इजरायल में लोकतंत्र के लिए सड़कों पर उतरी जनता, नेतन्याहू राज में देश के भविष्य को लेकर बढ़ी चिंता

न्यायिक व्यवस्था में बदलाव का प्रस्ताव सरकार को सर्वोच्च न्यायालय तक के जजों को नियुक्त करने का अधिकार देता है। अगर नेतन्याहू अपनी योजना में सफल हो जाते हैं तो इजरायल में लोकतंत्र का भविष्य कैसा होगा, इसे लेकर फिलिस्तीनियों के साथ कई इजरायली भी चिंतित है।

फोटोः GettyImages
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अशोक स्वैन

पिछले कुछ समय से इजरायल के लोग देश की न्यायपालिका को कमजोर करने की बेंजामिन नेतन्याहू सरकार की योजनाओं का विरोध कर रहे हैं। शुरू में यह विरोध केवल सप्ताहांत में ही होता था लेकिन अब यह कामकाज के दिनों में भी हो रहा है। इजराइल ने इस तरह का जबरदस्त विरोध शायद ही पहले कभी देखा हो। विरोध के दिनों में लाखों लोग सड़क पर उतर आते हैं और ऐसा कई हफ्तों से हो रहा है। यह इसलिए भी अभूतपूर्व है कि इजरायल की आबादी महज नब्बे लाख है, यानी दिल्ली की आबादी की आधी से भी कम।

नवंबर 2022 में बेंजामिन नेतन्याहू छठी बार इजरायल के प्रधानमंत्री चुने गए। इस बार फर्क यह रहा कि नेतन्याहू की लिकुड पार्टी के पारंपरिक सहयोगियों ने उनका साथ देने से इनकार कर दिया। इसके बाद भी नेतन्याहू छोटे, बेहद धार्मिक और अति-राष्ट्रवादी दलों के साथ गठजोड़ करके सत्ता में आने में कामयाब रहे। इस तरह उन्हें 120 सीटों वाली नेसेट (इजरायली संसद) में 64 सीटें पाकर बहुमत मिला। नेतन्याहू और उनके नए सहयोगियों को दिखा कि अगर वे न्यायपालिका की ताकत को कम कर दें तो उन्हें बड़ा लाभ हो सकता है। 

बेंजामिन नेतन्याहू के सिर पर लंबे समय से भ्रष्टाचार के आरोप तलवार की तरह लटके हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय को काबू में कर लेने का आकार छोटा कर देने से उन्हें उस सूरत में भी प्रधानमंत्री बने रहने में मदद मिलेगी जब न्यायपालिका उनके खिलाफ फैसला दे दे। उनके अति-राष्ट्रवादी सहयोगी भी पश्चिमी तट के बड़े इलाके को कब्जे में लेने के लिए न्यायिक बदलाव पर अड़े हुए हैं ताकि उन क्षेत्रों में नई बस्तियां बसाई जा सकें। नेतन्याहू सरकार न केवल देश में कानून के राज को कमजोर करना चाहती है बल्कि पश्चिमी तट के मौजूदा प्रशासनिक ढांचे को भी बदलने की फिराक में है। इसका उद्देश्य पश्चिमी तट के कब्जे वाले क्षेत्रों का प्रशासन सैन्य प्राधिकरण के हाथ से लेकर नागरिक प्रशासन को स्थानांतरित करना है जो प्रभावी रूप से क्षेत्र पर कब्जे को कानूनी बना देगा। सरकार की मंशा यह भी है कि आतंकवादी आरोपों में दोषी पाए जाने वाले फिलस्तीनियों और उनके परिवारों की नागरिकता रद्द कर दी जाए और बुलडोजर का इस्तेमाल करके घरों को ढहाए जाने जैसी सामूहिक सजा को भी जारी रखा जाए।

पंद्रह न्यायाधीशों वाला सर्वोच्च न्यायालय इजरायल की सबसे बड़ी अदालत है और देश के लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इजरायली लोकतंत्र के लिए न्यायिक समीक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इजरायल दुनिया के उन पांच देशों में से एक है जिसका कोई औपचारिक संविधान नहीं है। इसके अलावा, केसेट केवल एक सदन वाली विधायिका है; इसमें तमाम दूसरे लोकतांत्रिक देशों की तरह उच्च सदन नहीं है। केवल कनाडा में एक संसदीय बहुमत का निर्णय सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट सकता है लेकिन तब इजरायल के विपरीत, कनाडा में कम से कम एक संविधान तो है।


नेतन्याहू की लिकुड पार्टी ने भी लंबे समय से सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के कथित वामपंथी पूर्वाग्रहों के बारे में शिकायत की है और आरोप लगाया है कि वे कार्यकारी निर्णयों में हस्तक्षेप कर रहे हैं। न्यायिक व्यवस्था में बदलाव का प्रस्ताव सरकार को न्यायाधीशों समेत सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों तक को नियुक्त करने का अधिकार देता है। अगर नेतन्याहू और उनके सहयोगी न्यायिक प्रणाली को बदलने की अपनी योजना में सफल हो जाते हैं तो उस स्थिति में इजरायल में लोकतंत्र का भविष्य कैसा होगा, इस बात को लेकर फिलिस्तीनियों सहित बड़ी इजरायली आबादी चिंतित हैं।

हालांकि इजरायल में हो रहे विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व वामपंथी और उदार इजरायली कर रहे हैं लेकिन इनमें दक्षिणपंथी दल, धार्मिक संगठन, सेना और पुलिस के पूर्व अधिकारी भी भाग ले रहे हैं। कुछ फिलिस्तीनी भी विरोध में शामिल हो रहे हैं लेकिन वे लो-प्रोफाइल रह रहे हैं। हालांकि इसकी वजह रणनीतिक भी हो सकती है ताकि नेतन्याहू सरकार को मुख्य मुद्दे से भटकने का मौका न दिया जा सके और एक बड़ा मंच तैयार किया जा सके जो उदारवादी और मध्यमार्गी इजरायलियों को विरोध में शामिल होने के लिए आकर्षित कर सके। इसी रणनीति के तहत कुछ अवैध इजरायली बस्तियों में रहने वालों को विरोध में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।

विरोध प्रदर्शन में पूर्व प्रधानमंत्री, पूर्व मंत्री और इजरायल के सेवानिवृत्त जनरल भी शामिल हुए हैं। नेतन्‍याहू सरकार के इस सोचे-समझे न्‍यायिक सुधार का विरोध केवल सड़कों तक सीमित नहीं है। तमाम रिजर्व लड़ाकू पायलटों, सैन्य डॉक्टरों और सैनिकों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई और अपने प्रशिक्षण में शामिल होने से इनकार कर दिया। इजरायली राष्ट्रीय एयरलाइंस को नेतन्याहू और उनकी पत्नी को आधिकारिक यात्रा पर इटली ले जाने के इच्छुक पायलटों और चालक दल को खोजने में भी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। यहां तक कि इटली में एक यहूदी अनुवादक ने नेतन्याहू की यात्रा के दौरान उनके लिए अनुवाद करने से भी मना कर दिया।

इजरायल के राष्ट्रपति, देश के राजनीतिक रूप से तटस्थ व्यक्ति ने भी चेतावनी दी है कि देश संवैधानिक और सामाजिक पतन के कगार पर है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन ने नेतन्याहू की न्यायिक सुधार योजना की खुलकर आलोचना की है। एक और दुर्लभ घटना यह हुई कि प्रवासी समूहों के प्रभावशाली संगठन, ‘ज्यूज फेडरेशन ऑफ नॉर्थ अमेरिका’ ने प्रस्तावित बदलाव का विरोध करते हुए नेतन्याहू को एक खुला पत्र भेजा है।


विरोध व्यापक है और अभूतपूर्व भी लेकिन अब तक यह नेतन्याहू को अपना मन बदलने के लिए मजबूर नहीं कर सका है। उनके बेटे ने प्रदर्शनकारियों को आतंकवादी करार देते हुए कहा है कि इन लोगों को जेल में डाल दिया जाना चाहिए। नेतन्याहू ने प्रदर्शनकारियों पर ‘लोकतंत्र को रौंदने’ का आरोप लगाया और यहां तक कहा कि इन विरोध प्रदर्शनों के पीछे विदेशी हाथ हो सकता है। उनके न्याय मंत्री ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सहित विरोधियों पर ‘तख्तापलट’ की कोशिश का आरोप लगाया है। देश की न्यायिक व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव के लिए नेतन्याहू भले अडिग दिख रहे हों लेकिन इस बात की पूरी संभावना है कि वह इस प्रस्ताव को वापस लेने के लिए मजबूर हो जाएंगे। विरोध इतना लंबा, मजबूत और व्यापक है कि नेतन्याहू के लिए उसे नजरअंदाज करना मुश्किल होगा।

इजरायल में लोकतंत्र जीवित रहेगा लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि यह बड़े ही मुश्किल दौर से गुजर रहा है। सवाल यह है कि क्या भारत भी इतना ही भाग्यशाली होगा? नरेन्द्र मोदी सरकार ने पहले ही सर्वोच्च न्यायालय पर हमला शुरू कर दिया है, भले ही वह इजरायल की तुलना में कार्यपालिका के कामकाज पर अंकुश लगाने के मामले में आधा ही सक्रिय रहा हो। भारत के उपराष्ट्रपति और कानून मंत्री खुले तौर पर और बार-बार सुप्रीम कोर्ट की आलोचना कर रहे हैं और भारत के लिए ‘संसद सर्वोच्च है’ के उसी नेतन्याहू के फॉर्मूले को अपनाने की वकालत कर रहे हैं। देर-सवेर भारत को अपने संघर्षरत लोकतंत्र पर इस गंभीर हमले का सामना करना ही होगा। दुर्भाग्य से, भारत की सिविल सोसाइटी, न्यायपालिका और पुलिस बल जैसी प्रमुख संस्थाओं की जो मौजूदा स्थिति है, उससे इजरायल जैसे विरोध के उभरने और संविधान की सर्वोच्चता की रक्षा करने में सफल होने की कोई उम्मीद नहीं बंधती।

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