आकार पटेल का लेख : मानवाधिकार के मुद्दे पर बाहरी दुनिया के सामने एक मुखौटा पहने नजर आती है मोदी सरकार

भारत की सरकार असल में जैसी है वैसी वह विदेशों में नहीं दिखना चाहती। सरकार का रवैया बहुसंख्यावादी और ऐसी सत्तावादी सरकार का है जो अपने ही नागरिकों के खिलाफ अपनी शक्ति का उपयोग करती है। फिर भी विदेश में उसे दिखावा करना होता है कि भारत एक सेक्युलर देश है।

प्रतीकात्मक फोटो
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आकार पटेल

बीते कुछ सप्ताह के दौरान सरकार ने मुझे कई मामलों में व्यस्त रखा जिसके चलते मैं ज्यादा खबरों आदि को नहीं देख पाया। इसीलिए जब मैंने यह खबर देखी कि “भारत ने सभी मानवाधिकारों के संरक्षण और उन्हें बढ़ावा देने के संकल्प को दोहराया” है, तो मैं चौंक गया, बल्कि मुझे एक किस्म से झटका सा लगा।

यह शब्द अभी 15 जुलाई को ‘10वीं भारत-ईयू मानवाधिकार संवाद’ के दौरान हुई संयुक्त प्रेस वार्ता में बोले गए। वैसे मुझे नहीं पता कि इससे पहले ऐसे नौ संवाद कब हुए थे।

इस बयान का दस्तावेज काफी रोचक है, क्योंकि मानवाधिकार के मुद्दे पर भारतीय जिन हालात से दो-चार हैं वह इस बयान को और रोचक बनाता है। दस्तावेज में 9 बिंदु सूचीबद्ध किए गए हैं। पहला बिंदु है जिसमें भारत और यूरोपीय यूनियन ने खुद को ऐसा ‘खुला और लोकतांत्रिक समाज’ बताया है जो "सभी मानवाधिकारों की सार्वभौमिकता, अविभाज्यता, अन्योन्याश्रयता और परस्पर संबंध पर जोर देते हैं।"

यह भारी भरकम शब्द हैं और इससे आगे का रास्ता निर्धारित होता है। एक अन्य अहम बिंदु में कहा गया है कि भारत और यूरोपीय संघ ने अन्य बातों के अलावा "नागरिक और राजनीतिक अधिकारों, अल्पसंख्यकों और कमजोर समूहों से संबंधित व्यक्तियों के अधिकारों और धर्म या विश्वास की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विचार (ऑनलाइन और ऑफलाइन)" पर विचारों और चिंताओं का आदान-प्रदान किया।

इसके बाद, भारत सरकार ने उल्लेखनीय रूप से कहा है कि भारत और यूरोपीय संघ "मानवाधिकार रक्षकों और पत्रकारों सहित नागरिक समाज के एक्टिविस्ट की स्वतंत्रता, अजादी और विविधता की रक्षा करने और संघ और शांतिपूर्ण सभा की स्वतंत्रता का सम्मान करने के महत्व पर सहमत हुए।"

इसके आगे भारत ने "अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त मानवाधिकार कानूनों और मानकों के आधार पर मानवाधिकार के मुद्दों पर अधिक जुड़ाव को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर जोर दिया। दोनों पक्षों ने मानवाधिकारों के संरक्षण और संवर्धन के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार तंत्र को मजबूत करने में महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थानों, नागरिक समाज के एक्टिविस्ट और पत्रकारों की भूमिका को मान्यता दी।"

इस दस्तावेज में तमाम ऐसी बातें हैं जिन्हें भारत कब से व्यवहार से बाहर कर चुका है लेकिन फिर भी सैद्धांतिक तौर पर इसकी वकालत कर रहा है। सवाल उठता है कि आखिर क्यों। सर्वविदित है कि भारत सरकार ने भीमा कोरेगांव मामले में 16 एक्टिविस्ट और मोहम्मद जुबैर जैसे पत्रकारों और तीस्ता सीतलवाड जैसे एक्टिविसट के संदर्भ में इन सब नियमों का न सिर्फ उल्लंघन किया बल्कि उनके खिलाफ नफरत का माहौल बनाया और उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन किया है। इस सबके बावजूद आखिर वह क्यों इन्हें चाहने वाला और उनके काम को पसंद करने वाले बनने का दिखावा कर रहा है?


कारण काफी हद तक स्पष्ट है। पहला तो यह कि भारत की सरकार असल में जैसी है वैसी वह विदेशों में नहीं दिखना चाहती। सरकार का रवैया बहुसंख्यावादी और ऐसी सत्तावादी सरकार रका है जो अपने ही नागरिकों के खिलाफ अपनी शक्ति का उपयोग करती है। भारत के राजनयिक जब विदेशों में दूसरे लोकतांत्रिक देशों के साथ उठते-बैठते हैं तो उन्हें ऐसा दिखावा करना होता है कि भारत एक नेहरूवादी और सेक्युलर देश है। वहां पर वे हिंदुत्व जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते और उस भाषा का तो कतई नहीं जो बीजेपी और इसके नेता दूसरे नागरिकों, खासतौर से अल्पसंख्यकों के लिए इस्तेमाल करते हैं।

पर, ऐसा नहीं है कि बीजेपी को इस सबसे शर्म आती है यह वह जो कुछ कहती या करती है उस पर उसे किसी किस्म की शर्मिंदगी है। ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि उसे एक पाखंडी और दो-मुंहा होने में कोई समस्या नहीं है। पश्चिमी दुनिया बीती शताब्दी के दौरान मानवाधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के मुद्दे पर आम सहमति की ओर बढ़ गई है। भारत की सरकार इन सबका विरोध करती है लेकिन विदेशों में ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि हमारे पास ऐसा करने के लिए न तो आत्मविश्वास है और न ही ताकत। इसलिए हम झूठ बोलते हैं।

दूसरा कारण यह है कि ये सब हम बाहरी दबावों के कारण करते हैं, जोकि काफी प्रभावी होते हैं। अगर ऐसा नहीं होता, तो हम यूरोपीय संघ को साफ बोल सकते थे कि भाड़ में जाओ। गौरतलब है कि एक साल पहले यूरोपीय संघ के अधिकारियों ने कहा था कि " आतंकवाद के झूठे आरोपों में गिरफ्तारी के नौ महीने बाद मानवाधिकार कार्यकर्ता और जेसुइट पादरी फादर स्टेन स्वामी की हिरासत में ही मृत्यु हो गई। मानवाधिकार रक्षकों को जेल में डालना अक्षम्य है।"

यूरोपीय संघ के मानवाधिकारों के विशेष प्रतिनिधि, इमोन गिलमोर ने कहा था कि "यूरोपीय संघ बार-बार इस मामले को भारत के अधिकारियों के साथ उठा रहा था।" जब हम कहते हैं कि हम मानवाधिकार रक्षकों और उनके काम करने के अधिकार का सम्मान करते हैं, तो यह तो वही लोग हैं जो फादर स्टेन स्वामी के मुद्दे को उठा रहे थे और अब हम उनके साथ सहमत हो रहे हैं या दिख रहे हैं।, हम ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्योंकि हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। एक ईमानदार और शक्तिशाली और सही मायने में संप्रभु सरकार को अपने व्यवहार और तौर-तरीकों के बारे में झूठ बोलने की जरूरत नहीं है। बताते चलें कि चीन यूरोपीय संघ के साथ मानवाधिकार संवाद नहीं करता है।


यह बात उन लोगों को समझना चाहिए जिनका मानना है कि भारत बाही दुनिया से प्रभावित नहीं होता है। एक दूसरे से जुड़ी हुई दुनिया में कोई भी देश ऐसा नहीं है जो दावा कर सके कि उस पर दूसरे देशों का प्रभाव नहीं पड़ता है।

लेकिन कितना अधिक प्रभाव होगा और कितना महसूस होगा यह इस बात पर निर्भर करेगा कि प्रभाव कस मुद्दे पर है और दोनों तरफ कितनी ताकत है। मानवाधिकार एक ऐसा मुद्दा है जिसे यूरोपीय संघ के तमाम देश काफी गंभीरता से देखते हैं, क्योंकि उनके नागरिक भी ऐसा मानते हैं।

भारत के नेता शायद इसे समझते हैं और यह कोशिश कर रहे हैं कि घर पर खुराफात जारी रखने के साथ इस वास्तविकता को बाहर के देशों में कैसे संभाला जाए। लेकिन ऐसा करने में असहजता का एक संकेतक यह था कि इस मानवाधिकार संवाद में जहां यूरोपीय संघ का प्रतिनिधित्व उसके राजदूत द्वारा किया गया, वहीं भारतीय पक्ष का प्रतिनिधित्व एक निम्न स्तर के राजनयिक ('यूरोप पश्चिम के लिए संयुक्त सचिव') द्वारा किया गया था। एक और संकेत यह है कि इस बैठक के बारे में लगभग कोई खबर नहीं थी। विदेश मंत्रालय ने इसके बारे में ट्वीट नहीं किया जैसा कि वह आमतौर पर इस स्तर पर होने वाली सभी किस्म की मुलाकातों या संवादों को लेकर करता है। यह हमारी सरकार का रवैया है, जो दुनिया को तो एक सौम्य मुखौटा दिखाने की कोशिश करती है लेकिन घर में अपने ही नागरिकों के खिलाफ उसका रवैया बेहद क्रूर है।

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