एक राष्ट्र-एक चुनावः सच में सरकार ने लोकतंत्र को निशाने पर लिया, तो सड़क से संसद और अदालत तक अखाड़ा सजना तय

एक साथ चुनाव कराना उस स्वायत्ता के लिए झटका होगा जो राज्यों को संविधान के तहत मिला है। फिर, इसके लिए राज्य विधानसभाओं को स्वेच्छा से खुद को भंग करना होगा। बेशक बीजेपी शासित राज्य इसके लिए तैयार हो जाएं लेकिन विपक्ष शासित राज्य ऐसा क्यों करेंगे?

सच में सरकार ने लोकतंत्र को निशाने पर लिया, तो सड़क से संसद और अदालत तक अखाड़ा सजना तय
सच में सरकार ने लोकतंत्र को निशाने पर लिया, तो सड़क से संसद और अदालत तक अखाड़ा सजना तय
user

अनुराधा रमन

जून, 2019 की गर्मियां थीं। भारी चुनावी जनादेश की खुशी से सराबोर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सोचा होगा कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का गुब्बारा एक बार फिर उड़ाने के लिए यह सही समय है। यह पहली बार नहीं था जब बीजेपी इस बारे में बात कर रही थी। हालांकि, मोदी को संभवतः लग रहा था कि संघ परिवार जिस सपने को लंबे समय से आंखों में संजोए रखा था, अब उसे साकार करने का समय आ गया है। उन्होंने इस पर चर्चा के लिए सर्वदलीय बैठक भी बुलाई। स्वाभाविक ही, उनके प्रस्ताव को विपक्षी दलों ने ‘लोकतंत्र विरोधी’, ‘संघीय संरचना विरोधी’ और राष्ट्रपति शासन का संभावित आरंभिक स्वरूप करार देते हुए खारिज कर दिया। 

महज एक साल पहले विधि आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की थी जिसमें कहा गया कि संविधान के मौजूदा ढांचे में एक साथ चुनाव कराना अव्यवहारिक है। उससे एक साल पहले नीति आयोग ने भी एक अध्ययन पत्र में एक साथ चुनाव की व्यवहारिकता पर चर्चा की थी। वर्ष 2020 में कानून और न्याय से संबंधित संसदीय समिति ने इस पर सभी हितधारकों की राय मांगी थी। इस तरह पीछे जाकर कड़ियों को मिलाने का मकसद इस विचार को आगे बढ़ाने की मोदी सरकार की मंशा को बताना है।

जब लोकतंत्र में एक निर्वाचित सरकार ‘बहुत अधिक चुनावों’ का राग अलापने लगे, तो उसकी मंशा संदिग्ध ही होती है। फिर, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मामले में तो यह नौ साल पुरानी ‘खुजली’ है। बेशक, यह विचार मोदी के दिमाग की उपज न हो लेकिन उन्होंने इस विचार की क्षमता को अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में बेहतर समझा। एक साथ चुनाव का विचार बीजेपी के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और हमेशा पीएम-इन-वेटिंग रहे लालकृष्ण आडवाणी ने जोर-शोर से आगे बढ़ाया था और हाल के समय में यह बीजेपी के घोषणापत्रों में प्रमुखता से शामिल रहा है।

बीजेपी नेता अक्सर कहते हैं कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव 1969 तक एक साथ ही होते थे, जब कम बहुमत, निर्वाचित सदस्यों के दलबदल और इससे आई राजनीतिक अस्थिरता में कई राज्य विधानसभाओं को भंग करके मध्यावधि चुनाव कराना पड़ा। 

दरअसल, 1977 में चुनी गई लोकसभा भी केवल तीन साल चली। इसके बाद 1989 में चुनी गई लोकसभा दो साल चली। 1996 में 11वीं लोकसभा 18 महीने चली और 1998 में चुनी गई अगली लोकसभा 13 महीने बाद गिर गई। हालांकि, तब से, चुनावों ने हमें स्थिर गठबंधन और बहुमत वाली सरकारें तो दी ही हैं। इसके अलावा, संविधान के तहत, राज्य सरकारों के पास राज्य विधानसभा को भंग करने की सिफारिश करने और मध्यावधि चुनाव कराने की ताकत है।

क्या उन्हें इस अधिकार से एकतरफा वंचित किया जा सकता है? अगर आप लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य से पूछें, तो जवाब होगा- नहीं। आचार्य कहते हैं कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ राज्यों की स्वायत्तता पर हमला होगा। इससे एक और समस्या पैदा होगी: एक साथ चुनाव कराने के लिए विधानसभाओं को स्वेच्छा से खुद को भंग करना होगा। बीजेपी शासित राज्यों में तो यह संभव भी है लेकिन भला विपक्ष शासित राज्य ऐसा क्यों करेंगे?’


केन्द्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति राज्य सरकारों को बर्खास्त कर सकते हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी मनमानी बर्खास्तगी पर रोक लगा दी है। डीएमके के तिरुचि शिवा ने 2019 में इस पर चर्चा के दौरान पूछा था, ‘क्या कोई आश्वासन देगा कि अनुच्छेद 356 को हटा दिया जाएगा?’

एक साथ चुनाव कराने के लिए कम-से-कम पांच संविधान संशोधनों- अनुच्छेद 83, 85, 172, 174 और 356- की जरूरत होगी और इसके लिए कम-से-कम 50 फीसद राज्यों को संशोधनों की पुष्टि करनी होगी क्योंकि अनुच्छेद 174 राज्य विधानसभाओं के विघटन से संबंधित है और अनुच्छेद 356 राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने के बारे में। 

क्या पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में गठित आठ सदस्यीय समिति यह सुझाव दे सकेगी कि इस बारूदी सुरंग के पार कैसे जाया जाए? जहां तक 1969 तक एक साथ चुनाव कराने की बात है, राजनीतिक वैज्ञानिक सुहास पल्शिकर कहते हैं कि इसकी बड़ी वजह यह थी कि 1960 के दशक के मध्य तक मतदाताओं ने स्थिर जनादेश दिया।

अलग-अलग चुनावों पर होने वाले भारी-भरकम खर्चे पर मचाए जा रहे हाय-तौबा का कोई मतलब नहीं है क्योंकि सरकार चुनाव कराने पर अपने बजट का एक छोटा-सा हिस्सा ही खर्च करती है। 2014 से 2019 तक के पांच वर्षों में चुनावों पर 10,000 करोड़ रुपये खर्च हुए जबकि केन्द्र सरकार का अकेले इस साल का बजट 45 लाख करोड़ रुपये है।

यह सच है कि अपारदर्शी चुनावी बांडों ने सत्तारूढ़ दलों के हाथों में भारी धनराशि दे दी है। व्यापार, उद्योग और कॉर्पोरेट निकाय अब गुमनाम बांड के बदले सत्ता में पार्टियों के साथ कानूनी तौर पर सौदेबाजी कर सकते हैं। ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग जिसने 2019 तक इस योजना का विरोध किया था, हथियार डाल दिए हैं क्योंकि उसने 2021 में सुप्रीम कोर्ट में इसका समर्थन कर दिया। हालांकि, कानूनी तौर पर मामला अभी अदालत में लंबित है।

चुनावों में काला धन राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों द्वारा पैदा किया जाता है, सरकार द्वारा नहीं। हालांकि, कोई भी नेता या राजनीतिक दल काले धन के इस्तेमाल या यहां तक कि अधिक खर्च की बात भी स्वीकार नहीं करता है। गौरतलब है कि 2019 में छह हजार से अधिक उम्मीदवारों में से केवल चार या पांच ने अपने रिटर्न में स्वीकार किया कि उन्होंने चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित व्यय सीमा से अधिक खर्च किया।

2014 के बाद से राजनीतिक दलों, खासकर बीजेपी का चुनाव खर्च जरूर जाहिरा तौर पर आसमान छू गया है। बढ़ता विज्ञापन-खर्च, सलाहकारों और रणनीतिकारों की नियुक्ति, सर्वेक्षण और प्रचार, निजी जेट और हेलीकॉप्टरों का उपयोग, मतदाताओं को रिश्वत देना जैसे चंद उदाहरण हैं जो बताते हैं कि पैसा कहां जा रहा है। चुनावों में होने वाले काले धन के इस्तेमाल का सरकार के चुनावी खर्चे यानी करदाताओं के पैसे से कोई मतलब नहीं। धन-बल पर अंकुश लगाने और चुनावों में समान अवसर सुनिश्चित करने में चुनाव आयोग की विफलता को एक साथ चुनाव कराकर ठीक नहीं किया जा सकता है।


इसके विपरीत, राजनीतिक टिप्पणीकार लोकसभा और विधानसभाओं के लिए अलग-अलग चुनाव कराने के फायदे बताते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि राजनीतिक दलों को बार-बार मतदाताओं के पास जाना पड़ता है, इसलिए अब भी कुछ जवाबदेही बची हुई है। राजनीतिक दल और नेता अगले चुनाव को देखते हुए सतर्क रहते हैं। अगर पांच साल तक कोई भी चुनाव न हुआ, तो न केवल नेताओं के गैर-जिम्मेदार बनने की आशंका अधिक होगी बल्कि मतदाता भी पांच साल के लिए अपने वोट की ताकत खो देंगे और कुछ भी नहीं कर पाएंगे। 

मौजूदा व्यवस्था किसी खास लहर में चुनाव न होने देने की भी एक गारंटी है। उदाहरण के लिए, दिसंबर, 1984 में लोकसभा चुनाव श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुआ एक असामान्य चुनाव था। राजीव गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 404 सीटें जीतकर सत्ता में आई। यह कांग्रेस के पक्ष में एक जबर्दस्त ‘लहर’ थी, जैसे 1977 में उत्तर भारत में इसके खिलाफ लहर थी। इन दोनों ही मौकों पर अगर सभी राज्यों की विधानसभाओं में लोकसभा के साथ ही चुनाव हुए होते, तो परिणाम कितने ‘निष्पक्ष’ होते?

वास्तव में मतदाताओं ने हाल के वर्षों में विधानसभा के चुनावों में क्षेत्रीय दलों और आम चुनावों में बीजेपी को वोट दिया है। वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े बताते हैं कि एक परिदृश्य के बारे में सोचना चाहिए जब लोकसभा चुनाव के लिए मोदी विरोधी लहर हो, लेकिन राज्यों में लोगों का मूड बीजेपी के पक्ष में हो। यह इस धारणा को चुनौती देता है कि मतदाता हमेशा एक तरह के नतीजे लेकर आएंगे। 

हालांकि, द हिंदू में एडीआर (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स) के जगदीप एस छोकर के एक लेख से पता चलता है कि 1989 के आम चुनाव के बाद से 31 बार विधानसभाओं के चुनाव के साथ संसद के लिए चुनाव या उपचुनाव हुए और इनमें से 24 मामलों में एक ही पार्टी को विधानसभा और संसद के लिए चुना गया।

इसलिए अगर एक साथ चुनाव हुए, तो यह क्षेत्रीय और छोटे दलों के खिलाफ होगा जो जमीन से जुड़े हुए हैं और राज्य और स्थानीय मुद्दों को बेहतर ढंग से उठाने की काबलियत रखते हैं। जैसा कि हेगड़े बताते हैं, ‘सबसे बड़ा खतरा लोकतंत्र में सबसे बड़े सुरक्षा उपाय यानी स्वस्थ और मजबूत विपक्ष के खत्म हो जाने का है।’ 

कहने का यह मतलब नहीं कि मौजूदा समय में चुनाव आदर्श तरीके से होते हैं। चुनाव सुधार की जरूरत है, इससे कोई नाइत्तेफाकी नहीं हो सकती। लेकिन क्या एक साथ चुनाव इसका जवाब है? क्या ऐसे ‘सुधार’ की फौरन जरूरत है? चुनावों के दौरान संचार साधनों के दुरुपयोग पर चुनाव आयोग की निगरानी अब तक निराशाजनक रही है। टीवी चैनलों, इंटरनेट और सोशल मीडिया के विस्फोटक विस्तार से पहले की आदर्श आचार संहिता अब अप्रासंगिक लगने लगी है। लेकिन एक साथ चुनाव कराने से इसमें भला कैसे मदद मिलेगी?

प्रधानमंत्री के रूप में अपने पहले साल से नौवें साल के बीच मोदी ने एक राष्ट्र, एक चुनाव पर थोड़ा बचकर बोला। टीवी चैनल ‘टाइम्स नाउ’ से इस बारे में बातचीत में उन्होंने कहा कि चुनावी सुधार को आगे बढ़ाना चुनाव आयोग पर निर्भर करता है। वैसे, व्यवहार में, मोदी सरकार ने 2014 से 2019 के बीच चुनाव आयोग द्वारा की गई ज्यादातर सिफारिशों को नजरअंदाज ही किया। चुनाव आयोग बजटीय अनुदान, कार्यबल और सुधारों की मंजूरी के लिए केन्द्र सरकार पर निर्भर है। 30-40 बूथों में दर्ज वोटों को एक साथ मिलाने और गिनने के लिए ‘टोटलाइजर’ मशीन के इस्तेमाल के आयोग के सुझाव को खारिज कर दिया गया। आयोग कुछ मायनों में स्वायत्तता चाहता था लेकिन इस दलील को भी अनसुना कर दिया गया।


सुप्रीम कोर्ट ने इस साल के शुरू में कहा था कि चुनाव आयोग अपने आयुक्तों की नियुक्ति के मामले में भी कार्यपालिका के हस्तक्षेप से मुक्त नहीं है जबकि संविधान निर्माताओं ने एक स्वतंत्र आयोग की परिकल्पना की थी। बाद की सरकारें और लोकसभाएं चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से जुड़े कानून बनाने में विफल रहीं। तब शीर्ष अदालत ने फैसला सुनाया कि कानून बनने तक नियुक्तियां प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा की जाएंगी। हालांकि, सरकार ने संसद के मानसून सत्र में विधेयक पेशकर शीर्ष अदालत के आदेश को बदल दिया। विधेयक में प्रावधान किया गया कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति एक समिति द्वारा की जाएगी जिसमें प्रधानमंत्री, उनके द्वारा नामित एक केन्द्रीय मंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता होंगे।

ऐसे में, जब यह सरकार चुनावों की ‘अखंडता’ की बात करती है, तो किसी को उसकी बात को कितनी गंभीरता से लेना चाहिए?

पीडीटी आचार्य का कहना है कि कहीं इस कदम का इस बात से कोई लेना-देना तो नहीं है कि बीजेपी के पास केवल एक स्टार प्रचारक है। वह कहते हैं, ‘केवल एक ही आदमी है जो हर जगह प्रचार करता है और उसे एक राज्य से दूसरे राज्य में ले जाया जाता है।’ वह उस कार्टून की बात दोहराते हुए चुटकी लेते हैं जिसमें अमित शाह को थके हुए नरेन्द्र मोदी की ओर इशारा करते हुए ‘एक-राष्ट्र, एक चुनाव’ की वकालत करते दिखाया गया है। 

मिड-डे में अपने कॉलम में एजाज अशरफ लिखते हैं, ‘मोदी शासन के तहत किसी भी संभावना को खारिज करना बेवकूफी होगी।’ इससे राष्ट्रीय स्तर पर एक साथ चुनाव कराने के विषय पर चर्चा जरूर शुरू हो सकती है। अशरफ कहते हैं, ‘अपनी निस्वार्थता साबित करने के लिए, वह दिसंबर में पांच राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम- में होने वाले चुनावों के साथ ही लोकसभा के चुनाव भी करा सकते हैं और उसके बाद यह कह सकते हैं कि देश के भले के लिए उन्होंने अपना ही कार्यकाल छोटा कर लिया।’ 

प्रधानमंत्री मोदी के इस दुस्साहसिक प्रयास की अटकलों के बीच तमाम लोगों का मानना ​​है कि यह भारत के ‘राज्यों के संघ’ के विचार और इसकी संघीय संरचना के लिए खतरा है। इसका जो भी होगा, बहुत जल्द होगा। या तो इसे कसौटी पर कसा जाएगा या फिर इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा।

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia