उम्मीद बरकरारः बेशक आज हाशिये पर दम तोड़ता दिख रहा है सच, आखिर में जीत सत्य की ही होगी
खुशकिस्मती है कि इसी साल एक सक्रिय और चतुर विपक्ष का भी उदय हुआ जो लोकतांत्रिक भावना और व्यवहार का मजबूत होना है। शायद संविधान को और कमजोर होने से फिलहाल तो बचा लिया गया है, लेकिन आजादी, समानता, न्याय और बंधुत्व के इसके बुनियादी मूल्य गहरे खतरे में हैं।

खत्म हो रहा 2024 दुखद रूप से सामाजिक जीवन में लगातार हिंसा, अन्याय, असभ्यता, घृणा और झूठ फैलाने वाला साल रहा है। भारत का मध्यम वर्ग जिस तरह से नफरत और झूठ के पीछे खड़ा हो गया है, वह वाकई बेहद निराशाजनक है। सत्य काफी हद तक सिमट गया है और इस पर यकीन करने और इस पर चलने वाले लोग गिनती के रह गए हैं।
मीडिया और धार्मिक नेतृत्व- दोनों ही एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था और सत्ता के समर्थन और बचाव में मुखर हो गए हैं जो निहायत बेशर्मी से कपट, साजिश और बांटने वाले कामों में लिप्त हैं। संवैधानिक अधिकारी नैतिकता खोते जा रहे हैं और उनमें निष्पक्षता की भावना कमजोर होती जा रही है। न्यायालय अक्सर सरकार के दबाव के आगे झुक जा रहे हैं।
खुशकिस्मती है कि इसी साल एक सक्रिय और चतुर विपक्ष का भी उदय हुआ जो लोकतांत्रिक भावना और व्यवहार का मजबूत होना है। शायद संविधान को और कमजोर होने से फिलहाल तो बचा लिया गया है, लेकिन आजादी, समानता, न्याय और बंधुत्व के इसके बुनियादी मूल्य गहरे खतरे में हैं।
ऐसा लगता है कि हिन्दू धर्म अपनी बहुलता आधारित आध्यात्मिकता और सूक्ष्म दृष्टि से दूर होता जा रहा है, आस्था की जगह कर्मकांड ने ले ली है जिसके पालन को चकाचौंध वाले तमाशे में बदल दिया गया है। शिक्षा जगत की स्वायत्तता कम होती जा रही है। ज्ञान को हाशिये पर धकेला जा रहा है और अज्ञानता को सामाजिक रूप से सुदृढ़ किया जा रहा है।
वैश्विक भूख सूचकांक रैंकिंग में भारत की हालत बेहद खराब हो गई है। देश की लगभग 50 फीसद संपत्ति 5 फीसद आबादी के पास है जबकि वेतनभोगी वर्ग के 50 फीसद लोगों की आय में 13 फीसद की कमी आई है। निराशा का भाव इतना व्यापक हो चुका है कि यह सोचना भी मुश्किल है कि आशा के किसी भी भाव को पनपने में कितना वक्त लगेगा। लेकिन चूंकि मनुष्य होने का अर्थ ही है कि हम सपने देखें और उम्मीद करें, इसलिए बेशक आज की स्थितियां कितनी भी निराशाजनक और दूर की कौड़ी लगे, हमें निराशा में पड़ने से बचना होगा।
हम इस वजह से उम्मीद करना नहीं छोड़ सकते कि आज की सत्ता हिंसा और अन्याय में लिप्त है। एक समय आएगा जब उनके ही पापों के बोझ से नफरत और झूठ की इमारत भरभराकर गिर जाएगी। बेशक अभी सच हाशिये पर दम तोड़ता दिख रहा हो, आखिर में जीत सत्य की ही होगी। इतना जरूर है कि फिलहाल यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि वह अंत कितना दूर या कितना पास है। एक लेखक के रूप में मैं निराशा और आशा के बीच उस धुंधली सी जगह पर खड़ा हूं जो मुझे अब भी सपने देखने, विकल्पों के बारे में सोचने, बहुलतावादी भारतीय सभ्यता की समृद्ध विरासत के एक छोटे से अंश को सहेजने का मौका देती है।
(अशोक वाजपेयी कवि, साहित्यिक/सांस्कृतिक आलोचक हैं)
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