खरी-खरी: तोलमोल का लालच और ईडी का तड़का लगा महाराष्ट्र में किया जा रहा 'आया राम-गया राम' का खेल!

देश में दलबदल विरोधी कानून है। लेकिन अभी भी यह राजनीतिक उलटफेर 'आया राम-गया राम' सिद्धाांत पर ही होता है। पार्टी तोड़ने वाले से तोल-मोल होता है और कई तरह के लालच दिए जाते हैं। अगर कोई विधायक नहीं टूट रहा है, तो सामने एक फाइल रख ईडी की धमकी दी जाती है।

फोटो : सोशल मीडिया
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ज़फ़र आग़ा

आपातकाल एक बुरा सपना था जो एक नौजवान के रूप में हमने भी जिया था। उसकी निंदा एवं खंडन होना भी चाहिए। लेकिन देश में जब बगैर इमरजेंसी के हालात खराब हों, तो फिर क्या उसकी निंदा नहीं होनी चाहिए। मैंने सन् 1975 से 1977 तक इमरजेंसी का दौर देखा है। हम उस समय इलाहाबाद विश्विद्यालय के छात्र थे। जाहिर है कि उस समय के लगभग तमाम युवाओं की तरह इमरजेंसी विरोधी ही नहीं बल्कि एक ‘एंग्री यंगमैन’ थे। हम और हमारी मित्र मंडली इलाहाबाद कॉफी हाउस में बैठक किया करते थे। कॉफी और सिगरेट के धुएं के बीच चर्चा घूम-फिरकर राजनीति तक पहुंच ही जाती थी। और फिर भला सरकार की आलोचना न हो, ऐसा संभव ही नहीं था। ऐसे ही एक दिन का जिक्र है। हम सब कॉफी हाउस में बैठे थे। हमारे किसी मित्र के साथ एक नया नौजवान भी आया। हमारे मित्र ने उस नौजवान को हम सबसे परिचित करवाया। मुझे उसका नाम अब याद नहीं है। लेकिन यह अच्छी तरह याद है कि वह नौजवान पाकिस्तान से आए थे और उनका संबंध जुल्फिकार अली भुट्टो की पार्टी के युवा दल से था। भुट्टो उस समय जेल में थे। वहां जिया उल हक का फौजी शासन चल रहा था। हम लोगों ने थोड़़ी देर उनसे वहां के हालात के बारे में चर्चा की।

फिर रोज की तरह हम सभी ने भारत सरकार एवं कांग्रेस पार्टी की खुलकर निंदा आरंभ कर दी। यह सिलसिला चलता रहा। कुछ समय बाद उस पाकिस्तानी नौजवान और उसके मित्र ने अलविदा मांगी। लेकिन जाने से पहले उसने बड़ी विनम्रता से हमसे कहा, अगर आप बुरा न मानें, तो हम एक बात कहें। हम सब एक साथ ही बोल उठे, ‘जी हां, जी हां।’ फिर उसने हम सबकी ओर देखा, लंबी सांस भरी और बोला, ‘यह कैसी इमरजेंसी! हम अगर अपने कॉफी हाउस में इतनी देर जिया उल हक एवं फौजी शासन की निंदा करते, तो फौजी हमको यहीं से उठा ले जाते।’ पहले हम सब सन्नाटे में आ गए, फिर अचानक सब हंस पड़े।

यह वाकया इसलिए सुना रहा हूं कि आज यह स्थिति है कि यदि एक पत्रकार सरकार के विरुद्ध एक ट्वीट कर देता है, तो उस पर देशद्रोह का मुकदमा चल जाता है। मीडिया पर कोई पाबंदी नहीं लगी है लेकिन मीडिया में सरकार के गुणगान के सिवाय कुछ नहीं है। अदालतें भी लगभग वही बोल रही हैं जो सरकार बोल रही है। देश में केवल एक पार्टी एवं एक नेता का डंका बज रहा है। सरकारी तंत्र ईडी की छत्रछाया में विपक्षी नेताओं को जांच के लिए रोज समन भेज रहा है। सड़कों पर विरोध करने वालों का स्वागत बुलडोजर अथवा यूएपीए कानून से हो रहा है। पुलिस विपक्ष के मुख्यालय में घुसकर कांग्रेसियों की पिटाई कर रही है। फिर भी हम लोकतंत्र में जी रहे हैं। अब आप ही इमरजेंसी की निंदा एवं खंडन के साथ-साथ यह फैसला कीजिए कि हम-आप इस लोकतंत्र में कितने स्वतंत्र हैं।


अग्निपथ नहीं, केवल शांतिपथ पर चलिए

स्कीम का नाम ही है अग्निपथ। रोजगार तो बेरोजगारों को शांति देता है। लेकिन इस रोजगार स्कीम ने बेरोजगार नौजवानों को अशांत कर दिया। खौल उठे वे बेरोजगार नौजवान जो फौज में भर्ती के लिए दो-दो, तीन-तीन साल से मशक्कत कर रहे थे। जब मैंने पूछा, क्यों, क्या फौज की भर्ती आईएएस परीक्षा जैसी कठिन होती है। पता चला कि फौज में भर्ती के लिए जो फिटनेस टेस्ट होता है, वह बहुत कठिन होता है। बच्चे तीन-तीन साल तक उसकी तैयारी करते हैं। तब समझ में आया कि अग्निपथ स्कीम से क्यों लोग क्रोधित हैं। आप ही बताइए जो नौजवान तीन साल मैदानों में दौड़ लगाए, कसरत करे, फिर परीक्षा दे और उसको यह कहा जाए कि तुमको फौज में सिर्फ चार साल की नौकरी मिल गई, तो फिर वह आगबबूला ही हो उठेगा। तभी तो सड़कों पर नौजवान आग उगलने लगे। जो नौजवान सड़कों पर उतरे, वह हिंसक भी थे।

गांधी जी के इस देश में यह बिल्कुल गलत बात है। कुछ भी हो जाए, शांति का दामन कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए। यह सरासर गलती थी। ऐसा किसी भी हालत में नहीं होना चाहिए। कोई भी आंदोलन सत्याग्रह के रूप में ही होना चाहिए। हिंसक विरोध स्वयं विरोध करने वालों के लिए भी हानिकारक होता है। अब अग्निपथ का विरोध करने वालों को पुलिस खोज रही है। कितने नौजवान जेल की सलाखों के पीछे पड़़े हैं। अभी कितने पकड़े जाएंगे, कुछ पता नहीं। शांत रहिए और अग्निपथ नहीं, केवल शांति के पथ पर चलिए। लेकिन सरकार को भी अब बेरोजगारी की समस्या हल करने के संजीदा प्रयास करने चाहिए। केवल चुनाव जीतने के लिए नारों से बेरोजगारी की समस्या नहीं दूर होने वाली। दस लाख रोजगार देने का वादा एवं अग्निपथ जैसी स्कीम से समस्या नहीं हल होने जा रही है।

इस समय देश को कम-से-कम दस करोड़ नौकरियां चाहिए। ऐसी स्थिति में दस लाख नौकरियां ऊंट के मुंह में जीरा जैसी हैं। सरकार को यह भी समझना चाहिए कि बेरोजगार नौजवान का सब्र एवं संयम चरम सीमा तक पहुंच चुका है। जैसे अग्निपथ स्कीम के खिलाफ अचानक गुस्सा फूट पड़ा, वैसे ही कब और कहां फिर नौजवान भड़क उठे, कहना मुश्किल है। इसलिए चुनाव जीतने के लिए थोड़े से जॉब देने की जगह करोड़ों रोजगार पैदा करने की व्यवस्था करनी चाहिए। सबको पता है कि कोविड 19 एवं नोटबंदी के कारण देश में बेरोजगारी का सैलाब चल रहा है। इस समस्या का समाधान करना होगा। यदि कुछ ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो फिर नौजवान जरा सी बात पर फिर भड़क सकता है। इसलिए देश को ऐसे किसी खतरे से बचाने के लिए नौकरियां पैदा की जानी चाहिए क्योंकि नौजवानों का अग्निपथ पर चलना देश एवं स्वयं नौजवानों के लिए खतरनाक है। इसलिए हमारी राय में सरकार अधिक से अधिक नौकरियों की व्यवस्था करे और नौजवान अग्निपथ पर नहीं, केवल शांति पथ पर ही चलें।


वही 'आया राम-गया राम' का खुला खेल आज भी

सन् 1967 का समय जिनको याद होगा उनको ‘आया राम-गया राम’ भी याद होगा। दरअसल, इस समय जब महाराष्ट्र सरकार संकट में है, तो मुझे अचानक ‘आया राम-गया राम’ याद आया। उस समय हरियाणा में भगवत दयाल शर्मा की सरकार थी जो विधायकों के तोड़े जाने की वजह से संकट में आ गई थी। उस समय तक देश में दलबदल कानून नहीं था। कोई भी जब मन करे, इधर और जब मन करे, तो उधर पाला बदल सकता था और हरियाणा में यही हुआ। गया लाल ने एक ही दिन में तीन बार पाला बदला। स्पष्ट था कि वह अपने वोट का प्रयोग हर बार पैसे लेकर कर रहे थे। यह डर तो था नहीं कि अयोग्य घोषित कर दिए जाएंगे। उन्होंने इतनी बार पाला बदला कि अपने वोट को नगद में भुनाने वालों का मीडिया में नाम ही ‘आया राम-गया राम’ पड़ गया।

अब देश में दलबदल विरोधी कानून है। किसी भी पार्टी को तोड़ने के लिए कम-से-कम दो तिहाई विधायक या सांसद जुटाने पड़ते हैं। लेकिन अभी भी यह राजनीतिक उलटफेर आया राम-गया राम सिद्धाांत पर ही होता है। पार्टी तोड़ने वाले अपना दाम वसूलते हैं। बाकायदा तोल-मोल होता है। इतना नगद चाहिए, पैसा कमाने वाला मंत्रालय चाहिए। यह सब खुलकर होता है। लेकिन बीजेपी ने इस फार्मूले में एक और गुण मिला दिया है। यदि तमाम लालच और मोल-तोल करने के बाद भी कोई मंत्री अथवा विधायक नहीं टूट रहा है, तो उसकी ‘फाइल’ तैयार कर उसको ईडी की धमकी दी जाती है। वह जेल और ईडी की धमकी से पाला बदल देता है।

सुनते हैं कि महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे को तोड़ने के लिए पहले मोल-तोल किया गया। जब बात नहीं बनी, तो ईडी के द्वारा धमकी से न केवल उनको तोड़ा गया बल्कि उनके करीबी दूसरे विधायकों को भी ईडी द्वारा डरा-धमका कर तोड़ा गया। बात यह है कि सरकार गिराने के लिए अभी भी वही आया राम-गया राम का सिद्धांत चल रहा है। महाराष्ट्र में ‘आया राम-गया राम’ के साथ ईडी का तड़का भी लगा दिया गया है। स्पष्ट है कि ऐसे माहौल में एक भी विपक्षी दल की सरकार कहीं भी बच जाए तो समझिए कमाल है।

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