आकार पटेल का लेख: देशभक्ति सिर्फ राष्ट्रगान के समय भावुक होकर खड़े होना नहीं है !

देश और नागरिक के बीच रिश्ते के बहुत से पहलू हैं। राष्ट्रगान के साथ तो सिर्फ 52 सेकेंड का रिश्ता बनता है। भले ही हम राष्ट्रगान के दौरान भावुक होकर खड़े हो जाएं। तो क्या बाकी बचे समय में हमारा देश से कोई रिश्ता नहीं? इससे पहले और बाद में क्या करें नागरकि?

फोटो : सोशल मीडिया
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आकार पटेल

देश को हमसे क्या उम्मीदें हैं? अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी ने जब जनवरी 1961 में शपथ ली थी तो अमेरिका से का कहा था, “यह मत पूछो कि देश आपके लिए क्या कर सकता है, बल्कि यह बताओ की आप देश के लिए क्या कर सकते हैं।”

आखिर उनका यह कहने का मकसद क्या था? उनके इस कथन के पीछे तात्पर्य था कि कैसे देश को साथ लेकर आगे का रास्ता तय किया जाए। खास अमेरिका अंदाज़ में यह तरीका देशवासियों को बिना सरकारी मदद के आत्मनिर्भर बनाना था।

दरअसल केनेडी अमेरिका में लंबे समय से चली आ रही उस परंपरा का हवाला दे रहे थे जिसके तहत अमेरिकी समुदाय और लोग अपनी हर जरूर का खुद ध्यान रखते थे। यह कथन उस एहसास से भी जुड़ा था जो स्वतंत्रता के साथ आता है। असली मायनों में स्वतंत्र होने का अर्थ तो यही है कि हर कोई दूसरे की कृपा से मुक्त हो, सिवाय कुछ मामलों या जरूरतों के।

जैसे, केनेडी के मुताबिक देश प्रेम का असली अर्थ है कि आप देश पर बोझ न डालें

यह तरीका उस समय के उस तौरतरीके से एकदम अलग था जो विश्व स्तर पर अमेरिका के प्रतिद्वंदी सोवियत संघ ने अपना रखा था। सोवियत संघ में उस समय हर स्तर पर जबरदस्त सरकारी दखल होता था।

केनेडी के बीस साल बाद, केनेडी की प्रतिद्वंदी पार्टी के एक और अमेरिका राष्ट्रपति ने भी कुछ ऐसा ही कहा। इस बार रोनाल्ड रीगन ने कहा कि, “अंग्रेजी भाषा में सबसे डरावने 9 शब्द हैं: ‘मैं सरकार की तरफ से आया हूं, और मैं आपकी मदद करूंगा’।”

रीगन रिपब्लिकन पार्टी के उस विचार को सामने रख रहे थे जो जो काफी हद तक रिपब्लिकन पार्टी के उस रुख को पेश करता है, जो केनेडी ने अमेरिका से कहे थे। सरकार, कुछ हद तक लोगों के रास्ते में रोड़ा बन कर खड़ी होती थी। जबकि सरकारों को आम लोगों के लिए रास्ता सुगम करना चाहिए, न कि अवरुद्ध।

लंबे समय तक रिपब्लिकरन पार्टी कहती रही कि सरकार जितनी कम से कम होगी, आम लोगों की जिंदगी उतनी ही बेहतर होगी। जितनी बड़ी और अधिकारपूर्ण सरकार होगी, आम लोगं की जिंदगी में उसका दखल उतना ही अधिक होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना कि, ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’, दरअसल इसी तर्क से निकला नारा है।

तो आखिर भारत में देश और नागरिकों और सरकार और आम लोगों के बीच रिश्ते पर क्या कहा जाए? इसे समझने के लिए हाल के कुछ मामलों को देखना होगा।

केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने एक मीडिया इवेंट में कहा कि, “सबसे रोचक बात यह है कि जब हम देश के बारे में बोलते हैं, तो कुछ लोग कहते हैं कि देशभक्त होना अच्छी बात नहीं है।” उन्होंने कहा कि यह राष्ट्रविरोधी लोग कुछ ऐसा बोलते हैं, “जब राष्ट्रगान चल रहा हो तो आप क्यों इतने सतर्क हो जाते हैं, क्यों इस दौरान खड़े होना जरूरी है। दरअसल लोकतंत्र का जश्न मनाने का सबसे सही तरीका तब होगा, जब आप कहेंगे कि ‘भारत के सौ टुकड़े होंगे’, और मैं इससे असहमत हूं।”

स्मृति ईरानी इस मामले को जिस तरह से पेश किया, उससे देश और इसके नागरिकों के बीच रिश्ते के दो ही तरीके सामने आते हैं। पहला, राष्ट्रगान के दौरान भावुक होकर खड़े हो जाओ और दूसरा देश के टुकड़े होने की कामना करो।

हम नागरिकों का देश से रिश्ता तय करने का यह सही तरीका नहीं हो सकता। देश और नागरिक के बीच रिश्ते के बहुत से पहलू हैं। राष्ट्रगान के साथ तो सिर्फ 52 सेकेंड का रिश्ता बनता है। भले ही हम राष्ट्रगान के दौरान खड़े हो जाएं और भावनाओं में बह जाएं, तब भी 23 घंटे और 59 मिनट तो फिर भी बचते हैं। तो क्या इस बाकी बचे समय में हमारा देश से कोई रिश्ता नहीं? इससे पहले और बाद में क्या करें नागरकि?

हकीकत यह है कि देश और नागरिकों के बीच संबंधों के दूसरे पहलू कमजोर हैं। देश हमसे चाहता है कि हम टैक्स भरते रहें ताकि सरकारें काम करती रहीं, लेकिन गौर करें तो पता चलेगा कि टैक्स देने के मामले में भारतीयों का रिकॉर्ड तो बहुत खराब है। और इसमें वह लोग भी शामिल हैं जो राष्ट्रगान के दौरान भावुक होकर खड़े रहते हैं।

देश अपेक्षा करता है कि हम सारे नियम कानूनों का पालन करें, लेकिन भारतीयों का स्वभाव तो नियम कानून का उल्लंघन करने वालों का रहा है। पूरी दुनिया में किसी भी देश के नागरिक इतने नियम नहीं तोड़ते। जो लोग दुनिया भर में घूमते रहते हैं, वे इस बात की गवाही दे सकते हैं। स्मृति ईरानी को इस तथ्य और तर्क को सामने रखना चाहिए था, न कि भावुकता में बहने वाले कथित देशभक्तों की तस्वीर पेश करनी थी।

और आखिर में, जब सरकार पर निर्भरता की बात आती है, तो हमारा रुझान और रवैया केनेडी के कथन के एकदम उलट होता है। हम चाहते हैं कि सरकार हर मामले में हमारी मदद करती रहे। दरअसल हमारी सोच एक स्वतंत्र सोच है ही नहीं। हम सरकार पर बोझ डालते रहना पसंद करते हैं, जबकि खुद इसकी प्रगति के लिए कुछ करने को तैयार नहीं होंगे। और दुखद बात तो यह है कि केनेडी और रीगन के उलट हमारे राजनेता भी हमें सरकार पर निर्भर रहने के लिए ही उकसाते हैं।

लेकिन स्मृति ईरानी और उन जैसे दूसरे लोगों की तरह, उनकी नजर में तो देशभक्ति बस राष्ट्रगान के दौरान भावुक होकर खड़े होने तक ही सीमित है।

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