खरी-खरीः गांधी, नेहरू, आजाद और आंबेडकर की विचारधारा से अलग है मोदी का ‘न्यू इंडिया’

इस बार स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर देश के राजनीतिक वातावरण में उस खुलेपन का एहसास नहीं हो रहा, जो पहले होता था। न्यू इंडिया में विविधता का स्थान सिमट रहा है। मोदी के इस इंडिया’ की विचारधारा गांधी और नेहरू की ‘अनेकता में एकता’ के सिद्धांत से एकदम ही उलट है।

फोटोः सोशल मीडिया
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ज़फ़र आग़ा

हमने न तो स्वतंत्रता संग्राम देखा और न ही प्रथम स्वतंत्रता दिवस के अनूठे हर्ष और उल्लहास का आनंद उठाया। लेकिन 1950 के दशक में पैदा होने के कारण गुलामी के पश्चात् मिली स्वतंत्रता की भीनी-भीनी सुगंध अवश्य महसूस की। जब हम पले-बढ़े, तो गांधीजी की हत्या हो चुकी थी। लेकिन स्कूल के शुरुआती दिनों में जवाहरलाल नेहरू की उपस्थिति का कुछ एहसास जरूर था। फिर हमारे पिता और खानदान के बुजुर्गों की पीढ़ी की बैठकों में होने वाली चर्चा में स्वतंत्रता संग्राम और गांधीजी, नेहरू, पटेल और आजाद जैसों की चर्चा ऐसे होती थी जैसे आज की राजनीति पर हम चर्चा करते हैं।

ऐसे माहौल में स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हमारी पीढ़ी में भी एक हर्ष और उल्लहास का भीना-भीना सुरूर होता था। स्कूल में भारतीय ध्वज लहराने की खुशी, फिर स्कूल के प्राध्यापक से स्वतंत्रता संग्राम की कुर्बानियों के किस्से और नए भारत के निर्माण की जिम्मेदारी की आगाही सुनकर कुछ अपनी भी जिम्मेवारी का एहसास होता था। अंततः मिठाई बंटने और कुछ खेलकूद के साथ सारा दिन ही प्रसन्नचित रहने को मिलता था। बड़े होते गए और भारत के साथ रिश्ते गहरे होते रहे और उसी के साथ स्वतंत्रता दिवस की अहमियत का एहसास बढ़ता रहा। हर स्वतंत्रता दिवस पर कभी किसी प्रकार का भय का कोई ख्याल तो क्या, एहसास ही नहीं हुआ।

परंतु इस साल 2019 के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर देश के राजनीतिक वातावरण में उस खुलेपन का एहसास नहीं हो रहा, जो पहले कभी हुआ करता था। आज भारत कुछ बदला-बदला सा महसूस होता है। लगता है कि हम 1947 के बाद निर्मित भारत के मुकाबले कुछ एक बदले हुए भारत में प्रवेश कर रहे हैं। और यह एक सत्य है कि आज भारत बहुत हद तक बदल गया है। इस बात की घोषणा किसी और ने नहीं स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की है।

वह ‘न्यू इंडिया’ की बात अपने पहले कार्यकाल से ही कर रहे हैं। जब आप एक ‘न्यू इंडिया’ की बात करते हैं, तो स्पष्ट है कि आप पुराने भारत में कोई मौलिक परिवर्तन करने की ठान चुके हैं। वह मौलिक परिवर्तन क्या है और कैसा है यह बात स्पष्ट रूप से मोदी सरकार ने खुलकर तो देश के सामने नहीं रखी, परंतु मोदीजी का भारत कुछ बदला तो है। इसलिए इस ‘न्यू इंडिया’ के स्वरूप को समझने की आवश्यकता है। इस परिवर्तन को केवल दो मापदंडों के आधार पर ही परखा जा सकता है। पहले तो विचारधारा के आधार पर और दूसरे सरकार ने जो कदम उठाए हैं वे देश के लिए क्या दिशा-निर्देश कर रहे हैं।


जहां तक विचारधारा का सवाल है, तो यह स्पष्ट है कि भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा ‘हिंदुत्व’ है, जो नेहरू के विजन और गांधीवादी विचारों से भिन्न है। हिंदुत्व दरअसल संघ की विचारधारा है, जो कट्टर राष्ट्रवाद और केवल हिंदू हित के नियमों पर आधारित है। इस विचारधारा पर आधारित राजनीति का दायरा संकीर्ण हो जाता है। इसमें अल्पसंख्यकों और भारत की विविधता का स्थान सिमटता दिखाई देता है। यह विचारधारा गांधी और नेहरू की ‘अनेकता में एकता’ के सिद्धांत से एकदम ही विपरीत है।

यही कारण है कि आज संघ और बीजेपी संपूर्ण रूप से नेहरूवादी विजन का विरोध कर रहे हैं। गांधीजी पर खुलकर प्रहार तो नहीं है, लेकिन साध्वी प्रज्ञा ठाकुर जैसी बीजेपी सांसद खुलकर महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का गुणगान कर रही हैं और इस मामले में उनकी पार्टी उनके खिलाफ कोई कदम भी नहीं उठाती है। इसका क्या अर्थ हो सकता है, यह सभी स्पष्ट रूप से समझ रहे हैं। अर्थात् गांधी अभी ठंडे बस्ते में हैं, समय आने पर उनसे भी निपटा जाएगा।

अतः यह स्पष्ट है कि मोदी का ‘न्यू इंडिया’ गांधी, नेहरू, आजाद और आंबेडकर की विचारधारा से परे एक भारत है। और हमारा यह मानना है कि स्वतंत्रता संग्राम की पीढ़ी ने जिन विचारों पर भारत का निर्माण किया था वह भारत की सदियों पुरानी सभ्यता की मूलधारा पर आधारित भारत था। अतः उन्हीं मूल्यों पर भारतीय संविधान की रचना हुई। यदि कोई राजनीतिक दल अथवा उसकी सरकार स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों से विपरीत एक ‘न्यू इंडिया’ का निर्माण करेगी, तो निःसंदेह उसको भारतीय संविधान में भी मूलरूप से परिवर्तन करने होंगे। यही करना है मोदी सरकार को और उसने अपनी दूसरी पारी में संसद के पहले ही सत्र में भारतीय संविधान के मूल्यों में परिवर्तन कर डाले।

सरकार ने इस सत्र में जो विधेयक पास किए हैं, उनमें तीन मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं। पहला, यूएपीए संशोधन विधेयक, दूसरा- राइट टू इंफोर्मेशन संशोधन बिल और तीसरा- जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन बिल। यूएपीए बिल आतंकवाद से निपटने से संबंधित विधेयक है। इसमें जो परिवर्तन हुए हैं, उससे सरकार बिना कारण बताए किसी भी नागरिक को आतंकी कहकर बंद कर सकती है और उसको लंबी अवधि तक जमानत पर भी नहीं छोड़ा जाएगा। सिविल सोसायटी इस विधेयक से विचलित है। उसका मानना है कि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर गहरा प्रहार है। क्योंकि इस कानून की आड़ में सरकार उससे असहमति रखने वाले किसी भी व्यक्ति को ‘अरबन नक्सल’ कहकर आतंकवाद का आरोपी ठहराकर जेल में डाल सकती है।


इस प्रकार मोदीजी के ‘न्यू इंडिया’ में देशवासियों की मौलिक स्वतंत्रता पर खतरा बढ़ गया है। अर्थात आज के भारत में आप क्या बोल रहे हैं या आपकी गतिविधियां खासतौर पर राजनीतिक गतिविधियां क्या हैं, इस पर सरकार का अंकुश लग चुका है। यही कारण है कि इस स्वतंत्रता दिवस पर सरकार से असहमति रखने वाले लोगों में एक भय का एहसास है, जो लोकतंत्र और स्वतंत्रता के खुलेपन के खिलाफ एक खतरनाक विचार है।

इसी प्रकार राइट टु इंफोर्मेशन कानून में इस नए संशोधन बिल के जरिए जो परिवर्तन हुए हैं उससे भी सिविल सोसायटी में चिंता है। इस कानून के तहत जनता को सरकार की मनमानी पर अंकुश लगाने का जो ऐतिहासिक अवसर प्राप्त हुआ था वह अब खतरे में पड़ गया है। अर्थात नागरिक स्वतंत्रता पर सरकारी अंकुश अब और बढ़ गया है और साथ ही नागरिक स्वतंत्रता में कटौती भी हुई है।

और अभी हाल ही में जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन बिल के तहत उस प्रदेश में जो परिवर्तन हुए हैं उस पर इतिहास ही अपना निर्णय देगा। परंतु स्वतंत्रता दिवस से लगभग एक सप्ताह पहले कश्मीर की वादी में जिस प्रकार का भय का माहौल है वह उस राज्य के नागरिकों को स्वतंत्र होने का एहसास नहीं करा रहा है। यह एक खतरनाक स्थिति है। इसी प्रकार तीन तलाक बिल से मुस्लिम महिलाओं में हर्ष की भावना कम और मुस्लिम पतियों में तलाक के नाम पर जेल जाने का भय अधिक उत्पन्न हुआ है। फिर मॉब लिंचिंग और एनआरसी की तलवार ने तो अल्पसंख्यकों को पहले ही भयभीत कर रखा है। ऐसे में इस स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर देश की फिजा में अजीब सा डर और खौफ का माहौल साफ नजर आता है।

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