपाल की सड़कों पर उतरी यह बगावत मुख्यतः एन्क्रिप्टेड एप्स और भूमिगत नेटवर्कों के माध्यम से चल रही थी। और इससे यह भी साबित हो गया कि डिजिटल युग में असहमति को दबाने की कोशिशें कैसे पासा पलट देती हैं और आवाजों को दबाने के बजाय उन्हें और अधिक मुखर कर देती हैं।

नेपाल में लोकतांत्रिक आंदोलन का इतिहास

यह पहला मौका नहीं है जब नेपाल में जनांदोलन ने ऐसा रूप लिया हो। नेपाल में तानाशाही सत्ता को चुनौती देने के जनांदोलनों का समृद्धि इतिहास है। नेपाल के राजशाही से लोकशाही बनने के दौर में बीते सात दशकों के दौरान तीन बड़े जनांदोलन हुए हैं। हर आंदोलन के केंद्र में लोगों को जनतांत्रिक अधिकारों के लिए ही आवाज उठाई गई है।

पहला विद्रोह, 1950-51 में हुआ जिसने, राणा कुलीनतंत्र के एक सदी पुराने निरंकुश राजशाही शासन का खात्मा किया था। राणा कुलीनतंत्र एक ऐसा पारिवारिक राजवंश था जिसने निरंकुश सत्ता का इस्तेमाल कर राजतंत्र को नाममात्र का बना दिया था। इस व्यवस्था के खिलाफ तमाम निर्वासित नेता एकजुट हुए थे और भारत की स्वतंत्रता से प्रेरित इस विद्रोह ने एक बहुदलीय व्यवस्था की स्थापना की था। हालांकि यह व्यवस्था भी अधिक नहीं चली क्योंकि सत्ता पर राजा त्रिभुवन ने पना नियंत्रण मजबूत कर लिया था।

इसके चार दशक बाद, 1990 के जन आंदोलन ने निरंकुशता के विरुद्ध संघर्ष की मशाल फिर से जलाई। यह आंदोलन उस व्यवस्था के खिलाफ था जिसमें 1960 में राजा महेंद्र द्वारा लागू की गई पंचायत प्रणाली के तहत राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और राजतंत्र में सत्ता को केंद्रीकृत करते हुए असहमति का निर्मम दमन किया गया था। फरवरी 1990 में नेपाली कांग्रेस और कम्युनिस्ट गुटों के नेतृत्व में बहुदलीय लोकतंत्र और संवैधानिक सुधारों की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। हफ़्तों तक चली हड़तालों, जुलूसों और झड़पों के बाद राजा वीरेंद्र ने हार मानी थी। इन आंदोलनों में 50 से ज़्यादा लोगों की जान गई थी. जिसके बाद राजा वीरेंद्र ने हार मानते हुए राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध हटाकर एक नया संविधान लागू किया जिसने नेपाल को एक संवैधानिक राजतंत्र में बदला।

इस जीत ने जड़ जमाए निरंकुशता को खत्म करने में एकीकृत असहमति की शक्ति को रेखांकित किया।


सबसे परिवर्तनकारी 2006 का जन आंदोलन था। इस आंदोलन ने नेपाल में राजशाही को पूरी तरह से समाप्त कर दिया। राजा ज्ञानेंद्र ने 2005 में तख्तापलट कर माओवादी विद्रोह के बीच संसद को भंग कर प्रत्यक्ष शासन अपने हाथ में ले लिया था। इस आंदोलन ने सात राजनीतिक दलों और माओवादियों को एक ऐतिहासिक गठबंधन में एकजुट कर दिया था। अप्रैल 2006 में देश भर में लाखों लोगों की भागीदारी वाले व्यापक विरोध प्रदर्शनों ने राजा को संसद को बहाल करने और सत्ता छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया।

2008 तक, नेपाल ने खुद को एक संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित कर दिया, जिससे 240 साल के राजशाही शासन का अंत हो गया। ये ऐतिहासिक विद्रोह नेपाल की उस मजबूत भावना को दर्शाते हैं, जहां विरोध प्रदर्शनों, मीडिया और सभाओं के माध्यम से बेहद विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अभिव्यक्ति का अधिकार बदलाव का कारक रहा है।

असहमति दबाने के खतरे

नेपाल में जो कुछ हुआ, वह निरंकुश शासनों के लिए गहरा सबक है। यह बताता है कि कैसे लोकतांत्रिक संस्थाओं से छेड़छाड़ एक ऐसी प्रतिक्रिया को आमंत्रित करती है जिसे टाला नहीं जा सकता। जब नेता चुनावों में गड़बड़ी करते हैं, जनता की कीमत पर उद्योगपतियों से गठजोड़ करते हैं, या विपक्ष को दबाते हैं, तो वे उस सामाजिक विश्वास को खत्म कर देते हैं जो उनके शासन को बनाए रखता है। नेपाल के 2025 के विरोध प्रदर्शन, उनसे पहले के विरोध प्रदर्शनों की तरह, यह दर्शाते हैं कि लोकतांत्रिक स्वतंत्रता में इस तरह का अतिक्रमण एक सोई हुई जनता को जगाता है और शिकायतों को क्रांतिकारी शक्ति में बदल देता है।

इतिहास के पन्नों में ऐसी कई समानताएं हैं।

सूडान में, 2018-2019 के विद्रोह ने उमर अल-बशीर की 30 साल पुरानी तानाशाही को उखाड़ फेंका। आर्थिक तंगी और रोटी की बढ़ती कीमतों से परेशान लोगों के विरोध प्रदर्शन स्वतंत्रता और न्याय की मांग करते हुए एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन में बदल गए। 100 से ज्यादा लोगों की जान लेने वाले खार्तूम नरसंहार सहित क्रूर दमन के बावजूद, सेना ने अंततः बशीर को सत्ता से बेदखल कर दिया।

2010-2011 का अरब स्प्रिंग एक और भी व्यापक परिदृश्य प्रस्तुत करता है। ट्यूनीशिया में पुलिस भ्रष्टाचार के विरोध में मोहम्मद बौअज़ीज़ी के आत्मदाह से शुरू होकर, विद्रोह की लहर मिस्र, लीबिया, यमन और अन्य जगहों पर फैल गई, जिसने चार तानाशाहों को उखाड़ फेंका।

मिस्र में, होस्नी मुबारक का शासन 18 दिनों तक चले तहरीर चौक विरोध प्रदर्शनों के बाद ढह गया, जहां लाखों लोगों ने आपातकालीन कानूनों, चुनावी धोखाधड़ी और मीडिया सेंसरशिप को समाप्त करने की मांग की थी।

ट्यूनीशिया की ज़ैन अल अबिदीन बेन अली 28 साल सत्ता में रहने के बाद डिजिटल माध्यम से हो रही लामबंदी को रोकने में नाकाम रहीं और भाग गईं। सोशल मीडिया द्वारा ज्वलित इन क्रांतियों ने साबित कर दिया कि अभिव्यक्ति का दमन—इंटरनेट ब्लैकआउट या पत्रकारों की गिरफ़्तारी के ज़रिए—केवल संकल्प को और मज़बूत करता है।


नेपाल के पड़ोस में ही श्रीलंका के 2022 के अरागालय आंदोलन ने राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को आर्थिक पतन और भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया। प्रदर्शनकारियों ने उनके आवास पर कब्ज़ा कर लिया, जो अभिजात वर्ग से सत्ता की वापसी का प्रतीक था।

बांग्लादेश में, चुनावों पर शेख हसीना की सत्तावादी पकड़ और विपक्ष के दमन के ख़िलाफ़ 2024 के छात्र-नेतृत्व वाले विरोध प्रदर्शनों का समापन उनके पलायन के साथ हुआ, और एक अंतरिम सरकार सत्ता में आई। ये दक्षिण एशियाई उदाहरण नेपाल के आंदलोनकारी रुख को दर्शाते हैं, जहां पारदर्शिता की युवाओं की माँगें निरंकुश मुखौटों की कमज़ोरी को उजागर करती हैं।

यूरोप में भी, चेकोस्लोवाकिया में 1989 की वेलवेट क्रांति ने बिना किसी हिंसा के साम्यवादी शासन को ध्वस्त कर दिया, क्योंकि बड़े पैमाने पर प्रदर्शनों और हड़तालों ने शासन को लोकतांत्रिक सुधारों के लिए मजबूर कर दिया। वाक्लाव हावेल जैसे असंतुष्टों के नेतृत्व में, इसने शांतिपूर्ण असहमति की शक्ति पर ज़ोर दिया।

अभिव्यक्ति और असहमति का अधिकार

लोकतंत्र की जीवंतता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति के अधिकार पर निर्भर करती है। यह समाजों को अत्याचार में उतरे बिना आत्म-सुधार करने की अनुमति देता है। नेपाल में, जनरेशन-ज़ी के प्रदर्शनकारियों द्वारा सोशल मीडिया का इस्तेमाल — प्रतिबंधों के बावजूद अपनी ताकत बढ़ाने के लिए किया जा रहा है, जो हैशटैग को रैली के नारे और वीडियो को सरकारी दुरुपयोग के सबूत में बदल देता है। जब ओली जैसी सरकारें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को ब्लैकआउट करने का प्रयास करती हैं, तो वे न केवल अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों का उल्लंघन करती हैं, बल्कि व्यापक एकजुटता को भी बढ़ावा देती हैं, जैसा कि दुनिया भर में विरोध प्रदर्शनों के फुटेज के तेज़ी से प्रसार में देखा जा सकता है।

तानाशाहों के लिए खतरे की घंटी

जैसे-जैसे नेपाल ओली के बाद अपने भविष्य की रूपरेखा तैयार कर रहा है, दुनिया को कुछ सबकं सीखने होंगे। वेनेजुएला जैसी जगहों पर निरंकुश शासन, जहां निकोलस मादुरो चुनावों के बीच सत्ता पर काबिज हैं, या ईरान, जहां धर्मतंत्र के खिलाफ लगातार विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। अगर वे जनता की आवाज़ को नज़रअंदाज़ करते हैं, तो उन्हें भी ऐसा ही हश्र भुगतना पड़ सकता है। डिजिटल सक्रियता के उदय का मतलब है कि असहमति को अब सीमाओं या प्रतिबंधों से नहीं रोका जा सकता; यह संघर्षों को वैश्वीकृत करता है, जिससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निगरानी और समर्थन मिलता है।

नेपाल में लोगों का गुस्सा हमें याद दिलाता है कि जो शासन झूठे आख्यान गढ़ते हैं या अभिजात वर्ग के सामने बिक जाते हैं, उन्हें उन्हीं लोगों द्वारा मिटा दिया जाता है जिनका प्रतिनिधित्व करने का वे दावा करते हैं।

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia