भाषण और मोर-मोरनी के वीडियो तो ठीक, लेकिन आर्थिक बदहाली पर पीएम-वित्त मंत्री से 'समथिंग मोर' की अपेक्षा

कुछ सेक्टरों में खपत में बढ़ोतरी तो हुई है, पर कोविड से पहले के समय वाली खपत तब तक वापस नहीं हो सकती, जब तक लोगों में अपनी नौकरियों और आमदनी को लेकर आश्वस्ति का भाव नहीं आ जाता। अभी जो स्थितियां हैं, ऐसा होने में दो साल या इससे भी अधिक का समय लग सकता है।

फोटो : सोशल मीडिया
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प्रसेनजीत दत्ता

आर्थिक बहाली का रास्ता काफी लंबा और कठिन तो है ही, इसमें काफी गड्ढे हैं और यह बहुत ऊबाड़-खाबड़ भी है। यह चतुर आर्थिक प्रबंधन की परीक्षा के लिए चुनौती है। समस्या यह है कि वर्तमान गिरावट से उबरने के लिए सरकार को मांग और आपूर्ति- दोनों से निबटना होगा। एक से निबटना तो मुश्किल होता है, इन दोनों से निबटना तो दुःस्वप्न की तरह ही है।

मांग में कमी प्राथमिक तौर पर इस वजह से है कि लोगों की आमदनी तो कम हुई ही है, नौकरियां भी चली गई हैं। लॉकडाउन के शुरुआती दौर का ताप गरीबों और प्रवासी मजदूरों ने सबसे अधिक झेला। लेकिन हालात जैसे-तैसे कुछ सुधरे, तब इस बात के अधिक प्रमाण मिलने लगे कि अनौपचारिक क्षेत्र में तो थोड़ा-बहुत सुधार हो रहा है, पर औपचारिक क्षेत्रमें नौकरियां जाना तो अभी शुरू ही हुआ है। नौकरियां वैसे लोगों की ही गईं जो जाहिर तौर पर कहीं नौकरी कर रहे थे। इस वक्त जो लोग नौकरियों में आते, उनका भविष्य तो अंधकारमय ही है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़े संकेत देते हैं कि जिन लोगों की नौकरी गई, उनमें सभी उम्र वर्ग के लोग हैं।

भारतीय रिजर्व बैंक की रिपोर्ट बताती है कि कोविड ने भारतीयों की पारिवारिक बचत में सेंध लगा दी है। इसकी वजह संभवतः यह है कि हाल में जिनकी नौकरियां जाती रही हैं, वे अपनी आवश्यक जरूरतें पूरी करने के लिए अपनी बचत का ही उपयोग करने को विवश हैं। जब तक ये स्थितियां नहीं बदलतीं, खपत और मांग में बढ़ोतरी मुश्किल ही लगती है। ट्रैवल, मेहमानदारी (हॉस्पिटैलिटी) और मॉल-जैसे कुछ सेक्टरों में मांग में बढ़ोतरी में कुछ साल नहीं, तो कुछ महीने तो लगेंगे ही। कुछ सेक्टरों में खपत में बढ़ोतरी तो हुई है, पर कोविड से पहले के समय वाली खपत तब तक वापस नहीं हो सकती, जब तक लोगों में अपनी नौकरियों और आमदनी को लेकर आश्वस्ति का भाव नहीं आ जाता। अभी जो स्थितियां हैं, ऐसा होने में दो साल या इससे भी अधिक का समय लग सकता है।


आपूर्ति में झटका शुरुआत में आया क्योंकि लॉकडाउन अचानक लगा दिया गया था। अब जब छिटपुट अनलॉकिंग हो रही है, कंपनियां सप्लाई चेन मुद्दों, श्रमिकों की उपलब्धता और जटिल अनलॉक नियमों पर निगाह रख रही हैं। निर्माण और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में अब भी बहुत कम क्षमता से ही काम हो रहा है। कई कंपनियों के लिए कोविड से पहले के समय वाली उत्पादकता में अभी समय लगेगा। कई सेक्टरों में कमजोर कंपनियां बंद हो रही हैं- इस तरह का भाव है कि जो बचा माल है, वह खत्म हो जाए, तो भविष्य को लेकर सोचा जाएगा।

निश्चित तौर पर, सबसे बड़ी समस्या कंपनियों की वित्तीय स्थिति है जो तब ही साफ होगी जब मोरेटोरियम हटा लिया जाएगा। अगले कुछ महीने बाद ही पता चल पाएगा कि कितनी कंपनियां अपना बिजनेस जारी रखने में सक्षम हो पाएंगी। और तब, उन्हें ऋण देने वाली संस्थाओं के लिए भी नई समस्या खड़ी होगी। वित्तीय मजबूती को लेकरआरबीआई की एक अन्य रिपोर्ट में कहा भी गया है कि बेसलाइन परिस्थितियों में नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स में मार्च, 2020 की तुलना में 1.5 गुना तक बढ़ोतरी हो सकती है और अगर ज्यादा खराब हालत रही, तो यह और भी बढ़ सकती है।

सरकार ने अब तक इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं और मनरेगा तथा पीएम गरीब कल्याण योजना समेत विभिन्न सामाजिक योजनाओं में खर्च बढ़ाने की घोषणा की है। इसने सस्ते और तुरंत ऋण, खास तौर से उन लघु और मध्यम उद्योगों को देने की भी घोषणा की है जो सबसे अधिक असुरक्षित हैं। अब जाकर, वह उन योजनाओं में बदलावों की घोषणा कर रही है जो घरेलू मैन्युफैक्चरिंग को शायद मदद करेंगी। इनमें कुछ आयातित सामानों पर आयात शुल्क बढ़ाने-जैसे कदम हैं जिनसे भारत में मैन्युफैक्चरिंग को मदद मिलेगी।


इनमें से किसी कदम में गलती नहीं निकाली जा सकती। पर कहते हैं न- दोष विवरण में रहता है और यही बात है जहां सरकारी क्षमता संदिग्ध है।

सरकार की राजस्व स्थिति दबाव में है। वह अपनी कमजोरियों को लगातार छिपा भी रही है। उससे बड़ी समस्या यह है कि सरकार ने जिन कदमों की घोषणा की है, वह सिद्धांत रूप में तो अच्छे हैं लेकिन पहले जब इन पर अमल किया गया, तो वे भयावह साबित हुए हैं। आयात पर वह जो नियंत्रण कर रही है, वह देश को आर्थिक उदारीकरण से पहले के दौर में ले जा सकती है। इससे उस वक्त घटिया उत्पादन हो रहा था, जबकि माल की कमी रहती थी और दाम भी अधिक थे। ये कदम अब भी वैश्विक मैन्युफैक्चरिंग पारिस्थिकी के खयाल से प्रतिगामी हो सकते हैं।

वर्तमान आर्थिक स्थिति में ऐसे कुशल प्रबंधन और कलाबाजी की जरूरत है जो सुनिश्चित करे कि बिजनेस करने वालों को ऋण और इन्सेंटिव भी मिले लेकिन वित्तीय सेक्टर भड़भड़ाकर गिरे भी नहीं। असली सवाल यह है किः क्या यह सरकार इस कठिन हालात का प्रबंधन कर सकती है। पिछले छह साल में इसने ऐसा तो कुछ भी नहीं किया है जिससे यह विश्वास पैदा हो कि वह ऐसा करने में सक्षम है।

(लेखक बिजनेस वर्ल्ड और बिजनेस टुडे के पूर्व संपादक हैं।)

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