मृणाल पाण्डे का लेखः कठोपनिषद् के नचिकेता की तरह हठधर्मी बने जनता, तभी सरकार से मिलेंगे उसके सवालों के जवाब

2014 में जब एनडीए सत्ता में आई, तो लालकिले से ऐलान हुआ कि अब अच्छे दिन आएंगे। प्रधानमंत्री ने ट्वीट किया कि 2022 तक, जब भारत अमृत महोत्सव मनाएगा, वह यथासंभव गरीबी, गंदगी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता से मुक्त होकर एक नए भारत की छवि बनाएगा।

फोटोः सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

पिछले 75 बरसों में आजादी के समय 1947 में जो बड़े नेता और सेनानी हमारे बीच थे, उनमें से ज्यादातर आज नहीं हैं। जब अपने लोग एक दिन तर्पण योग्य पुरखे बन जाते हैं, बीच की पीढ़ी बूढ़ी हो जाती है, तब भी लोकतंत्र चलता रहता है। आजादी के अमृत काल में इतिहास के गलियारों से गुजरते भारत को पीढ़ियों की आवाजाही और लोकतंत्र के क्रमशः विकास का महत्व ठीक तरह समझना होगा। खासकर अब जब हर कोई अपने ही मन की बात करने पर उतारू हो, और जनता और लोकतंत्र को चलाने वालों के बीच जानकारियों और विचारों की सार्वजनिक साझा अदला-बदली बंद हो जाए। अगर संसद से सड़क तक सहज वाद-विवाद और संवाद खत्म हो गया, तो लोकतंत्र को लेकर अपनत्व का वह भाव जो उसकी बुनियाद है, एक कचोट भरे अभाव में तब्दील होने लगता है।

अपने अनपूछे, अनुत्तरित सवालों के जवाब हमको कठोपनिषद् के नचिकेता की तरह अकुलाने लगते हैं। वह हिम्मती लड़का कठोर पिता से लड़-झगड़ कर खुद जीवन-मरण का रहस्य समझने को धड़धड़ाता हुआ यमराज के घर के बाहर तीन दिन भूखा-प्यासा धरने पर पड़ा रहा। हमारे आज के राजनेताओं से जो जनता के महीनों चले धरना-प्रदर्शनों से भी नहीं पसीजते, यमराज कहीं सदय निकले। पहले उन्होंने बच्चे को वह दिया जो हारे राजनेता भी करते हैः दौलत और मौजमस्ती के संसाधनों का ऑफर! लो और चुपई मार जाव! पर नचिकेता आज की चुनावी राजनीति के बीच नहीं पला था। उस सबको ठुकरा कर उसने बस ब्रह्मज्ञान ही मांगा। और उसे वह मिला।

आज की जनता वह हठधर्मी तेवर छोड़ चुकी है। देवताओं से तो छोड़िए, अपने चुने हुए नीति निर्माताओं और प्रतिनिधियों से उसका निडर वाद-विवाद-संवाद का रिश्ता लगभग टूट चुका है। जिनके पुरखे इस सजल धरती को सोने की चिड़िया बना गए थे, उनके सरों पर सुदूर दिल्ली के फतवों से परदेसी भाषा में विशेषज्ञ इस तरह नई नीतियां लादते जा रहे हैं, मानो सारा ब्रह्मज्ञान नेताओं-बाबुओं के पास ही हो।

2014 में जब एनडीए के हाथों में सत्ता आई, तो लालकिले से ऐलान हुआ कि अब अच्छे दिन आएंगे। यशस्वी प्रधानमंत्री जी ने ट्वीट किया कि 2022 तक, जब भारत अमृत महोत्सव मनाएगा, वह यथासंभव गरीबी, गंदगी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता से मुक्त होकर एक नए भारत की छवि बनाएगा। आज अमृत वर्ष 2022 में संसद को दी गई जानकारी के अनुसार, पिछले एक बरस में 1.63 लाख भारतीय भारत को छोड़ कर विदेशी नागरिक बन गए। जाहिर है, उनको अच्छे दिनों का, 2014 के वादों की पूर्ति का कोई भरोसा खास नहीं रहा होगा। जिस काले धन की वापसी और भ्रष्टाचार मुक्ति के आश्वासन से पुलकित जनता ने उलट कर एनडीए सरकार को जिताया था, नोटबंदी-तालाबंदी से लस्त है।


नई सरकार के पहले कामों में था योजना आयोग का नाम बदल कर नीति आयोग करना। बताया गया कि इस इकाई का काम अब केवल उपरोक्त लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सुचारु नीतियां बनाना होगा। नीतियों के तहत केन्द्र से मिलने वाले राजकीय फंड का राज्यों के बीच आवंटन अब केन्द्र खुद करेगा। अगले दो सालों में योजनाकारों की चक्की के पाटों से स्वच्छ भारत, जनधन योजना, स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया, सांसद आदर्श ग्राम योजना, श्रममेव जयते, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, अटल पेंशन योजना, स्मार्ट सिटी स्कीम, उज्ज्वला योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना तथा नमामि गंगे जैसी योजनाओं का ढेर निकलता गया। 2019 के आम चुनावों में सरकार को मिली धमाकेदार फतह से साबित हुआ कि जनता को अभी भी उन वादों पर कितना भरोसा था।

अचानक तीन विवादित कदम उठे। एक, कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति का। दूसरा, नागरिकता कानून में फेरबदल कर पाकिस्ततान तथा बांग्ललादेश से विस्थापित मुसलमानों को छोड़ शेष सभी धर्मानुयाइयों को भारत में शरण देने का ऐलान। इसके तहत बताया गया कि बांग्लादेश, पाक तथा म्यांमार से तमाम घुसपैठिए जो हमारी जड़ें दीमक बन कर कुतर रहे हैं, शरणार्थी शिविरों में समेट कर निज-निज धाम को भेज दिए जाएंगे। पर घुसपैठियों की फेहरिस्त जारी होते ही उसमें पीढ़ियों से भारत में रह रहे लोगों के नामों पर विवाद मचने लगा। फिर, कृषि के तीन नए कानूनों को लाने का प्रस्तावित विधेयक आ गया जिसको किसानों, खासकर हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब के किसानों के प्रबल विरोध के चलते 2021 में (गुरु नानक के जन्मदिवस पर) वापिस लेने की घोषणा कर दी गई। धारा 370 की समाप्ति के बाद भी कश्मीर घाटी ही नहीं, जम्मू तथा लदाख से भी घुसपैठ और उथल-पुथल के संकेत भी जब-तब आते रहते हैं।

चलिए, कुछ और महत्वाकांक्षी नई योजनाओं के जमीनी हालात का जायजा लें जिन पर सरकार अक्सर अपनी देश-विदेश में तारीफ करती रही है। इनमें प्रधानमंत्री आवास योजना, खुले में शौच रोकने और उज्ज्वल योजना शामिल हैं जिनकी बाबत बताया गया कि यह गरीबों, खास तौर से महिलाओं की बेहतरी के लिए बनी हैं। पहली योजना में 2016-21 के अंत तक देश के 2.95 करोड़ ग्रामीण गरीबों और 1.2 करोड़ शहरी गरीबों को घर देने की बात थी, अब उसकी मियाद बढ़ा दी गई है। जोर-शोर से यह बताया गया था कि स्वच्छ शौचालय मिशन बंगाल छोड़कर हर जगह 100 फीसदी लक्ष्य पा चुका है। पर ताजा नेशनल फैमिली हल्थे सर्वे-5 (एनएफएचएस) बता रहा है कि बिहार, झारखंड, ओडिशा तथा लदाख में लक्ष्य का 42 फीसदी से 60 फीसदी ही हासिल हुआ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूएन बाल संस्था के पेयजल और जनस्वास्थ्य सुविधा शोध रपट के अनुसार, शहरों में खुले में शौच करना घटा तो है, पर अभी भी गांवों में 15 फीसदी लोग जल-मल व्ययन की उपेक्षा से बदहाल और जल्दबाजी में समुचित तौर से न बन पाए शौचालयों की बजाय बाहर ही शौच करने को मजबूर हैं।

जिस उज्जवला योजना की तहत पहला मुफ्त सिलेंडर पाकर गरीब महिलाएं निहाल हुईं, आज वे गैस के दाम लगातार बेतहाशा बढ़ने से हजार से अधिक कीमत का नया सिलेंडर नहीं खरीद सकतीं और फिर पारंपरिक ईंधन अपना रही हैं। यही हाल महिला बाल स्वास्थ्य तथा पोषाहार का है। वहां (एनएफएचएस-5 की रपट के अनुसार) बचचों के कुंठित विकास दर में मामूली कमी आई है, वहीं रक्ताल्पता दर 2014-15 की तुलना में बढ़ गई है। 67.1 फीसदी बच्चे तथा 57 फीसदी म हिलाएं इसकी शिकार पाए गए जो कि चिंताजनक है। कोविड के बाद भी अनौपचारिक क्षेत्र में नौकरियां सिकुड़ने से महिला कामगारों की तादाद में भी 26 फीसदी तक की कमी दर्ज हुई है जिसका सीधा मतलब है परिवारों की आय घटना और महिलाओं- लड़कियों की पारिवारिक उपेक्षा बढ़ना। हाथ से मैला ढुलाई-धुलाई मिटाने के खाते में भारी सफलता की बात जरूर की गई है। लेकिन 2019-2020 के बीच (सफाई कर्मचारियों के राष्ट्रीय आयोग की तालिका में) आज भी देश में 42,303 हाथ से मैला साफ करने वाले हैं। पिछले 5 सालों में बिना रक्षक उपकरणों के मैनहोल की सफाई में 340 मौतें दर्ज हुईं।


विदेशों में ग्लोबल वार्मिंग पर चिंता जताने और वैकल्पिक ऊर्जा का प्रयोग बढ़ाने की बात करने के बावजूद जमीन पर हमारी विकास योजनाओं के तहत पेड़ों की कटाई, नदियों पर पावर उपक्रम बनाने, बड़े निर्माण कार्य और बड़े पैमाने पर पहाड़ों में सड़क चौड़ीकरण जारी है। इसके कुप्रभाव बरसाती मौसम में बेंगलुरु, गुजरात से हिमालयीन क्षेत्र तक में दिख रहे हैं। पहले भी सरकारी योजनाओं के तहत काफी निर्माण कार्य होता था, पर आज की तरह जल संसाधन, वन, मिट्टी की बरबादी की कीमत पर नहीं। यह बात सरकारी रिकार्डों में भी दर्ज है कि देश को पुरखों से मिली जानकारी की कसौटी पर नवीनतम इंजीनियरिंग तकनीक को परख कर ही रुड़की से चेन्नई तक इलाके के पर्यावरण के संदर्भ में ही निर्माण कार्य हुआ करते थे। उस समय की इमारतों, पुलों, रेल मार्गों से अधिकतर भी सदी तक सुरक्षित रहे आए।

अमृत काल के ईमानदार सिंहावलोकन से तीन बातें दिखती हैः एक, समाज के सुदीर्घ अनुभवों और जनता के प्रतिनिधियों और विपक्षी राज्य सरकारों से निरंतर वाद-विवाद-संवाद किए बगैर बड़े से बड़े गुणीजनों से बनवाई गई महान और बहुप्रचारित योजनाएं जमीन पर उतर कर बंजर बांझ ही साबित होती हैं। दूसरा, पहले पिछड़े राज्यों की सुध लें। वे विपक्ष शासित हैं मानकर उनकी उपेक्षा से सारे विकास को घुन लग जाता है। और अंत में, नागरिक को उत्पादक के रूप में हर योजना में केन्द्रीय भूमिका मिले। नचिकेता की ही तरह हमारी जनता भी सरकार से मधुर शब्दों की बाजीगरी नहीं चाहती। हमारे महान योजनाकार और उनके सरपरस्त सर्वज्ञता का दावा न करें। विनम्रता से उन इलाकों, लोगों और उनकी परंपराओं से जुड़ें और उनको भी विकास में अपनी राय रखने का ईमानदार मौका दें। यह उनका ही जहूरा है कि 75 बरसों से इतनी दैहिक, दैवी और भौतिक आपदाओं से जूझता हुआ भारत का विविधतामय लोकतंत्र खड़ा रहा है।

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